आओ क्विकर पर देश बेच दो
आओ क्विकर पर देश बेच दो
पलाश विश्वास
जाओ मेरी जमीन का
आखिरी टुकड़ा भी चुरा लो
जेल की कोठरी में
मेरी जवानी झोंक दो
मेरी विरासत लूट लो
मेरी किताबें जला दो
मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ
जाओ मेरे गांव की छतों पर
अपने आतंक के जाल फैला दो
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
मैं आखिर तक लडूँगा
मैं लडूँगा
एक फलस्तीनी कविता जो हमें भी अपने रातनीतिक हालात में संघर्ष की प्रेरणा देती है।
आनंद सिंह के सौजन्य से
संसद में आर्थिक समीक्षा पेश होने के बाद लगातार रोजनामचा लिख रहा था। कल लिख नहीं पाया, क्योंकि कल कोलकाता के विभिन्न सेक्टरों के कर्मचारियों और उनके प्रतिनिधियों के साथ डलहौसी में एक मैराथन बैठक में शामिल होना पड़ा। इस बैठक के तहत विनिवेश, निजीकरण, एफडीआई और आर्थिक सुधारों पर अर्थव्यवस्था के मौजूदा हाल और खास तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के महकमों और उपक्रमों के बारे में विस्तार से गहन विचार विनिमय हुआ।
जानकारियां शेयर करने के लिए इस अंतरंग संवाद में तमाम तथ्यों, आयोगों और विशेषज्ञ कमिटियों की रपटों, कानूनों, संशोधनों, संवैधानिक प्रावधानों, नीति निर्धारण अपडेट, आंकड़ों और सबूत दस्तावेजी और बतौर विजुअल ग्राफिकल प्रेजेंटेशन पेश किये जाते रहे। तो कर्मचारी समूहों से अलग-अलग मुखोमुखी संवाद भी हुआ, वक्तव्य भी रखे गये।
बैठक चली दिन के ढाई बजे से रात साढ़े सात बजे तक। एक बजे ही घर से निकला था। आयोजन स्थल से धर्मतल्ला होकर दफ्तर पहुंचते-पहुंचते नौ बज गये। फिर संस्करण निकालने के बाद बेदम हो गये। घर आकर पीसी पर बैठने की हिम्मत हुई नहीं है।
कोलकाता में हमने पहली बार ऐसा आयोजन किया। इसमे पहल बैंकिंग सेक्टर के लगों ने की और स्पेस भी उन्हीं लोगों का था।
पूरे आयोजन के लिए हमें बाध्य किया सुरेश राम जी ने। आनंद तेलतुंबड़े जी आ नहीं सकें। वर्वे और उनकी टीम के साथ मैं नत्थी हो गया। लेकिन प्रेजेंटेशन के बाद इस मौके पर मौजूद लोगों ने जैसे स्वागत किया और अलग-अलग सेक्टर में ऐसे वर्कशाप लगाने का प्रस्ताव देने लगे, हम मुश्किल में पड़ गये हैं।
कल जाहिर है कि हमने बाकी उत्पादन प्रणाली को छूते हुए बैंकिंग सेक्टर को ही पूरे ब्यौरे के साथ संबोधित किया। बाकी ब्यौरे जरूरत के मुताबिक दिये गये। अब ऐसे कार्यक्रम होते रहे तो हमारी तो बाट लग जानी है।
फिर भी हम खुद को बाट लगाने को तैयार हैं। यह तो फिर भी कोलकाता है, दफ्तर और घर में यह सिलसिला हम थोड़ी मशक्कत के साथ जारी रख सकते हैं। लेकिन पिछले दस साल तक हम मुंबई के विभिन्न सेक्टरों के अलावा मुंबई प्रेस क्लब और मराठा पत्रकार परिषद में ऐसे सार्वजनिक आयोजन नियमित करते रहे हैं।
महाराष्ट्र के अलावा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओड़ीशा और अन्यत्र छिटपुट सीमित साधनों और उससे भी ज्यादा सीमित सहयग के मध्य हमारा यह अभियान जारी रहा है। हम तो विश्लेषण और सूचनाओं तक सीमाबद्ध हैं लेकिन बर्वे साहब और उनकी टीम जो ग्राफिकल विजुअल डीटेल्स देते हैं, वह बेहद श्रमसाध्य है। थोड़ा और सहयोग मिला तो हम इस अभियान को विस्तृत और सघन बना सकते हैं।
इसके अलावा, यानि जानकारी बांटने के अलावा इस महामौन और इसके उलट धार्मिक कर्मकांड और अस्मिता महायज्ञ के प्रबल मंत्रोच्चार समय में हम कुछ कर भी नहीं सकते।
हिंदी वालों को थोड़ा गर्व होना चाहिए कि उनका एक अखबार अब भी जिंदा है। एकमात्र जनसत्ता को छोड़ मुख्यधारा के मीडिया में हमारे मुद्दे जो संजोग से जनता के मुद्दे भी हैं, सिरे से अस्पृश्य हैं। प्रिंट में हम अपनी दो बची हुई लघु पत्रिकाओं के अलावा कहीं नहीं हैं। सोशल मीडिया में भी हमारी उपस्थिति नगण्य व्यवधानयोग्य और निरंतर ब्लॉक ब्लैक किये जाने के लिए हैं।
बेहतर हो कि हम सीधे आम जनता के मध्य जायें लेकिन कोई सांगठनिक नेटवर्क न होने के कारण निजी पहल पर ऐसा संभव नहीं है।
बहरहाल, कर्मचारी संगठनों के कामकाज से हमें कोई मतलब नहीं हैं, लेकिन वे सहयोग करें, स्पेस दें और आयोजन करें तो हम उनके नेटवर्क पर यह जानकारी दे सकते हैं। फिलहाल हमारे लिए यही एकमात्र रास्ता है।
हमने देश भर के मित्रों से इस सिलसिले में बात भी की है, जो हमसे कहीं ज्यादा जानकारी रखते हैं, ज्यादा समझदार हैं, बेहतर लिख बोल समझा सकते हैं हमारी तुलना में और शायद उनमें से अनेक सांगठनिक नेटवर्क के साथ हमसे मजबूत हालत में हैं और हमसे ज्यादा प्रतिबद्ध भी। उनके नेटवर्क को एक्टीवेट करने की जरुरत है।
फिलहाल हमारी टीम में कोई फिल्मकार नहीं है, जो आम जनता को ज्यादा कनेक्ट कर सकते हैं।
अगर ऐसे तमाम लोग कुछ वक्त देकर विभिन्न सेक्टरों और हो सकें तो आम जनता के मध्य सिर्फ सेंसर हो रही सूचनाओं को शेयर करने का काम करें तो हम फिर भी इस देश बेचो अभियान के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। कोई जरूरी नहीं कि लोग हमीं से संपर्क करें। कोई जरूरी नहीं कि लोग हमारी योजना के मुताबिक चलें। कोई जरूरी नहीं कि लोग अपने कार्यक्रम से किसी भी स्तर पर हमें जोड़ें। आग किसी के सीने में भी हो, वह आग जलाने का वक्त है यह।
जरूरी है कि पूरे देश में तुरंत इस मुक्तबाजारी नरसंहारी धर्मोन्मादी व्यवस्था के खिलाफ कम से कम जन जागरण अभियान चलाया जाये।
लिखना पढ़ना और बाकी जरूरी काम तो होते ही रहते हैं।
हमारी मजबूरी है कि हमारे पिता कोई उद्योगपति या राजनेता या अफसर न थे वे किसान थे और शरणार्थी थे और उसके साथ ही अस्पृश्य भी। हम जन्मजात स्टेटस अयोग्य है और गीता के मुताबिक यह पूर्वजन्म के पाप का फल है तो हम पहली कक्षा से गीता और महाभारत पढ़ने का सौभाग्य भी न पा सकें क्योंकि तब देश इतना केसरिया भी न था। हम जो लिख बोल रहे हैं।
आगे बढ़ने से पहले आटोमेशन का यह नजारा भी -
राजधानी नई दिल्ली में एटीएम से रुपये निकालने गए व्यक्ति को बिजली का करंट लगने से उसकी मौत हो गई। उसका हाथ एटीएम बूथ के शटर से टच हो गया था। माना जा रहा है कि बिजली के मीटर से तार शटर में टकरा जाने से उसमें करंट आ गया था। यह दुघर्टना शनिवार दोपहर आउटर दिल्ली के होलंबी कलां में हुई। यहां रहने वाले श्याम पांडे (32) एक बैंक के एटीएम से रुपये निकालने गए थे। जानकारी मिली है कि इस एटीएम बूथ के बिजली के मीटर से लूज वायर इस बूथ के शटर से टकराया था। इस वजह से शटर में करंट आ रहा था। श्याम पांडे का हाथ एटीएम बूथ के शटर से टच हो गया। वह करंट की चपेट में आ गए। उनकी तुरंत मौत हो गई। वह प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे।
वैसे तो यह मामूली दुर्घटना है लेकिन दूसरे चरण के आटमेशन आर्थिक सुधारों के दरवाजों खिड़कियों में बहने वाली करंट का यह नकद भुगतान भी है।
हम जाहिर है कि अपनी सामजिक हैसियत के मुताबिक ही हैं। जैसे सौरभ गांगुली अपने क्रिकेट प्रशासक की कुर्सी पर सीएबी की गद्दी में बैठते ही अंबानी मंत्र जाप करने लगे, वैसी जन्मजात प्रतिभा भी हमारी नहीं है। जन्मजात सारस्वत हैसियत भी हमारी नहीं है, जाहिर है।
मुश्किल यह है कि जो लोग जन्मजात अछूत हैं या पिछड़े हैं या सर्वहारा हैं, वे भी लोक के बदले हिंग्लिश कॉरपोरेट जुबान में बात कर रहे हैं।
बाकी तो आप देख ही रहे हैं कि संसद में बीमा बिल पास कराना है और अमेरिकी विदेशमंत्री ने तंबू डाल दिया। दूसरी तरफ, अमेरिका इजराइल को गाजापट्टी में हमले की लिए वित्तीय मदद दे रहा है।
इस सिलसिले में इजराइली हमले पर भारत की सरकार ने अपने उच्च विचार अभी सरेआम नहीं किया लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्री का कहना है कि सबसे बड़े मुक्त बाजार की छवि भारत खत्म करने का दुस्साहस कतई नहीं करें। गौरतसब है कि मोदी ओबामा शिखर वार्ता की यह पृष्ठभूमि है और प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा भी शायद इसी पृष्ठभूमि में है क्योंकि अमेरिकी हित नेपाल में राजतंत्र की वापसी है।
देश नीलामी पर है और इस पर तुर्रा यह कि कॉरपोरेट वकील वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि किसानों का हित सबसे ऊपर है और डब्ल्यूटीओ वार्ताओं में हम इस पर समझौता नहीं कर सकते। बेशक विकसित देश कितना भी दबाव बनाएं। कोई नहीं पूछ रहा है कि गाजापट्टी में फूंक क्यों सरक रही है।
बाबरी विध्वंस और सिखों का संहार कम हुआ, अब पहली कक्षा से गीता और महाभारत पढ़ाने के लिए तानाशाही का भी न्यायिक आवाहन होने लगा है। इसी आवाहन योगाभ्यास के मध्य नेपाल में मोदी के प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार बनाने के संघी बाजारु फैसला होने से काफी पहले से पशुपतिनाथ मंदिर में हिंदू राष्ट्र के पुनरूत्थान की मनोकामना के साथ नमो प्रधानमंत्रित्व का वैदिकी कर्म कांड जारी रहा है। प्राकृतिक विपर्यय के मध्य भारतीय प्रधानमंत्री के भव्य स्वागत के मध्य लोग नेपाल में वापस आते राजतंत्र की आहट भी सुन रहे होंगे।
श्रम कानूनों में 54 जो संशोधन होने हैं, न मीडिया और न सरकार ने इसका खुलासा किया है। आर्थिक सुधारों पर कोई बवाल हुआ नहीं है। न किसी को एफडीआई से तकलीफ है और न विनिवेश से। खुदरा कारोबार में फ्लिपकर्ट, अमेजेन और वालमार्ट की वर्चस्व की लड़ाई और अरबों डालर के निवेश पर वाहवाही है। शेयर भी कुछ कम नहीं होते। दो चार अनाड़ी पकड़े जाते हैं तो हल्ला बहुत होता है, असल चांदी जो काट रहे हैं, उन पर किसी की नजर नहीं।
सिंगुर में सालाना 1300 रुपये के भुगतान पर करीब एक हजार बहुफसली कृषियोग्य जमीन किसानों को जबरन बेदखल कर कामरेडों की सरकार ने दी। तो बैंकों से सालाना एक, दोबारा महज एक प्रतिशत ब्याज पर सिंगुर प्रोजेक्ट के लिए टाटा को सार्वजनिक उपक्रम राष्ट्रीयकृत बैंक से किसने कर्ज दिया, यह सवाल आज तक किसी ने नहीं पूछा।
कोई नहीं पूछता कि हजारों हजार करोड़ का कर्जा दबाकर कारोबार कर रही कार्पोरेट देशी विदेशी कंपनियों को सालाना पांच से लेकर सात लाख करोड़ तक की करों में छूट देने वाली सरकार बुनियादी जरुरतों के लिए मोहताज आम लोगों की सब्सिडी कैसे खत्म करती हैं।
निजी कंपनियों के अरबों के कर्ज के बारे में खुलासा तो होता है लेकिन वह कर्ज वसूलने का राजकाज नहीं होता। जबकि महज दस बीस हजार रुपये के कर्ज के मारे लाख किसान खुदकशी के लिए मजबूर हैं।
ओएनजीसी और तेल कंपनियों ने अब तक देश की क्या सेवाएं की और कितने लाख कर्मचारियों को रोजगार के अलावा सालाना भारत सरकार के राजकोष में कितना योगदान किया, इसका कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता, उन्हें दो कौड़ियों के मोल बेचने की तैयारी है।
जब तक जीवन बीमा निगम का एकाधिकार रहा, तब तक प्रीमियम तक बाजार में खप जाने की नौबत नहीं आयी।
जब तक भारतीय स्टेट बैंक बचा हुआ है, दूसरे सरकारी बैंक बचे हुए हैं, आम लोगों को खासकर देहात भारत के लोगों की आर्थिक गतिविधियां जीवित हैं। इन्हें निजी घरानों को अगले तीन साल के भीतर बैंकिंग संशोधन अधिनियम के जरिये बेच देने के बाद शेयर बाजार भले ही चढ़ेगा लेकिन आम आदमी के चूल्हे पर हांडी चढ़ने की भी नौबत नहीं आयेगी।
बंदरगाहों को भारी संकट में बताया जा रहा है तो इस संकट से उबारने के लिए अदाणी समूह है ही, जैसे संचार, ऊर्जा, कोयला, माइनिंग, इस्पात, शिक्षा, चिकित्सा, निर्माण विनिर्माण, रेलवे, तेल गैस, आटो, एविविएशन, रेलवे से लेकर प्रतिरक्षा और परमाणु ऊर्जा तक सेक्टर सेक्टर में अलग अलग देसी घरानों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हिस्सा और एकाधिकार वर्चस्व है।
सार्वजनिक उपक्रमों से सालाना कितने कर्मचारी हटाये जा रहे हैं। रेलवे में इतने तेज विस्तार और आधुनिकीकरण की तुलना में बुलेट ट्रेन की गति से जो कर्मचारी घटाये जा रहे हैं, उसका कोई लेखा जोखा नहीं है।
आरक्षण के वोट बैंक राजनीति से सत्ता शेयर करने की अस्मिता राजनीति प्रबल है लेकिन स्थाई नियुक्तियां हो नहीं रही हैं, आटोमेशन हो रहा है, छंटनी हो रही है, विनिवेश हो रहा है, सरकार है लेकिन कुछ भी सरकारी है नहीं।
अटल जमाने से आरक्षण शून्य हो गया है। और हड्डी दखल की लड़ाई घनघोर कुरुक्षेत्र है।
श्रमकानूनों का ब्यौरा किसी राजनीतिक दल या ट्रेड यूनियन या संसद के किसी माननीय सदस्य, या किसी केंद्रीय मंत्री या मुख्यमंत्री को मालूम है कि नहीं, हमें मालूम नहीं है। लेकिन औद्योगिक आर्थिक मामलों में नीतिगत फैसलों से पहले औद्योगिक घरानों और कारोबारी संगठनों के साथ साथ वित्त मंत्री की बैठकें विपक्षी दलों और ट्रेड यूनियनों के साथ होती हैं। अभी तक कोई आरटीआई ऐसी बैठकों के ब्यौरे पर लगी है कि नहीं, यह भी हमें नहीं मालूम।
महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इंदिरा जमाने से लेकर मनमोहन तक सोवियत माडल से लेकर पीपीपी माडल के वित्तमंत्री भी रहे हैं। बतौर वित्तमंत्री या बतौर राष्ट्रपति देश में गरीबी उन्मूलन और विकास के जो तथ्य और आंकड़े वे देते रहे, उन्हें झुठलाते हुए उन्होंने मालदह में कह दिया कि इस देश के सड़सठ प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं।
अगले ही दिन उनका बयान आ गया कि वे राजग सरकार के आर्थिक सुधारों की सराहना करते हैं। उनके उत्तराधिकारी पूर्व वित्तमंत्री चिदंबरम भी वित्त प्रतिरक्षा मंत्री कॉरपोरेट वकील अरुण जेटली के हर कदम की वाह-वाह करने में तनिक देरी नहीं करते क्योंकि वे भी अपने मौलिक धंधे में बतौर कॉरपोरेट वकील प्रैक्टिस जमाने के फेर में हैं।


