खामोश लोग आज की प्रतिगामी शक्तियों के सबसे बड़े हथियार हैं - चाहे वह इस्लामी मौन हो कि पारसी या सिख कि ईसाई या हिंदुत्ववादियों का मौन ! आज चुप रहना कुफ्र है।
शार्ली एब्दो पर हुए हमले और उसमें हुई मौतों से सारा फ्रांस आहत और अपमानित है; और रविवार 11 जनवरी को, जब सारी दुनिया छुट्टी मना रही थी, पेरिस की सड़कों पर जो दुनिया उमड़ पड़ी थी वह बता रही थी कि आहत और अपमानित फ्रांस ही नहीं हुआ है बल्कि सारा स्वतंत्रचेता संसार भी खुद को उतना ही आहत व अपमानित महसूस कर रहा है ! 1944 में, नाजी जर्मनी से मुक्ति के बाद पेरिस की सड़कों पर ऐसी भीड़ उमड़ी न थी ! 10 लाख से ज्यादा लोग पेरिस की सड़कों पर थे तो सारे फ्रांस में उस रोज कोई 30-35 लाख लोग सड़कों पर उमड़े थे। वे सब घोषणा कर रहे थे कि हम भी शार्ली हैं ! कभी हमारी सड़कों पर भी तो अनगिनत लोग यह कहते उतर आए थे कि हम भी अन्ना हैं !
मैं संसार की संवेदना और चेतना को जब कभी इस प्रकार उमड़ता पाता हूं, खुद को विश्व नागरिक की भूमिका में देखता हूं और उस पर गर्व भी करता हूं। शार्ली एब्दो के संपादक व कार्टूनकारों ने अपनी जान दे कर हमें ‘अज्ञेय’ की वह बात फिर से याद दिला दी है कि दर्द सबको मांजता है - आज भी और इस दुनिया में भी !
फ्रांस के साथ अपनी एकजुटता दिखलाते एक दर्जन से ज्यादा जो राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-राष्ट्र-प्रतिनिधि पेरिस की सड़कों पर उतरे थे, वे सभी एक दर्द में हिस्सेदारी करने ही आए थे। लेकिन दर्द में हिस्सेदारी में यदि मन की पवित्रता और ईमानदारी के साथ होती है तब बात दर्शक होने या हिस्सेदार होने से आगे जाती है। अगर दर्द सबको मांजता है तो वही यह बोध भी देता है कि हम आगे दर्द के नहीं, उसके निवारण के पक्ष में खड़े होंगे ! उस रोज पेरिस की सड़कों पर इसरायल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतान्याहू और फीलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास साथ-साथ चल रहे थे। उन दोनों को लगा क्या कि आज दुनिया में सबसे अधिक और सबसे नृशंस क्रूरता इन दोनों की तरफ से ही की जा रही है ? हिंसा का कारण और अपनी हिंसा का औचित्य बताना न तो हिंसा की अमानवीयता कम करता है और न उससे निकलने का रास्ता प्रशस्त करता है। हिंसा वह बांझ ताकत है जिससे शांति, न्याय और विश्वास की संतान पैदा नहीं होती है। इसरायल और फिलीस्तीन ने उस दिन पेरिस की सड़कों पर चलते हुए क्या महसूस किया कि शार्ली एब्दो पर चली बंदूक में बारूद उन्होंने भी भरी थी ? क्या फ्रांस और दुनिया का दर्द कुछ अलग ही शक्ल न ले लेता यदि इन दोनों ने वहां घोषणा की होती कि दूसरा कुछ हो या न हो लेकिन अब वे एक-दूसरे को मारेंगे नहीं ? लेकिन ऐसा कुछ सुना तो नहीं हमने ! हमने यह जरूर सुना कि इसरायली राष्ट्रपति ने फ्रांस में रहने वाले यहूदियों से कहा कि वे इसरायल वापस लौटे ! क्यों भला ? फ्रांस में रह रहे यहूदियों से आज अगर कुछ कहना था तो यह कहना था न कि वे अपने फ्रांस की धरती पर अमन व भाईचारे की सबसे मजबूत आवाज बन कर उभरें ! लेकिन बेंजामिन नेतान्याहू ने तो इससे भी छोटी व हल्की बात की उस दिन। उन्होंने कहा: हम आज आपके यहां आतंकवाद के खिलाफ आवाज लगने आए हैं, कल आप इसरायल आएं ! मतलब कि फिलीस्तीन-इसरायल के बीच आतंकवादी हिंसा तो चलती ही रहेगी, आवाज उठाने वाली जगहें बदलती रहेंगी ! यह चोर-मन दुनिया में शांति को कभी शक्ति देता ही नहीं है।
यूरोप में फ्रांस वह मुल्क है जहां सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है। उस दिन फ्रांस में जगह-जगह हुए प्रदर्शनों में जो ३०-३५ लाख लोगों ने हिस्सेदारी की थी, उनमें क्या मुसलमान नहीं थे ? क्या फ्रांस के मुसलमानों ने यह कहा कि निजी धर्म चाहे जो भी हो, फ्रांस की धरती हमारी साझा धरती है और इस धरती पर हम किसी को, किसी का खून बहाने की आजादी नहीं देंगे ? मानव-सभ्यता का इतिहास बताता है कि संगठित धर्म-संस्थान सदा से हिंसा के जनक रहे हैं। तो फिर उस दिन पेरिस में जमा दुनिया के रखवालों ने यह क्यों नहीं कहा कि वे धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं करेंगे ?
फ्रांस के राष्ट्रपति होलांदे ने कहा कि आज पेरिस दुनिया की राजधानी बन गया है! मानवता के अस्तित्व के सवाल पर गूंगे राष्ट्रों के कुछ नेताओं के जमा हो जाने से क्या कोई पेरिस दुनिया की राजधानी बन सकता है ? अगर आज पेरिस को दुनिया ने केंद्र के रूप में स्वीकार किया तो किसी होलांदे के कारण नहीं बल्कि शार्ली एब्दो के कारण ! राष्ट्रपति होलांदे याद करते तो उन्हें जरूर याद आता कि कभी सार्त्र ने तो कभी पिकासो ने पेरिस को दुनिया की सांस्कृतिक व बौद्धिक राजधानी बना दिया था। क्या ११ जनवरी को पेरिस में कोई भी ऐसी आवाज उभरी कि जिसमें नैतिक व बौद्धिक बल हो ?
अमरीका-यूरोप को आतंकवाद से लड़ना हो तो उन्हें बाकी दुनिया की इस सच्चाई को समझना ही होगा कि वहां अभाव है, भूख है और दमन है। इन्हीं कारखानों में आतंकवाद के बीज तैयार होते हैं। इसलिए अभाव, भूख और दमन को हथियार बना कर आप आतंकवाद का मुकाबला न कर पाए हैं और न कर पाएंगे। कठोर-से-कठोर शब्दों में इस्लामी आतंकवाद की निंदा करने से वह खत्म तो नहीं हो रहा है ! फिर हथियार बदलने होंगे ! इटली के राष्ट्रपति रेंजी ने इसे ही समझते हुए यह कहा शायद कि सबसे महत्व की बात यह है कि हम वह यूरोप दुनिया के सामने ला खड़ा करें जिसके पास अपने मूल्य, अपनी संस्कृति और अपने आदर्श हों।
इस्लामी आतंकवाद दूसरा कुछ भी नहीं, इस्लामी धर्म संस्थानों द्वारा बदले की भावना जगा कर, लोगों की आस्था का कायरतापूर्ण इस्तेमाल है। यह डरे लोगों की प्रतिक्रिया है। इसे संवेदनापूर्ण सख्ती से दबाना और नई दिशा में मोड़ना होगा। इस्लामी जगत की बौद्धिक जमात को साहस भी देना होगा और मौका भी कि वे मुखर हों। इस्लाम की प्रगतिशील ताकतों को समझना होगा कि अस्वीकृति की आवाज बंद कमरों में किया जाने वाला कुरान का पाठ नहीं है बल्कि मुल्ला की वह अजान है जो छत पर चढ़ कर दी जाती है; और तब तक दी जाती है जब तक आप जग न जाएं ! पेरिस की सड़कों पर जिस तरह लोग उतरे थे वैसे ही हर नगर-गांव-चौक-चौराहे पर इस्लामी जमातों को उतरना होगा और आतंकवाद और आतंकवादियों की मुखालिफत करनी होगी। मौन को तब भी स्वीकृति का लक्षण मानते थे, आज भी मानते हैं। इसलिए मौन तोड़ने की जरूरत कल भी थी और आज भी है। यह जिम्मेवारी सिर्फ इस्लामी जमातों की नहीं है बल्कि संसार की सारी प्रगतिशील, बौद्धिक जमातों की है लेकिन इस फर्क के साथ कि आप अपनी जमात के बारे में चुप रहें और दूसरी जमातों से सवाल-जवाब करें तो इसमें नैतिक साहस की जो कमी दिखाई देती है वह आपके तीरों को तुक्का बना कर छोड़ देती है। इसलिए खामोश लोग आज की प्रतिगामी शक्तियों के सबसे बड़े हथियार हैं - चाहे वह इस्लामी मौन हो कि पारसी या सिख कि ईसाई या हिंदुत्ववादियों का मौन ! आज चुप रहना कुफ्र है।
अभिव्यक्ति की आजादी शार्ली एब्दो के साथ न शुरू हुई थी और न खत्म हुई है। इसलिए पेरिस की सड़कों पर उतरे और न उतरे दुनिया के सारे ही रखवालों से पूछना ही होगा कि उन्होंने अपने देश में अभिव्यक्ति की आजादी को हर नागरिक का अनुल्लंघनीय व जन्मसिद्ध अधिकार बनाया है या नहीं ? पेरिस की सड़क पर उस रोज थीं 75 साल की फेनी एप्पलबाउम ! हिटलर के दौर में नाजी यंत्रणा कक्ष में उनकी दो बहनों और एक भाई की हत्या हुई थी। उन्होंने कहा : हम मुट्ठी भर शोहदों को अपना जीवन चलाने की छूट नहीं दे सकते हैं, और इसलिए ही आज हम सब यहां एक हैं !”
वही सक्रिय, मुखर एकता हमारी जरूरत है।
० कुमार प्रशांत
कुमार प्रशांत, लेखक प्रख्यात स्तंभकार व गांधीवादी कार्यकर्ता हैं।