आजाद भारत में उदास मुसलमान
अनिल जैन
लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखने वाले किसी भी स्वतंत्र देश की कामयाबी की तमाम कसौटियों में एक कसौटी यह भी है कि उस देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति कैसी है, वे किस हाल में जी रहे हैं, शासन-व्यवस्था और सरकारी सेवाओं में उनकी भागीदारी कितनी है, वे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का किस हद उपयोग कर पाते हैं और बहुसंख्यक समुदाय उनके साथ आमतौर पर कैसा सुलूक करता है?
अपने देश की आजादी के 70वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त हमारे लिए सोचने और चिंता करने की तमाम बातों में एक बात यह भी हो सकती है कि क्या हम इन सत्तर वर्षों में देश में ऐसा माहौल और ऐसी व्यवस्था कायम करने में कामयाब हो पाए हैं जिसमें देश का अल्पसंख्यक तबका भी अपने को वास्तविक अर्थों में आजाद मुल्क का बाशिंदा और बहुसंख्यकों के बराबर का नागरिक महसूस कर सके।
आखिर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और फिर संविधान की मूल भावना तो यही थी कि देश का हर तबका चाहे वह किसी भी इलाके में रहता हो, चाहे जिस जाति का हो, चाहे जिस धर्म को मानता हो और चाहे जो भाषा-बोली बोलता हो, अमीर हो या गरीब हो, कारखानेदार हो या मजदूर हो, किसान हो या खेत मजदूर हो, शासन-व्यवस्था के स्तर पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा।
महात्मा गांधी ने इस संदर्भ में कहा था-

'मैं ऐसे स्वाधीन भारत के लिए प्रयत्न करुंगा जिसमें हर जाति-समुदाय के छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उसकी भूमिका है और उसकी आवाज का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जिसमें धर्म, पंथ, जाति और अमीर-गरीब के बीच कोई भेद नहीं होगा और जहां स्त्री-पुरुष के बीच समानता होगी।’

दरअसल हमारे राष्ट्रपिता का यह स्वप्न-संकल्प ही स्वाधीन भारत की कामयाबी की सबसे बडी कसौटी हो सकती है।
हमारा संविधान भी आम भारतीयों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत प्रभुता संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य होगा। इसके अनुसार शासन का लक्ष्य है सभी समुदायों के नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, जातीय स्वतंत्रता के विचार, विश्वास, धार्मिक आस्था, पूजा-इबादत करने की स्वतंत्रता, अवसर और स्तर की समानता और भाईचारा, व्यक्तियों के सम्मान का भरोसा तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता।
इन सारे प्रावधानों के बावजूद हम पाते हैं कि समृध्दि के चंद छोटे टापुओं को छोड दे तो आमतौर पर भारतीय समाज गरीबी, भूख, बीमारी और दूसरी तमाम दुश्वारियों की कैद में जकडा हुआ है।
दलितों-आदिवासियों की तरह ही अल्पसंख्यक समुदाय भी अभी तक समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाया है।
वैसे भारतीय मुसलमानों की मौजूदा मुख्य और मूल समस्याएं कमोबेश वही हैं, जो समूचे भारतीय समाज की हैं।
ये समस्याएं हैं- आधी से अधिक आबादी की घोर गरीबी और निरक्षरता, व्यापक कुपोषणग्रस्तता (खासकर औरतों और बच्चों में) चिकित्सा सेवाओं का अभाव, स्वच्छ पेयजल और उचित ढंग के आवासों की कमी तथा बडे पैमाने पर फैलती बेरोजगारी।
ये सारी वे समस्याएं है, जिनकी मार करोडों भारतीयों को व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर पर प्रतिदिन झेलनी पड़ती हैं।
कुछ अन्य समस्याएं भी हैं जिनका असर अप्रत्यक्ष और सामूहिक रूप से पड़ता है, जैसे बढ़ती हुई आबादी, विकास की विनाशकारी नीतियों के फलस्वरूप समाज में आर्थिक गैरबराबरी का बढते जाना, शॉर्टकट से पैसा कमाकर रातोंरात अमीर बनने की लालसा, राजनीति का तेजी से होता अपराधीकरण, सांप्रदायिक और अन्य तरह की हिंसा-प्रतिहिंसा का तांडव, सीमावर्ती प्रदेशों में अलगाव की लपटें, कानून के प्रति अवहेलना का भाव और गुंडागर्दी, राजनीतिक धांधली, प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटाले, उपभोक्तावाद और स्वार्थीपन, दूसरों की चिंता और लिहाज का लोभ, सामूहिक चेतना और संकल्प का ह्रास आदि।
ये वे विकट समस्याएं हैं जो भारत में रहने और भारत को अपना देश मानने वाले प्रत्येक समुदाय को चुनौती दे रही हैं, चाहे वह समुदाय किसी भी धर्म या जाति का हो किसी भी नस्ल से अपने को जुडा मानता हो और चाहे जो भाषा बोलता हो।
लेकिन इन सारी समस्याओं के अलावा भी भारतीय मुसलमानों एक बड़ी समस्या है-
बहुसंख्यक तबके के मुकाबले उनकी दोयम दर्जे के नागरिक की हैसियत। उन्हें कदम-कदम पर यह जताना पड़ता है कि वे भी दूसरे लोगों की तरह इस देश से मोहब्बत करते हैं, वे भी देशभक्त हैं।
दरअसल, उनकी इस स्थिति के तार हमारे मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास से जुड़े हैं।

भारतीय मुसलमानों को भारत के बंटवारे का ही नहीं बल्कि अतीत में हुए कुछ अत्याचारी मुस्लिम शासकों के कुकर्मों का भी जिम्मेदार माना और योजनाबद्ध तरीके से प्रचारित किया जाता है।
अधकचरे इतिहासकारों द्वारा रचित इतिहास पर आधारित यह प्रचार हालांकि अतार्किक है और इसका खोखलापन पूरी तरह जाहिर हो चुका है।
फिर भी सवाल है कि महमूद गजनी, मोहम्मद गौरी या अलाउद्दीन खिलजी ने सैकड़ों सालों पहले जो कुछ किया, उसकी सजा आज के मुसलमानों को क्यों दी जानी चाहिए? वे कोई धर्म प्रचारक या मजहबी नेता नहीं थे, वे शासक थे और शासक से भी ज्यादा हमलावर लुटेरे थे। जो उन्होंने किया, वही सब कुछ कई हिंदू राजाओं ने भी किया।
11वीं सदी में कश्मीर के शासक हर्षदेव ने भी अपने खजाने को भरने के लिए कई बार कश्मीर के मंदिरों को लूटा और अपवित्र किया।
ईसा पूर्व सहस्त्राब्दी के मध्य में उत्तर भारत में मिहिरकुल और शशांक के शासन भी बौद्ध विहारों के ध्वंस और भिक्षुओं के कत्लेआम के लिए जाने जाते हैं।
कर्नाटक में दूसरी सहस्त्राब्दी से शुरू होकर सोलहवीं सदी तक शैवों द्वारा बड़े पैमाने पर जैन मंदिरों और प्रतिमाओं को ध्वस्त किया गया।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह कि ये सारे हिंदू और मुस्लिम शासक एक जैसे चरित्र और मानसिकता के थे और इनके दुष्कर्मों का मूल्यांकन इस संदर्भ में होना चाहिए कि मध्य युग में सारी दुनिया में क्या होता था।
जहां तक भारत के बंटवारे का सवाल है, जिसको लेकर भारतीय मुसलमानों को लांछित किया जाता है, वह भी बेमतलब है। दुर्भाग्य से ज्यादातर इतिहासकारों (जिन्हें बकवासकार कहना ज्यादा उचित होगा) ने भी इसे आम राय से स्वीकार कर लिया है कि भारत के बंटवारे के लिए सिर्फ मुसलमान ही जिम्मेदार हैं।
जितना सच यह है कि पाकिस्तान का निर्माण मुहम्मद अली जिन्नाह की जिद के चलते हुआ, उतना ही सच यह भी है कि उन्हें इस जिद के लिए के कांग्रेस के उस समय के शीर्ष नेताओं ने ही बाध्य किया था, अन्यथा बीस से तीस के दशक तक तो जिन्नाह खुद भी व्दिराष्ट्रवाद और पाकिस्तान के विचार की खिल्ली उडाते थे। हालांकि उसी दौर में हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदर्शी नेता व्दिराष्ट्रवाद के सिद्धांत की लगातार पैरवी करने में जुटे थे।
जो भी हो, आखिरकार देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान वजूद में आ गया।
लेकिन भारत के बहुसंख्य मुसलमानों ने जिन्नाह को अपना नेता नहीं माना, इसलिए जिन्नाह को अपनी कल्पना के काफी विपरीत कटा-छंटा पाकिस्तान ही स्वीकार करना पड़ा। तो भारत के जिस बंटवारे के लिए मुस्लिम लीग और जिन्नाह की अदूरदर्शिता के साथ ही कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व की तंगदिली भी जिम्मेदार थी, उसके लिए भारत में रह रहे मुसलमानों को किस तर्क से जिम्मेदार ठहराया जा सकता?
बंटवारे के समय जिन्हें पाकिस्तान जाना था वे चले गए लेकिन जिन मुसलमानों ने स्वेच्छा से भारत में रहना स्वीकार कर अपने मुस्तकबिल को भारत के साथ जोड़ा और हमारे उस समय के राष्ट्रीय नेतृत्व के इस आश्वासन पर यकीन किया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जिसमें हर जाति-समुदाय को अपने धार्मिक-सामाजिक विश्वासों के अनुरुप जीवन जीने की आजादी होगी और उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं होगा।
संवैधानिक तौर पर तो भारत आज भी एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
इस संवैधानिक व्यवस्था पर औपचारिक तौर पर तो उन लोगों को भी अपना यकीन जताना होता है, जिनका इतिहास धर्मनिरपेक्षता के विचार की खिल्ली उडाने का रहा है और जिनमें मुसलमानों के प्रति द्वेष भावना कूट-कूट कर भरी हुई। ऐसे लोग या ताकतें सत्ता में हो या सत्ता से बाहर, मानसिक तौर पर आज भी भारतीय मुसलमानों को लांछन मुक्त करने, उन्हें अपने ही समान इस देश का नागरिक मानने और सिर उठाकर चलने देने को तैयार नहीं हैं।

हमारे राष्ट्रीय जीवन में मुसलमानों की स्थिति कई मायनों में तो दलितों और आदिवासियों से भी बदतर है।
दलितों और आदिवासियों को तो संसद और विधानमंडलों में उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन मुसलमानों के साथ ऐसा नहीं है।
आजादी के बाद से लेकर अब तक लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में कभी भी मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिला।
मौजूदा लोकसभा को ही देखें तो 545 के सदन में मुसलमानों की मौजूदा आबादी लगभग 17 करोड़ के अनुपात में उनके सदस्यों की संख्या लगभग 75 होनी चाहिए, लेकिन है महज 23 मुस्लिम सदस्य हैं।
यही हाल राज्यसभा, विधानसभाओं, विधान परिषदों, नगरीय निकायों, जिला परिषदों और पंचायतों का भी है।

हर जगह मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगातार कम होता जा रहा है।
राजनीतिक रूप से ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक क्षेत्र में भी मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। हालांकि इन क्षेत्रों में उनके पिछड़ेपन के लिए ऐतिहासिक कारण भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल, जब देश का बंटवारा हुआ तब मुसलमानों का जो संपन्न, मध्यवर्गीय और पढ़ा-लिखा तबका था, उसका काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया। जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाकर भारत में ही रहने का फैसला किया उनमें ज्यादातर वे ही थे जो खेती, दस्तकारी और कारीगरी जैसे पारंपरिक उद्योग-धंधों से जुड़े थे या अन्य कामों में मेहनत-मजदूरी कर अपना जीवन-यापन कर रहे थे।
बंटवारे के बाद सरकारों की ओर से भी ऐसे कोई संजीदा प्रयास नहीं किए गए, जिससे कि हिंदू या अन्य समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मध्य वर्ग विकसित होता या उनमें शिक्षा का स्तर सुधर सकता।
मुसलमानों के स्वार्थी और दकियानूसी नेतृत्व वर्ग की ओर से भी इस दिशा में कुछ करने की कोशिश तो दूर, सोचने तक की जहमत नहीं उठाई गई। आम मुसलमान को हमेशा उर्दू, मस्जिद, शरीअत जैसे भावुक मसलों में उलझा कर रखा गया।

रही सही कसर समय-समय पर यहां-वहां होने वाले सांप्रदायिक दंगों ने पूरी कर दी।
आज हालत यह है कि सभी स्तर की सरकारी नौकरियों में भी चाहे प्रशासनिक सेवा हो, पुलिस हो, न्यायिक सेवा हो, विदेश सेवा हो या अन्य स्तर की दूसरी सरकारी सेवाएं हो, सभी में मुसलमानों की हिस्सेदारी नगण्य ही है।

यही हाल सहकारिता और निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों का भी है।
मीडिया में तो हालत बेहद दयनीय है। मुसलमानों आर्थिक स्थिति का अध्ययन कर उसे सुधारने के उपाय सुझाने के लिए केंद्र सरकार ने कई समितियों का गठन भी किया।
लगभग सभी समितियों द्वारा जुटाए गए आंकड़ों पर आधारित निष्कर्ष का संकेत यही रहा कि केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों, सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, सहकारिता क्षेत्र, स्थानीय निकायों और निजी उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में क्षेत्रों में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी बदतर है।
मुसलमानों को अपनी इस हालत के बावजूद तुष्टिकरण के आरोप का यह दंश लगातार झेलना पड़ता है कि सरकार उन्हें जरुरत से ज्यादा रियायतें देती हैं और उनकी हर जायज-नाजायज मांगों के आगे झुक जाती है।
यही नहीं, अगर वे अपने साथ सामाजिक-प्रशासनिक स्तर पर होने वाले भेदभाव या ज्यादती को लेकर कुछ शिकायत करते हैं तो उन्हें यह उलाहना भी सुनने को मिलता रहता है कि वे यहां क्यों रह रहे हैं, पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते।
उनकी आबादी को लेकर भी मनमाने आंकड़े पेश कर उन्हें बदनाम किया जाता है और हिंदुओं में यह काल्पनिक भय भरा जाता है कि मुसलमान जल्द ही इस देश में बहुसंख्यक हो जाएंगे।

कभी उन्हें लव जिहाद के नाम पर तो कभी गो-हत्या को लेकर लांछित और परेशान किया जाता है।
और तो और अब तो बढ़ते वैश्विक आतंकवाद के चलते उन्हें आतंकवादी कौम करार देने में भी गुरेज नहीं किया जाता।
कुल मिलाकर भारत के मुसलमान अपनी तकलीफों और समस्याओं के दलदल में बुरी तरह फंसे हुए हैं।
उनके प्रति दुराग्रह रखने वाली राजनीतिक जमात और उसके समर्थक यह समझना और मानना ही नहीं चाहते कि भारत के 17 करोड मुसलमान किसी अरब देश से आए हुए शरणार्थी नहीं हैं। उनकी जड़ें इसी देश में हैं। उन्हें न तो अरब महासागर में धक्का दिया जा सकता है और न ही वे इस देश को दारुल इस्लाम बना सकते हैं।
यह देश उनका भी उतना ही है, जितना कि यहां रहने वाले दूसरे फिरकों का। इस देश की आजादी के लिए और उसकी हिफाजत के लिए उन्होंने भी कम कुर्बानियां नहीं दी हैं।

भारत की आजादी के सात दशक पूरे होने को हैं लेकिन अभी भी उसे परिपक्व और कामयाब नहीं कहा जा सकता।
आजाद भारत की मुकम्मिल कामयाबी की तमाम शर्तों में एक महत्वपूर्ण शर्त यह भी है कि जी-जान से अखिल भारतीयता की कद्र करने वाले हर तबके की अस्मिता और संवेदनाओं की कद्र की जाए।
आखिर जो तबका कई तरह से वंचित होने के बाद अपनी नियति को इस देश से जोड़े हुए है, उसकी स्वैच्छिक भागीदारी के बगैर क्या कोई गणतंत्र मजबूत और कामयाब हो सकता है? जिस समाज का एक बड़ा हिस्सा स्थायी तौर पर निराश और उदास हो वह कैसे एक सफल राष्ट्र हो सकता है?