पलाश विश्वास
रिजर्व बैंक के जरिये ब्याजदरों में फेरबदल करके सेनसेक्स इकानामी के ग्रोथ तेज करने की कवायद के तहत चमात्कारिक उत्रपादन आंकड़े जारी किये गये हैं। इस सांढ़ संस्कृति पर कल ही लिखा है।
हमारे लोगों को यह अहसास ही नहीं है कि भारत में उत्पादन प्रणाली सिरे से ध्वस्त है। न कृषि उत्पादन,न औद्योगिक उत्पादन और न मैन्युफैक्चरिंग उत्पादन की दशा दिशा में कोई बुनियादी परिवर्तन हुए हैं।
मौद्रिक व वित्तीय नीतियों के मुताबिक रेटिंग एजंसियों की मिजाज पुर्सी के लिए आंकड़े पेश कर दिये गये हैं।
तकनीकी क्रांति के मसीहा सैम पित्रोदा हैं और उनकी महिमा किसी डा. मनमोहन सिंह या अरुण शौरी से कम नहीं है।
बाकी तो न पिद्दी हैं और न पिद्दी का शोरबा।
सैम पित्रोदा से हम अभी तक मुखातिब नहीं हुए हैं और न नंदन निलेकणि से।
दरअसल ग्लोबीकरण के बाद बतौर पत्रकार हमारी गतिविधियां सत्ता के गलियारे से बाहर हैं और परें भी काट दी गयी हैं। लेकिन भारत में सूचना क्रांति में हमारे आदरणीय आनंद तेलतुंबड़े शुरू से शरीक रहे हैं और सूचना तकनीक में उनकी आइकानिक हैसियत रही है। उनके पास सारे आंकड़े, तथ्य और ग्राफिक सिलसिलेवार हैं कि कैसे आटोमेशन और तकनीक के जरिये रोजगार के सारे अवसर खत्म कर दिये गये हैं।
अटल जमाने से संरक्षण के आधार पर नियुकतियां शून्य हैं।
उदित राज की मांग के मुताबिक केंद्र सरकार की ओर से यूपीए जमाने में निजी संस्थानं में आरक्षण हेतु जो कमेटी बनायी गयी थी, उसमें भी तेलतुंबड़े मौजूद थे और कमिटी की बैठक में उन्होंने साफ कर दिया था कि हायर फायर नीति के तहत आटमेशन के तहत सरकारी और बेसरकारी क्षेत्र में आरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं है।
दरअसल यह आरक्षण का अवसान नहीं है, यह कथा उत्पादन प्रणाली के ध्वस्त हो जाने की कथा है, जिसमें मानव संसाधन का सिरे से सफाया है।
आनंद अंग्रेजी में इस पर खूब लिखा है और हम भाषाई दुनिया तक उनका लिखा संप्रेषित करने की कोशिश कर रहे हैं।
हम आनंद की तरह विशेषज्ञ नहीं हैं, लेकिन सत्तर दशक की पीढ़ी भारत में सूचना क्रांति आटोमेशन, हरित क्रांति, धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद, ग्लोबीकरण और अविराम दमन, उत्पीड़न, बहिस्कार, निष्कासन और बेदखली का प्रत्यक्ष दर्शन करती रही है।
मीडिया में जो छप रहा है और विशेषज्ञों के जो सुवचन हैं, जो सूचनाएं, तथ्य और आंकड़े उपलब्ध कराये जा रहे हैं, उससे परिस्थितियों के इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई रास्ता निकलता ही नहीं है। आपको कुल मिलाकर सत्तर के दशक के मध्य फिर फिर लौटना होगा, जबसे आहिस्ते आहिस्ते आटोमेशन और सूचना क्रांति के जरिये उत्पादन प्रणाली को खत्म किये जाने की मुहिम बिना रोक टोक जारी है। साठ के दशक को पकड़ें तो पूरे पांच दशक बीत चुके हैं। कुंभकर्ण भी इतनी लंबी नींद सोया हो, ऐसा रामायण में लिखा नहीं है इतना कि यह देश सोता रहा है और अब भी सो रहा है। नींद में चलने की बीमारी हो तो इससे कुछ असुविधा भी नहीं है। बीमारियों के साथ जीने की आदत हो तो कार्निवाल में कोई व्यवधान भी नहीं होता।
अब अपराध हुआ हो और प्रत्यक्षदर्शी गवाही नहीं देता, तो क्या हो सकता है, जो हो रहा है, वह इसी का प्रतिफल है, क्योंकि सत्तर दशक की पीढ़ी से लेकर हाल फिलहाल के जन फक्षधर मोर्चे में एटीएम संस्कृति के दीवाने बहुत हो गये हैं।
जो लोग व्यवस्था परिवर्तन के लिए घर से निकले थे, उनमें से अब भारी संख्या में लोग व्यवस्था में शामिल हैं और रंगरोगन भी खूब हो गया है। चेहरे पर परत दर परत इतने मुखौटे हैं कि असली चेहरा ही समझ में नहीं आता।
यह वाकया सिख नरसंहार, इंदिरा के अवसान और राजीव गांधी के राज्याभिषेक से पहले का है। नैनीताल में हमने टीवी देखी न थी तो धनबाद के कोयलांचल में भी 1980 में कहीं टीवी का दर्शन हुआ नहीं था। हम पहाड़ों की खूबसूरत घाटियों और नैनीझील की छांव छोड़कर भूमिगत आग के इलाके में दाखिल हुए थे।हमने पहली बार टेलीफोन डायल दैनिक आवाज के डेस्क से किया था।
बिहार क्रिकेट एसोसिएशन तब रूसी मोदी चलाते थे और दैनिक आवाज के चीनी बाबू इससे जुड़े हुए थे। 1981 में चीनी बाबू अपना दल-बल लेकर अमेरिका और यूरोप के दौरे पर गये। जिसमें चीनी बाबू के अलावा आवाज के बंकिम बाबू समेत कई मालिकान भी गये। उनके परिजन भी। इसी दल में धनबाद से पीटीआई के टेक्नीशियन हमारे घनिष्ठ मित्र विश्वजीत भी गये।
वे लौटे तो अमेरिका और यूरोप के विकसित विश्व की चकाचौंध से चुंधियाये हुए थे। हमारे साथ तब भी कवि मदन कश्यप थे। गगन घटा गहरानी के मनमोहन पाठक, कतार के बीबी शर्मा और शालपत्र के वीरभारत तलवार भी उन दिनों रांची धनबाद के बीच डोलते रहते थे।
बंगाल में ज्योति बसु और अशोक मित्र की युगलबंदी से भूमि सुधार अभियान शुरू ही हुआ था और झारखंड आंदोलन में एकेराय, विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन की त्रिमूर्ति थी।
हम लोग उस चमकती विकास कामसूत्र की दुनिया से चौंक जरूर, लेकिन चुंधियाये नहीं। तब सोवियत संघ सही सलामत था और चीन भी मुक्त बाजार में तब्दील न था। मध्य एशिया में तेल युद्ध शुरु होने में काफी वक्त था और ईरान में शाह का पतन हो चुका था। हम बल्कि अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के खिलाफ लामबंद थे।
मुझे याद है कि उसी वक्त आपसी चर्चा में मदन कश्यप सबसे पहली बार बोले थे, हम समाजवादी साम्राज्यवाद पर ध्यान केंद्रित किये हुए हैं लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद के बारे में हम चर्चा करते ही नहीं है। यह गलत ही नहीं, बेवकूफी है। मदन कश्यप की खूबी यही है कि वे सही बात कहने से चूकते नहीं और इस मायने में किसी का लिहाज करते नहीं। मदनजी की वह बात मैं लेकिन भूला नहीं।
धनबाद और बिहार के बुजुर्ग पत्रकार सतीश चंद्र और संपादक ब्रह्मदेव सिंह शर्मा स्वभाव से गांधी वादी थे। वे अमेरिका गये नहीं थे। महाप्रबंधक रावल जी के सात लेकिन सतीश जी का बेटा और हमारे सहकर्मी मुकल अमेरिका गये थे।चीनी बाबू के साथ उनकी पत्नी मैडम सोना केश्कर और साला रघु भी थे। चीनी बाबू सहायक संपादक थे।
शाम को लिट्टी चोखा और सुबह जलेबी सिंघाड़ा के नाश्ते के साथ इन तमाम लोगों ने विकसित विश्व के मुकाबले हम कितने पिछड़े हैं, और लाइसेंस परमिट राज के बदले मुक्त बाजार कितना जरूरी है, समझाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी।
रंगीन टीवी पर सैकड़ों चैनल और अबाध ब्लू फिल्में।
नाइट क्लबों की रंगीन रातें।
फ्री सेक्स।
उच्च तकनीक।
मेट्रो, हवाई उड़ानें और बुलेट ट्रेन।
शापिंग माल और आदिगंत हाईवे।
आटोमेशन और संचार साधनों के बीच मुक्त बाजार का जलजला।
कार्निवाल संस्कृति।
निरंकुश उपभोग और विनियंत्रित बाजार।
लोग दुःखी थे कि शापिंग के लिए उनके पास इफरात डालर नहीं थे। वह जमाना फेरा का भी था।
मदन जी और हम कहते थे कि अच्छा है कि हम अमेरिका और यूरोप में नहीं है। इस पर चीनी बाबू, जिनका परिवार का एक हिस्सा अमेरिका में बसा हुआ था, वियतनाम युद्ध के बाद तकनीकी विकास से अमेरिकी बच्चों के फ्री सेक्स में निष्णात हो जाने और पूरी की पूरी पीढ़ियों की हिंसक आवारा होने की बात शुरू करके बहस में संतुलन बनाते थे।
इसी बीच एक बड़ा हादसा हो गया।
इस अमरिकी दल के एक जश्न में बिना तैराकी जाने पीटीआई के विश्वजीत दूसरों के साथ स्विमिंग पूल में उतर गया और किसी को मालूम नहीं पड़ा कि कब वह डूब गया। इस रहस्यमय मृत्यु के बाद तमाम तरह के विवाद हुए और अमेरिका को सांप सूंघ गया। हम फिर अमेरिका मुक्त हो गये।
तब हम पहाड़ से उतरकर मैदान में ही नहीं गये थे। बल्कि सीधे सत्तर के दशक से तकनीक युग में दाखिल हो गये थे।
लेकिन तब भी खान दुर्घटनाओं, पुलिस फायरिंग, मुठभेड़, जुलूस, आंदोलन, जनता की तकलीफों पर हम लोग लीड खबर बना रहे थे।
हम कोयला खानों को छान रहे थे। भूमिगत आग की तपिश महसूस कर रहे थे और खूनी माफिया वार के मुखातिब हो रहे थे बार बार।
तब झारखंड नहीं बना था और हम आदिवासियों के साथ साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। महाश्वेता दी आदिवासी इलाकों में खूब सक्रिय थीं और हम उनका लिखा लेकर आदिवासियों के बीच जा रहे थे।
तब टेलीप्रिंटर से बमुश्किल सौ डेड़ सौ खबरें आती थी। आज की तरह पल प्रतिपल नेट माध्यमे प्रायोजित अपडेट नहीं था उस जमाने में। मनोरंजन का दायरा सीमाबद्ध था और अखबारों में साहित्य भी खूब छपता था। हमने तब तक पेज थ्री देखा ही नहीं था।
ज्यादातर काम फील्ड वर्क का हुआ करता था और रिपोर्टर जाहिर है कि कापी पेस्ट करते नहीं थे। संपादकीय भी खुल्ला लिखा जाता था।
तब भी टाइम्स में रघुवीर सहाय बने हुए थे जो हम तमाम लोगों से गाहे बगाहे लिखवाते रहते थे।
कोल इंडिया के विज्ञापन से अखबार पट जाता था और कभी कभार हमें कुल जमा एक कालम में लीड से लेकर खेल वाणिज्य तक खपाना होता था।
फिर भी हम बात कह जाते थे।
तब आफसेट क्रांति हुई नहीं थी और प्रूफ रीडर बार बार हस्तक्षेप करते थे कि क्या लिख दिया है, समझ में नहीं आ रहा है। अखबार श्वेत श्याम और फिल्में ईस्टमैन कालर थीं।
हम जो दुनिया पहाड़ में छोड़कर आये, वहां डीएसबीकालेज, नैनीताल समाचार और युगमंच की धूम थी। हम नैनीताल में बिना तकनीक रंगीन नैनीताल समाचार छप रहे थे। गिरदा हमारे रिंग लीडर थे।
धनबाद रांची होकर आपरेशन ब्लू स्टार के मध्य जब हम मेरठ पहुंचे अचानक 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिराजी को उनके ही अंग रक्षकों ने उनके निवास पर गोली से उड़ा दिया। तब तक इंदिराजी 77 की हार के बाद समूचे सूचनातंत्र को अपने हाथों में लेने की रणनीति बनाकर 1980 की वापसी के बाद देश बर में टीवी नेटवर्क बना दिया था और उसी नेटवर्क पर लगातार तीन दिनों तक गोलियों से छलनी इंदिरा गांधी के शव को दिखाया जाता रहा।
सिख नरसंहार का आंखों देखा हाल भी हिंदुत्व हित में अखबारों और सरकारी टीवी पर दिखाया जाता रहा। उसी रक्तपात मध्ये राजीव गांधी का राज्याभिषेक हो गया और संघ परिवार बिना शर्त उनके साथ नत्थी हो गया।
भाजपा को संघ परिवार ने तब भी हाशिये पर धकेला था और 1984 के चुनावों में राजीव गांधी के कंधे पर बंदूक रखकर हिंदुत्व का ध्रुवीकरण एक मुश्त हो चुका था।
हिंदू हितों की रक्षा का राष्ट्रवाद तबसे अब तक बेलगाम जारी है जो कि शुरू से मुक्त बाजार का राष्ट्रवाद है।
राजीव गांधी ने टीवी को रंगीन बना दिया।
भारी बहुमत के बाद राजीव गांधी सीधे सुपर कंप्यूटर की भाषा बोलने लगे। वे सीधे पायलट से राष्ट्र नेता बने तो देश की उड़ान भी शुरू हो गयी। मैंने इसी कथ्य पर नब्वे के दशक में एक लंबी कहानी लिखी थी, उड़ान से ठीक पहले का क्षण। जो मेरे पहले कथा संग्रह “अंडे सेते लोग” में शामिल है। यह कथासंग्रह भी ज्यादातर मेरठ दंगों की पृष्ठभूमि में राममंदिर आंदोलन के प्रेक्षापट पर हिंदुत्वकरण और मुक्त बाजार की थीम पर है।
हिंदू हितों की रक्षा के लिए ही अरुण नेहरु मार्फत राम मंदिर का बंद दरवाजा खोल दिया गया और सैम पित्रोदा तब तक कमान संभाल चुके थे। मंटेक की विदाई तो कर दी मोदी ने लेकिन अब तक सत्ता वर्ग के सूचना मसीहा सैम पित्रोदा की ताजा हैसियत के बारे में कोई खबर नहीं है।
नंदन निलेकणि नहीं रहे लेकिन उऩकी आधार परियोजना है। इंफोसिस का जलवा जारी है।
इंदिरा जी ने देशी कपड़ा उद्योग का सत्यानाश के माध्यम से रिलायस साम्राज्य की नींव डाली तो राजीव गांधी ने उच्च तकनीक, आटोमेशन और सूचना क्रांति को विकास का थीम सांग बनाकर प्रस्तुत कर दिया।
बोफोर्स दलाली के बाद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जो वीपी सिंह की सरकार आयी, उसके करिश्मे से मंडल बनाम कमंडल हो गया। 1984 से 1090 तक का यह नजारा और चंद्रशेखर के भुगतान संतुलन के नजारे के मध्य प्रथम खाड़ी युद्ध भी हमने निरंतर युद्धक्षेत्र में तब्दील होते हुए उत्तर प्रदेश में ही देखा। मुखातिब भी हुए चंद्रशेखर और वीपी के, दोनों के।
कोलकाता जब पहुंचे तो सोवियत संघ का पतन हो गया था और पूंजी के पीचे भागने लगे अपने प्रिय तमाम कामरेड भी। हम 1984 से आफसेट आटोमेशन जमाने में दाखिल हो गये थे। कोलकाता आते ही वीआरएस शुरू हो गया और अटल शौरी जमाने से विनिवेश बेसरकारीकरण की धूम लग गयी।
जब हमें कंप्यूटर पर ही खबरें कंपोज करने, और एडिट करने के लिए कहा गया, पेज कंप्यूटर पर बनाने का फतवा जारी किया गया, प्रबंधन से हमारी तगड़ी टक्कर हो गयी और तबसे हम मीडिया में हाशिये पर हैं।
मुक्त बाजार का यह कार्निवाल अचानक नहीं है। यूरोप अमेरिका जाने वाला तबका और वहां बसने वाले भारतीय प्रवासी अस्सी के दशक से इसके लिए आकुल व्याकुल हो रहे थे।
इंदिरा जमाने से ही हिंदुत्व और मुक्त बाजार का संबंध चोली दामन का है और हम उस जमाने को अब भी समाजवादी कहते अघाते नहीं है।
हम पूरे पांच दशक तक सोते रहे, नींद में तमाम क्रियाएं करते रहे। भारतीय मनुष्यों की इस अप्राकृतिक करतब से तमाम सरीसृप प्रजातियों को लाज आयेगी।
हम लेकिन इस विकास कामसूत्र में मोक्ष खोज रहे हैं। शर्मिदंगी का सवाल ही नहीं उठता।
राष्ट्रभक्त अब वही है जो देश बेचने में सबसे आगे हो। राष्ट्रद्रोह वह है जो जनता के हक में बुलंद आवाज है।
जाहिर है कि सिर्फ सौंदर्यशास्त्र नहीं बदला है और न सिर्फ इतिहास और विधाओं की घोषणा हुई है, अब राष्ट्र का भी अंत निकट भविष्य है। चूंकि हम परिभाषाओं, आंकडो़ं, तथ्यों और अवधारणाओं, मूल्यों, विचारधारा और प्रतिबद्धता को रिफार्मेट कर चुके हैं, इसलिए देश मरे या जनता, शायद किसी को फर्क नहीं पड़ने वाला है और सत्तर दशक की यह शोकगाथा शायद किसी को रुलाने के लिए काफी है।
पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।