क्या यह एक भीषण त्रासदी नहीं है
अशोक गुप्ता

16 दिसंबर 2012 को हुये जघन्यतम बर्बर कांड का आंशिक फैसला, तमाम द्रुत अदालतों और आन्दोलनों के बावज़ूद 255 दिनों बाद आया है और वह न्यायकारी फैसला मुख्य नायक अपराधी को मात्र तीन साल की सजा सुनाता है। इस फैसले की पर्देदारी यह है कि अपराधी, पंचों की जांच के आधार पर नाबालिग है और उसके लिये, जघन्यतम कृत्य होने पर भी इससे अधिक सजा का प्रावधान कानून में नहीं है। राष्ट्रपति से लेकर न्यायाधिपति सब विवश है धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह की तरह। इसके बर-अक्स, दृष्टांत गिनाने की ज़रूरत नहीं कि हमारी सरकारें कानून की धाराओं से खेलने में और उन्हें धता बताने में कितनी माहिर हैं। आपातकाल से ठीक पहले जिस तरह से संविधान तक बदल कर देश के लिये अँधेरा चुन लिया गया था, उससे यह तो पता चलता ही है सत्ता के लिये इच्छा होने पर कुछ भी कठिन नहीं है और जनहित सत्ता की इच्छा हो जाय, यह बहुत कठिन हैं।

ऐसे में, जब जनहित के आगे कानून एक मजबूत दीवार के आगे खड़ा हो, एक वैकल्पिक व्यवस्था की खोज ज़रूरी हो जाती है, भले की वह चुनी हुई व्यवस्था वैधानिक न हो। इस अनिवार्यता को नक्सलवाद या आतंकवाद का नाम दे कर समझा जा सकता है। आतंकवाद और नक्सलवाद जैसे विशेषण सत्ता के शब्दकोष के अलंकरण हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे लंका में हनुमान रावण और लंका के नागरिकों के लिये आतंकवादी थे, लेकिन अगर राम की दृष्टि से देखा जाय तो..? हनुमान ने अपनी पूंछ में आग लगा कर सोने की लंका का जो हाल बनाया वह निश्चित ही विध्वंसकारी था, पर उसे लंकेश ने खुद आमंत्रित किया था... उसमें रावण का निजी स्वार्थ था, जिसका कोई सरोकार लंका की जनता से तो क्या रावण के परिवार तक से नहीं था।

ऐसे में, देश की सर्वोच्च सत्ता व्यवस्था दशकों पुराने नाबालिग कानून को बदलने की तुरत-फुरत तैयारी करेगी या अपने पुलिसिया बल और अपराधी माफिया शातिरों के दम पर फूलते हुये नये सामाजिक आतंकवाद का सामना करेगी, यह उसे सोचना है।

दिसंबर’85 में टाइम्स ऑफ इण्डिया की पत्रिका ‘सारिका’ के कथा पीढ़ी 5 में मेरी कहानी ‘इसलिए’ छपी थी, जिसके निर्णायक संवाद को मैं यहाँ दोहराना चाहता हूँ,

“ जी खून करने में डर कैसा..? आदमी की जान तो वैसे भी पानी का बुलबुला समझिये, चाहे वह मेरी हो या सी एम. की लेकिन आदमियत तो पानी का बुलबुला नहीं होती.. उसका वजूद आदमी के बाद भी होता है। न्याय पानी का बुलबुला नहीं होता, लोकतंत्र पानी का बुलबुला नहीं होता, नैतिकता और राष्ट्रीयता पानी का बुलबुला नहीं होती, शिक्षा पानी का बुलबुला नहीं होती।। इसलिए जब न्याय, लोकतंत्र, शिक्षा, नैतिकता, राष्ट्रीयता, और आदमियत की रक्षा किसी और तरह संभव न हो, तब आदमी का खून बहाना ज़रूरी हो जाता है।”

क्या यह एक भीषण त्रासदी नहीं है कि तीन दशक बाद भी यह निर्णायक सूत्र वाक्य प्रासंगिक बना हुआ है, और एक नहीं कई कई मुद्दों पर अनुकूल विकल्प की तरह सामने आता है। ? बताइये...!