आदिवासी आंदोलन की तीन माँओं में से एक और उनकी साझी विरासत-मझिलिया
आदिवासी आंदोलन की तीन माँओं में से एक और उनकी साझी विरासत-मझिलिया
बादल सरोज
मझिलिया को नहीं मालूम कि वे कितनी साल की हैं। उनसे पूछा जाए तो वे कहती हैं कि गुलाब सिंह ने जब सोन की पुलिया बनवाई थी तब वे अपनी माँ के साथ उस पर काम करने के लिए जाया करती थीं। गुलाब सिंह रीवा रियासत के महाराजा थे-आजादी के पहले ही वे चल बसे थे। उसके भी काफी पहले उन्होंने शहडोल के इस इलाके में सोन नदी पर पुलिया बनवाई होगी। अब न तो रीवा राज है-और न वह जिस पर मझिलिया के नन्हें हाथों ने काम किया था। मझिलिया हैं जो अब- उनकी बेटी और जनपद पंचायत (बी डी सी) की निर्वाचित सदस्य प्रेमाबाई के अनुसार- 85 तो पार कर ही चुकी हैं।
मझिलिया अपनी पार्टी के नेताओं (राज्य सचिव और जिला सचिव) को अचानक अपने घर में पाकर थिरक उठती हैं। उनकी कमर का दर्द काफूर हो जाता है। वह एक साथ दो-दो जगह चाय के लिए बोल आती हैं। इस पार्टी के साथ की उनकी सारी यादें उनमें उत्साह जगा देती हैं। पार्टी उनका मायका है, पार्टी उनकी ससुराल। पार्टी उनकी दुनिया है, पार्टी उनका परिवार। मझिलिया का जन्म का नाम छुल्ली मरावी है। मझिलिया का ख्यातनाम उन्हें लड़ाइयों में हासिल हुआ।
मझिलिया मध्यप्रदेश के विंध्य क्षेत्र के आदिवासियों और ग्रामीण गरीबों के संघर्षों की तीन माँओं में से एक हैं। अब वे ही हैं।
अमरकंटक की तलहटी के इलाके की मंगली और मैकी बैगा बहने और गोहपारू के तुलनात्मक रूप से मैदानी क्षेत्र की मझिलिया
गोंड की अगुआई में इस इलाके के आदिवासियों और ग्रामीण गरीबों ने घर-जमीन से लेकर आत्मसम्मान और इज्जत की घनघोर लड़ाइयां लड़ी और जीती हैं। लालझंडा थाम के जब इन तीनो की अगुआई में जंगलो से हुजूम उभरे थे तब तक संविधान और क़ानून और लोकतंत्र की चिड़िया उनके अँधेरे घरों और बसाहटों तक नहीं पहुँची थी। दुनिया का सर्वशक्तिमान व्यक्ति खाकी वर्दी में चाहें जब आ धमकने वाला वन विभाग का (यहां उसे जंगलिया कहते हैं) छोटा-बड़ा अधिकारी कर्मचारी होता था। जिसकी खातिर सिर्फ मुर्गे और नकदी से ही पूरी नहीं हो पाती थी। उसकी निगाहें जिस बच्ची या युवती पर पड़ जाती थीं, उसकी सलामती मुश्किल हो जाती थी। इन खातिरों के बाद भी जंगलिया उन्हें खदेड़ कर, खड़ी फसल उजाड़ कर और पत्थरों-लकड़ियों के "मकान" को धूल में मिलाकर और ज़रा भी सवाल उठाने वाले को जेल भेज कर ही मानता था। मंगली-मैकी और मझिलिया ने उस जमाने में आर-पार की लड़ाई का फैसला लिया था। उन्हें नहीं पता था कि लड़ने के तरीके क्या होते हैं। मगर अपनी ज़िंदगी सलामत रखने की उनकी ज़िद ने उन्हें इकठ्ठा होना, हमले की हालत में सब तक जल्दी जल्दी खबर पहुंचाना और न जाने क्या क्या सिखा दिया। संघर्षो की इसी कवायद के दौरान इन तीनो को लालझंडा मिला और उसके बाद तो जैसे निखार ही आगया।
मझिलिया को याद है कि लालझंडे की पार्टी की पहली मीटिंग में आये कामरेड ने जब जमीन कब्जे की और उस कब्जे के पट्टे को हासिल करने की लड़ाई के तरीकों के बारे में बताया था तो करीब दो घंटे तक सारे लोग उस कामरेड को अपने ऊपर होने वाले जंगलियाओं के ज़ुल्म-अत्याचार की कहानियां सुनाते रहे थे। कई तो अपनी व्यथा सुनाते सुनाते रो भी पड़े थे। मझिलिया बताती है कि इन सब कहानियों को सुनने के बाद कामरेड ने मुकाबले के लिए संगठित होने के अलावा एक बात जोर देकर कही थी और उस एक हिदायत ने लड़ाई के रूप को बदल दिया था। वह हिदायत थी कि "अगली बार अगर कोई जंगलिया आता है तो जिस की जमीन या बेटी पर उसकी निगाह है सिर्फ वही परिवार मुकाबला नहीं करेगा। बाकी सब भी तुरत-फुरत इकठ्ठा होकर उसके लिए लड़ेंगे। साथ ही यह भी कहा था कि अब की बार कोई पिट के रोते हुए नहीं आएगा- जब भी आएगा तब पीट कर आएगा। इस सूत्र को पकड़ कर वर्षों तक चली जमीन की लड़ाई में मंगली-मैकी और मझिलिया की अगुआई में आदिवासियों ने अपने अपने हिस्सों की जमीन फाड़ी, जोती, बोयी,काटी। हजारों को साथ लेकर शहडोल की कलेक्टरी घेरी, जेलें भरी, भोपाल-दिल्ली तक रैलियां की। मझिलिया ने आदिवासी आंदोलन में जीती गयीं जितनी जमीन और जितने गाँव का हवाला दिया उन्ही का जोड़ पांच से छह हजार एकड़ होता है। आदिवासी और अन्य ग्रामीण गरीब अभी तक, दूरदराज की अब तक सामान्य पहुँच से बाहर पड़ी अपनी जमीन पर काबिज हैं। अनेकों ने वाम दलों के दबाब में बने आदिवासी एवं परम्परागत वनवासी वनाधिकार क़ानून के तहत पट्टे भी हासिल कर लिए हैं। जिन्हे नहीं मिले हैं वे अभी भी लड़ रहे हैं-जमीन नहीं छोड़ रहे।
मझिलिया खूब खुश है कि उसके इलाके में उसकी पार्टी अपना राज्य सम्मेलन करने वाली है। वह अपने राज्य सचिव और जिला सचिव से अनुरोध करती है कि वे उसके परिवार वालों को समझा कर जाए कि उसे इस सम्मेलन में जाने के लिए वे लेकर जाएँ।
सम्मेलन से पहले मझिलिया अपनी आँखों का आपरेशन करवाना चाहती है। उसे नहीं पता कि यह कैसे होगा। उसकी फ़िक्र यह भी है कि शिवराज की सरकार ने उसके चावल का कोटा बंद कर दिया है। उसे अपनी चौथी पीढ़ी की बच्चियों की पढ़ाई के लिए बेहतर स्कूल की भी चिंता है। वह अपने गाँव- गोहपारू से पांच किलोमीटर दूर मोहतरा-के अपने टोले की बूढ़ी-बेसहारा-विधवाओं की पेंशन को लेकर भी फिक्रमंद है।
85 + साल की मझिलियाँ के अंदर अभी भी सुलग रही है आँच, सुर्ख आहन के इंतज़ार में नहीं वह, अपनी आँखों में सहेजी हुयी है उसने आग, किसी मोदी-शिवराज के ज्वार या मनमोहनो के भाटो की हिमाकत से बेपरवाह मझिलिया के बूढ़े हाथ पतवार पर हैं और पाल खुले हुए हैं। उसे पता है कि उसकी पार्टी में हर मंझधार को पार करने की कुव्वत है। इसीलिए ये तीनो मांए अपने हिस्से की आँच अपने आगे की पीढ़ियों को भी दे गयी हैं। मझिलिया की बेटी प्रेमा सीपीआई(एम) की शहडोल जिला समिति की सदस्य और गोहपारू की स्थानीय समिति की सचिव है। मंगली का बेटा नरबद बैगा पार्टी ब्रांच का सचिव है। मैकी का बेटा रामाधार पार्टी सदस्य है।


