आप का मकसद देश में राजनीतिक संकट पैदा करना मात्र था
आप का मकसद देश में राजनीतिक संकट पैदा करना मात्र था

भारतीय राजनीति में आप का अवतरण और अवसान
जनता मंहगाई और बेरोज़गारी की बेचैनी के कारण देश की दोनों प्रमुख पार्टियों से असन्तुष्ट होकर जिस तीसरी पार्टी का दामन थामा वह वास्तव में रणछोड़दास सिद्ध हुई। अब वह कई झूठे बहाने बनाकर जिम्मेवारी से भाग निकलने का रास्ता तलाश रही है। इससे आम आदमी पार्टी का जो होना था वह तो हो गया लेकिन जनता की लोकतन्त्र में आस्था को जो आघात पहुंचा है वह अकल्पनीय है। जनता जिसे अपना रहनुमा मान रही थी वह एक ठग की तरह बर्ताव कर रहा है। यह पार्टी बदलाव का राग लगातार अलाप रही थी पर जब बदलाव का अवसर आया तो इसके अपने ही हाथ पांव फूलने लग गये। अब इसके नेता अपने पक्ष में पूर्ण बहुमत न होने के कारण दिल्ली में सरकार बनाने के लिए अपनी असमर्थता को छुपाते हुए कई शर्तें समर्थन देने वाली पार्टियों पर लाद कर अपनी साख बचाने की तर्कहीन कोशिश कर रहे हैं। उनके इस ढुलमुल रवैये के कारण भाजपा और कांग्रेस को इसके नेताओं को भ्रमित और अनाड़ी तक कहने का अवसर जुटा दिया है।
वास्तव में कांग्रेस जिसके उपाध्यक्ष उनकी शानदार जीत से प्रभावित होकर इससे कुछ सीखने की बात कर रहे थे और बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा कर रहे थे अब इनकी ऐसी असमर्थता देखकर पलटवार कर रहे हैं कि जनता को लोकलुभावन नारे देकर उनके वोट तो लिए जा सकते हैं लेकिन नारों को पूरा करने के लिए जिस आत्मविश्वास की ज़रूरत होती है वह आप के नेताओं में नहीं है। इसलिए ये लोग विपक्ष में बैठ कर सरकार की आलोचना तो कर सकते हैं लेकिन सरकार चला नहीं सकते।
अब जनता के आगे सवाल है कि क्या उसके पास भाजपा और कांग्रेस के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ?
आप पार्टी की लालबुझक्कड़ी राजनीति ने अपने वोटरों के साथ विश्वासघात किया है। उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। ऐसा लगता है कि इन नेताओं को न तो अपने देश के संविधान की जानकारी है न राजनीतिक परम्पराओं का अहसास है। यह देश बहुभाषी ही नहीं अपितु धर्म नस्ल जाति और संस्कृतिक की जो विविधता विद्यमान है उसके चलते किसी एक पार्टी को बहुमत हासिल हो जाये ज़रूरी नहीं है।
अगर उसे यह उम्मीद हो कि कि जनता उन्हें लिखित रूप में विश्वास दे कि उसकी सरकार बिना रोकटोक पांच सल चलने दी जायेगी तो इसे आप पार्टी द्वारा जनता पर वैचारिक तानाशाही आरोपित करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि आप के इस धमाके का कोई असर भारतीय राजनीति पर पड़ा ही नहीं। पहली बार सत्ता की दावेदार दो पार्टियों को एक ऐसे संगठन से हार खानी पड़ी है जिसके पास न राजनीति की साफ समझ है, न कोई अनुशासनात्मक ढांचा और न ही कोई प्रत्यक्ष रूप में धनबल से सहयोग करनेवाली जातिवादी या क्षेत्रवादी ताकत। आप ने भी अपने शुरुआती तेवर संघ परिवार और नेहरुगान्धी परिवार के प्रति समान रूप में आक्रामक रखकर जनता का विश्वास हासिल करने में कामयाबी पाई। उसने अपना चुनाव चिन्ह भी दलित जाति के रोज़गार का औज़ार झाड़ू स्वीकार करके जनता को दलित वंचित जातियों के हमदर्द होने का संकेत दिया। मध्यमवर्ग को भ्रष्टाचार की गंदगी साफ हो जाने की उम्मीद बन्धी। यही नहीं इन्होंने चुनाव में रैलियों और पोस्टरों पर कम खर्च करते हए वोटरों से व्यक्तिगत सम्पर्क साधने का रास्ता चुन कर मतदाताओं का मन जीत लिया। इन सब बातों के लिए आप पार्टी के सकारात्मक पक्ष को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। यह कामयाबी ही उसकी ताकत है लेकिन पार्टी अपनी ताकत पहचानने में चूक रही है।
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यह चूक अकारण भी नहीं है। इस पार्टी के नेताओं के पास जनता की तकलीफों की लम्बी सूची तो है और उन तकलीफों से छुटकारा पाने की इच्छा भी है लेकिन इनके पास विचारधारा नहीं है जो इन्हें समस्याओं के मूल कारणों तक ले जाकर उनसे लड़ने का रास्ता बता पाये। जनता को तकलीफों से मुक्ति चाहिये। उसे तकलीफों के नाम आते हैं जैसे मंहगाई बेरोज़गारी और सामाजिक न्याय का अभाव लेकिन इनसे मुक्ति कैसे मिलेगी इसे जानने के लिए वह नेताओं के पास जाती है। जब नेता जनता से वोट लेने के बाद कुछ और शर्तें भी पेश करने लगें तो जनता का विश्वास डगमगाने नहीं लगेगा क्या ?
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान परिस्थिति में आप सरकार बना कर उसके माध्यम से अपने वायदे पूरा करने की स्थिति में नहीं है। यह भी निश्चित है कि कांग्रेस का बिना शर्त समर्थन किसी भी वक्त टूट सकता है। लेकिन सरकार बनाने के लिए ऐसे जोखिम उठाना लोकतान्त्रिक राजनीति का राजधर्म है।
सुन्दर लोहिया
सुन्दर लोहिया, लेखक स्वतंत्र समीक्षक हैं।


