आप तो ऐसे न थे!
आप तो ऐसे न थे!
घर की बात घर से बाहर जाती है, तो हांडी बीच चौराहे फूटती है। आम आदमी पार्टी उर्फ आप के भीतर का झगड़ा पिछले करीब महीने भर में जहां तक पहुंच गया है, उसे घर से बाहर आना कहना, बात को बहुत हल्का करना होगा। बेशक, महीने भर से ज्यादा और कमोबेश सार्वजनिक रूप से तथा सबसे बढक़र मीडिया मंचों से चले युद्ध के अंत में प्रशांत भूषण-योगेंद्र यादव जोड़ी को आप के शीर्ष राजनीतिक निकाय, राजनीतिक मामलों की समिति से और उनके साथ ही उनके नजदीक माने जाने वाले प्रोफेसर आनंद कुमार तथा प्रवीण झा को भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकाला जा चुका है। हां! इसके बावजूद अभी यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि क्या बागी गुट अपनी अलग पार्टी बनाएगा। वास्तव में अपने विकल्पों की जांच-पड़ताल करने के लिए बागियों ने अप्रैल के मध्य में अपने समर्थकों की एक बैठक बुलायी है। अचरज नहीं होगा कि यह बैठक सीधे-सीधे या फिर आप पार्टी से बागी नेताओं के निष्कासन का बहाना देने के जरिए परोक्ष तरीके से, आप में औपचारिक टूट तक ले जाए।
बहरहाल, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि आप राष्ट्रीय परिषद की मार्च के आखिर में हुई बैठक के जरिए, स्पष्ट रूप से इसका एलान भी किया जा चुका है कि आप में जो अरविंद से बगावत करेगा, वो योगेंद्र-प्रशांत जोड़ी की राह लगेगा। जाहिर है कि इसका संदेश मतभेदों के चलते आप के संस्थापकों की इस जोड़ी के पार्टी से निकाले जाने भर से कहीं बड़ा है। चारों बागियों को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकालने के फैसले पर मोहर लगाने वाली, आप की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक की हैसियत से अरविंद केजरीवाल के संबोधन में, बुश द्वारा कुख्यात की गयी इस भाषा का प्रयोग सिर्फ संयोग ही नहीं था कि जो मेरे साथ नहीं है, दुश्मनों के साथ है! इस भाषा के मैदान में आने के बाद, संबंधित नेताओं की करनियां और अकरनियों का, मिसाल के तौर पर इस आशय के आरोपों के सत्य-असत्य होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है कि क्या योगेंद्र-प्रशांत जोड़ी ने वाकई, दिल्ली में आप पार्टी की चुनावी जीत के खिलाफ काम किया था? यहां से आम आदमी पार्टी ने, अरविंद केजरीवाल के एकछत्र नेतृत्व वाली पार्टी बनने के रास्ते पर लंबी छलांग लगा दी है। आप के आतंरिक लोकपाल के पद से एक स्वतंत्र राय रखने के लिए एडमिरल रामदास को जिस तरह हटाया गया है, एकछत्रता की इस मांग की भूख को ही दिखाता है।
बेशक, आप पार्टी के अनेक हमदर्दों ने इस समूचे घटनाक्रम को, एक राजनीतिक पार्टी के रूप में आप में ‘‘व्यावहारिकता’’ बनाम ‘‘कोरे आदर्शवाद’’ के बीच की लड़ाई के रूप में देखने-दिखाने की भी कोशिश की है। प्रशांत-योगेंद्र जोड़ी द्वारा विशेष रूप से दिल्ली में विधानसभाई चुनाव के संदर्भ में उम्मीदवारों के चयन से लेकर संदिग्ध चंदे तक के सवाल और उससे पहले आम चुनाव के नतीजों की पृष्ठïभूमि में, दिल्ली में जोड़-तोड़ कर के सरकार बनाने की कोशिशों पर सवाल उठाए जाने से, बेशक इस तरह के टकराव की पुष्टिï ही होती है। वास्तव में योगेद्र-प्रशांत की जोड़ी ने भी इस तरह की छवि बनाने की सचेत कोशिश की है, हालांकि जन-अनुमोदन के मैदान में, इस लड़ाई में व्यावहारिकता का ही पलड़ा भारी पड़ता नजर आता है। वास्तव में, इस तर्क के भी ग्राहक कम नहीं हैं कि दिल्ली की शानदार चुनावी जीत के बाद, केजरीवाल दिल्ली में एक बेहतर शासन देने पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं और ‘‘अव्यावहारिक मांगों’’ से उनका रास्ता रोकने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। बहुत से लोगों का मानना है कि शासन का यथार्थ, केजरीवाल के अनोखेपन की धार को कुछ घिस रहा है, तो यह न सिर्फ अवश्यंभावी था बल्कि उपयोगी भी है। कहा जा रहा है कि आप पार्टी और दिल्ली की जनता, दोनों का हित इसी में है।
लेकिन, वास्तव में यह ‘‘व्यावहारिकता’’ बनाम ‘‘आदर्शवाद’’ की लड़ाई का मामला है नहीं। या शायद यही कहना ज्यादा सही होगा कि अगर यह आदर्शवाद से मुक्ति का मामला है, तो यह व्यावहारिकता आप पार्टी को बहुत भारी पड़ सकती है। यह बात शेष देश के संबंध में तो सच है ही, जहां इक्का-दुक्का जगहों को छोडक़र, इस पार्टी का पहले ही खास प्रभाव नहीं था और अब बचा-खुचा भी निपट जाएगा। यह बात दिल्ली के बारे में भी सच है, जहां कुछ ही हफ्ते पहले जनता ने आप पार्टी को 55 फीसद से ज्यादा वोट देकर, अभूतपूर्व कामयाबी दिलाई थी। दिल्ली की जनता के इस जनादेश को, दूसरी तमाम पार्टियों से भिन्न पार्टी होने के आप पार्टी द्वारा दिलाए जा रहे भरोसे पर जनता के विश्वास के रूप में ही देखा जाना चाहिए। बेशक, इसी में इसका भरोसा भी शामिल था कि आप के राज में, जनता की जिंदगी भी बेहतर होगी। इस जनादेश को, सिर्फ केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली को एक बेहतर प्रशासन मिलने के भरोसे में घटा देना, जो कि केजरीवाल की आप पार्टी करती नजर आ रही है, खतरनाक साबित हो सकता है।
दिल्ली की जनता ने सुप्रीमो केजरीवाल की पार्टी को नहीं, एक बिल्कुल भिन्न किस्म की पार्टी को अपना भरोसा सोंपा था। केजरीवाल की पार्टी जितनी ज्यादा दूसरी पार्टियों जैसी होती जाएगी, उतना ही ज्यादा जनता का भरोसा खोती जाएगी। आखिरकार, वास्तविक व्यवहार में केजरीवाल का शासन भी दिल्ली की जनता के लिए, बहुत भिन्न साबित नहीं होने जा रहा है। लोकसभा और विधानसभाई चुनावों के बीच, चंद महीनों में दिल्ली की जनता के इतना भारी उलट-फेर करने में, केजरीवाल की आप पार्टी के लिए एक गंभीर चेतावनी भी छुपी हुई है। पांच साल राज करना, लोकप्रियता बने रहने की गारंटी नहीं है। एक जनतांत्रिक पार्टी बनने में आप की विफलता से, वाकई जनहित में काम करने के दिल्ली की आप सरकार के वादे भी, जनता की निगाहों में संदेह के घेरे में आ गए हैं।
0 राजेंद्र शर्मा


