शेष नारायण सिंह
अब मुल्कों में जंग नहीं होती। अब एक ही मुल्क के लोग आपस में कट मरते हैं। सीरिया और इराक में चल रही लड़ाइयां इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं। दोनों ही देशों में चल रहे सिविल वार में शामिल हर शख्स मुसलमान है। कोई राजा है तो कोई राजा बनने के लिए लड़ रहा है। जो हैरानी की बात है वह यह है कि पश्चिम एशिया में सत्ता पर कब्जा करने की जो जद्दोजहद चल रही है, उस हर लड़ाई में खून इंसान का बह रहा है, आम आदमी का बह रहा है, ऐसे लोगों का खून बह रहा है जिनको इस लड़ाई में या तो मौत मिलेगी या गरीबी। लड़ाई की अगुवाई करने वालों को राज मिलेगा, वे जिसकी कठपुतलियां हैं उनको आर्थिक लाभ होगा, अमेरिका और रूस इस इलाके में हो रही लड़ाई में अपने-अपने हित साध रहे हैं, उनकी कठपुतलियां पूरे अरब को रौंद रही हैं, और आम आदमी की जिंदगी तबाह कर रही हैं और अपने देश का मुस्तकबिल उन्हीं ताकतों के हवाले कर रही हैं जिन्होंने पूरी अरब दुनिया को आज से सौ साल पहले टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। विश्वयुद्ध के प्रमुख कारणों में से एक अरब इलाकों में मिले तेल पर कब्जा करना भी था।
जिस तरह की लड़ाई सीरिया और इराक में चल रही है, उसको साम्राज्यवादी भाषा में 'लो इंटेंसिटी वार’ कहते हैं। इस तरह की लड़ाई में जो लोग मर कट रहे होते हैं उनको किसी धर्म, सम्प्रदाय या जाति के नाम पर इकट्ठा किया जाता है और बाद में साम्राज्यवादी या शासकवर्ग की ताकतें उनको अपने हित के लिए इस्तेमाल कारती हैं। पश्चिम एशिया का पूरा युद्ध इसी श्रेणी में आता है। युद्ध के गुनाहों के लिए सबसे ज़्यादा जिम्मेवार अमेरिका और रूस हैं क्योंकि इन दोनों ने ही अफगानिस्तान में जो जहर बोया था, वह अब पूरे खित्ते में आतंक की शक्ल में फैल गया है और पूरा एशिया और मध्य एशिया उसकी चपेट में है।
भारत में भी स्वार्थी राजनेताओं ने 1940 के दशक में इसी तरह के धर्म आधारित खूनी संघर्ष की बुनियाद रख दी थी। जब अंग्रेजों की समझ में आ गया कि अब इस देश में उनकी हुकूमत के अंतिम दिन आ गए हैं तो उन्होंने मुल्क को तोड़ देने की अपनी प्लान बी पर काम शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अगस्त 1947 में जब आजादी मिली तो एक नहीं दो आजादियां मिलीं, भारत के दो टुकड़े हो चुके थे, साम्राज्यवादी ताकतों के मंसूबे पूरे हो चुके थे लेकिन सीमा के दोनों तरफ ऐसे लाखों परिवार थे जिनका सब कुछ लुट चुका था। भारत और पाकिस्तान आजाद हो गए थे। दोनों ही देशों में साम्राज्यवादी ताकतों के नक्शेकदम पर राज करने की सौगंध खा चुके लोग नए शासक वर्ग बन चुके थे, दोनों ही देशों में ऐसी अर्थव्यवस्था की बुनियाद डाल दी गई थी जिसमें आम आदमी की हिस्सेदारी केवल राजनीतिक पार्टियों को सरकार सौंप देने भर की थी। लेकिन जो हिंसक अभियान शुरू हुआ उसको अब बाकायदा संस्थागत रूप दिया जा चुका है। भारत की आजादी के पहले हिंसा का जो दौर शुरू हुआ उसने हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास का ऐसा बीज बो दिया था जो आज बड़ा पेड़ बन चुका है और अब उसके जहर से समाज के कई स्तरों पर नासूर विकसित हो रहा है।
भारत की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जिंदगी में अब दंगे स्थायी भाव बन चुके हैं। आजादी के बाद से भारत में बहुत सारे दंगे हुए। अधिकतर दंगों के आयोजकों का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए सम्प्रदायों का ध्रुवीकरण रहा है। देखा यह गया है कि भारत में अधिकतर दंगे चुनावों के कुछ पहले सत्ता को ध्यान में रख कर करवाए जाते हैं। विख्यात भारतविद् पॉल ब्रास ने अपनी महत्वपूर्ण किताब "द प्रोडक्शन ऑफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन कंटेम्परेरी इण्डिया" में दंगों का बहुत ही विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। उन्होंने साफ कहा है कि हर दंगे में जो मुकामी नेता सक्रिय होता है, दोनों ही समुदायों में उसकी इच्छा राजनीतिक शक्ति हासिल करने की होती है लेकिन उसको जो ताकत मिलती है वह स्थानीय स्तर पर ही होती है। उसके ऊपर भी राजनेता होते हैं जो साफ नज़र नहीं आते लेकिन वे बड़ा खेल कर रहे होते हैं। पॉल ब्रास ने लिखा है कि, 'आजादी के पैंतालीस साल बाद दुनिया के सामने एक अजीब तरह के भारत की तस्वीर पेश की गई। उस तस्वीर में हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध शहर अयोध्या में झुण्ड के झुण्ड हिन्दू नज़र आए जो करीब पांच सौ साल पुरानी एक मस्जिद को ढहाने के लिए इकट्ठा हुए थे। इसके बाद जो दंगा हुआ उसके कारण अयोध्या से एक हजार मील दूर, बम्बई के दंगों के बाद जल रहे शहर की तस्वीरों वाली खबरें दुनिया भर में दिखाई गईं। भारत के बाहर रहने वाले जिन लोगों ने बीबीसी टेलीविजन पर इन तस्वीरों को देखा उनको नहीं मालूम था कि बंबई की तरह के हालत और शहरों में भी हुए थे।'
अपनी किताब में पॉल ब्रास ने यह बात बार-बार साबित करने की कोशिश की है कि भारत में दंगे राजनीतिक कारणों से होते हैं, हालांकि उसका असर आर्थिक भी होता है लेकिन हर दंगे में मूलरूप से राजनेताओं का हाथ होता है।
पॉल ब्रास की अॅथारिटी को चुनौती देना मेरा मकसद नहीं है। आम तौर पर माना जाता है कि वे इस विषय के सबसे गंभीर आचार्य हैं। हिन्दू मुस्लिम संबंधों और झगड़ों पर ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने भी बहुत गंभीर काम किया है, उनके विमर्श में पॉल ब्रास की बहुत सारी स्थापनाओं को चुनौती दी गई है लेकिन उनके भी निष्कर्ष लगभग वही हैं।
अब तक आमतौर पर यही माना जाता रहा है कि दंगों के पीछे राजनीतिक मकसद ही होते हैं। लेकिन अब एक नया दृष्टिकोण भी बहस में आ गया है। न्यूयार्क विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कालर और ओस्लो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. अनिरबान मित्रा ने विश्वविख्यात अर्थशास्त्री और न्यूयार्क विश्ववद्यालय के अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर देबराज रे के साथ मिलकर एक शोधपत्र लिखा है। "इम्प्लीकेशंस ऑफ ऐन इकानामिक थियरी ऑफ कानफ्लिक्ट: हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन इण्डिया’’ शीर्षक वाला यह शोधपत्र दुनिया के सबसे सम्मानित राजनीतिक अर्थशास्त्र की शोध पत्रिका 'जर्नल आफ पोलिटिकल इकानामी’ के अगले अंक में छपेगा। उनका कहना है कि कई बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे शुद्ध रूप से आर्थिक और व्यापारिक कारणों से भी होते हैं। डॉ. मित्रा कहते हैं कि 'राजनीतिशास्त्री और समाजशास्त्री जातीय हिंसा के बारे में लिखते रहे हैं। लेकिन उनके लेखन में अक्सर आर्थिक कारणों को अहमियत नहीं दी जाती। हमारा विश्वास है कि इकानामिक थियरी और उसके तरीकों से संघर्ष को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।‘
इस पर्चे के अनुसार भारत के कई इलाकों में धर्म का इस्तेमाल आर्थिक सम्पन्नता के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए कोई आदमी अपने जिले में कोई सामान बेचता है। अक्सर उसके मुकाबले में और लोग भी वही सामान या वही सेवाएं बेचने लगते हैं। अगर वह कारोबारी मुसलमान है तो अपनी बिरादरी वालों को इकट्ठा करके दंगे की हालात पैदा कर देता है और अगर हिन्दू है तो वह मुसलमानों के खिलाफ लोगों को भड़काता है। यह व्यापारी किसी धर्म के मानने वालों से नफरत नहीं करते, बस कम्पीटीशन को खत्म करने के लिए सारा सरंजाम करते हैं और उनको उसका फायदा भी होता है।
इस रिसर्च में 1950 से 2000 के बीच के दंगों के भारत सरकार के आंकड़ों का प्रयोग किया गया है। इस दौर में उन सभी लोगों के केस जांचे गए हैं जिनको दंगों के दौरान चोट लगी या जो घायल हुए। घरेलू खर्च के सरकारी सर्वे के आंकड़े भी इस्तेमाल किए गए है। शोध के नतीजे निश्चित रूप से एक नई समझ की तरफ संकेत करते हैं। दंगे के अर्थशास्त्र को एक नया आयाम दे दिया गया है। बताया गया है कि दंगों में सबसे ज़्यादा परेशानी मुसलमानों को होती है। लिखते हैं, "एक साफ पैटर्न नजर आता है। जब मुसलमानों की सम्पन्नता बढ़ती है, उसके अगले साल और बाद के वर्षों में धार्मिक संघर्ष बढ़ जाता है।“ देखा यह गया है कि अगर मुसलमानों की खर्च करने की क्षमता में एक प्रतिशत की वृद्धि होती है तो उस इलाके में हिंसक दंगों में पांच प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। लेकिन हिन्दुओं के मामले में यह बिल्कुल उलटा है। अगर हिन्दू सम्पन्न होते हैं तो उनके खिलाफ कोई दंगा नहीं होता।
इस रिसर्च के पहले भी ऐसी बहुत सारी किताबें आई हैं जिनके अनुसार दंगों का कारण आर्थिक भी होता है लेकिन अभी तक ऐसी कोई किताब या कोई सिद्धांत नहीं आया है जिसमें यह देखा जा सके कि दंगों में एक निश्चित आर्थिक पैटर्न होता है। इस शोध में यही बात जोर देकर कही गई है।
जाहिर है कि दंगों के मुख्य कारणों में आर्थिक मुद्दों को शामिल करना और राजनीतिक कारणों को उसका बाई प्रॉडक्ट मानना एक नई बात है और इससे विवाद पैदा होगा लेकिन यह भी सच है जब भी कोई नया सिद्धांत आता है तो जिन लोगों की बुद्धिमत्ता को चुनौती मिल रही होती है उनको चिंता होती है। जर्नल ऑफ पोलिटिकल इकानामी में इस शोध पत्र के छपने के बाद बहस की शुरुआत होगी। बहरहाल इस बात गारंटी है कि अब दंगों की बहस में एक नया और जबरदस्त आयाम जुड़ चुका है।