हिन्दू तालिबान -47
भंवर मेघवंशी

“ जो अन्ना के साथ नहीं, वो चोर है, वो चोर है“ ऐसे ही नारे हवा में तैर रहे थे साल 2011 में। देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जबरदस्त उबाल आया हुआ था। हर व्यक्ति जंतर-मंतर पंहुच कर अन्ना अरविन्द के आन्दोलन में शरीक होने को लालायित था। मैंने अन्ना हजारे के अनशन के उस उन्मादी दौर से स्वयं को अलग करने का फैसला किया। इसकी दो तीन वजहें थी। अव्वल तो मुझे अन्ना से ही कई मतभेद थे। उन्हें गाँधी के रूप में स्थापित किया जा रहा था, जबकि अन्ना के रालेगन प्रयोग में कई खामियां रही हैं।वहां पर विगत ढाई दशक से पंचायती राज के चुनाव ही नहीं करवाए गए, अन्ना जिस पर हाथ रख दें वही सरपंच बनता है। दूसरा रालेगन में अजीब किस्म की तानाशाही सुधारों के नाम पर लादी गयी है। आप अपनी पसंद का कुछ भी खा पी नहीं सकते, खास तौर पर अगर आप मांसाहारी हैं, तो आपकी खैर नहीं। बीड़ी तम्बाकू की तो कोई बात ही नहीं, दारू पीने पर खम्भे के बांध कर पिटाई करने का गांधीवादी तरीका भी सिर्फ अन्ना हजारे ही जानते हैं। अगर आप रालेगन के निवासी हैं तो आप सिर्फ धार्मिक फ़िल्में या प्रोग्राम ही देख सकते हैं, संगीत के नाम पर सिर्फ भजन। वहां के दलितों को पुश्तैनी काम धंधे करने के लिए बाध्य किया जाता है,... तो ऐसा स्वर्ग ग्रामीण विकास के नाम पर अन्ना ने बनाया हुआ है। देश के गांधीवादियों को यह बहुत सुहाता होगा लेकिन हम अम्बेडकरी आन्दोलन के लोगों को तो यह कतई नहीं भाता है। वैसे भी अन्ना हजारे टाइप लोग आर आर एस के ही हरावल दस्ते हैं। संघी लोग अन्ना को अपना आदर्श मानते हैं, कई बार पांचजन्य का कवर पर अन्ना विराजमान रहे हैं। इसलिये मेरा तो आधारभूत मतभेद था ही, रही बात सच्चाई के अवतार अरविन्द केजरीवाल की तो उनसे व्यक्तिगत परिचय होने के बावजूद भी उनसे भी मेरे मतभेद रहे हैं, जिसे मैंने वक़्त-वक़्त पर प्रकट किया है।
अरविन्द जब इनकम टैक्स कमिश्नर के पद से लम्बी छुट्टी लेकर अरुणा रॉय की पाठशाला में पंहुचे तब उनसे मुलाकात हुयी थी। यह अजमेर जिले का जवाजा क़स्बा था, जहाँ पर हो रही स्वास्थ्य विषयक जन सुनवाई को देखने के बाद शाम को देव डूंगरी तक ले जाने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी। इसके बाद दिल्ली की बस्तियों में राशन पर हुयी जन सुनवाइयों का हम हिस्सा बनते रहे। जंतर मंतर पर यूथ फॉर इक्वलिटी से जुड़े गायक पलाश का गायन रहा हो अथवा घूस को घूसा का देश व्यापी अभियान, या कि सूचना के अधिकार पर दूसरा अधिवेशन का आयोजन, हर वक़्त साथ-साथ रहे, अधिवेशन के दौरान तो मैं मनीष सिशोदिया के घर ही मेहमान था। हम लोग उनकी मोटर बाइक पर सवार हो कर अधिवेशन स्थल आते थे। तब मैं अपना पन्ना के विशेषांक का अतिथि संपादक भी रहा। अच्छी दोस्ती रही, लेकिन कुछ कारण थे जिनके चलते हमारी दोस्ती कभी भी अंतरंगता में नहीं बदली।
जब “घूस को घूसा अभियान” चलाया गया तब विदेशी पेय कोक पेप्सी के खिलाफ़ भी आवाज़ उठाई गयी थी,एक दिन अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया मैग्सेसे पुरस्कार विजेता समाजसेवी संदीप पांडे के साथ जंतर-मंतर पर स्थित सार्वजानिक शौचालय की सफाई करने पंहुचे और उन्होंने कोका कोला और पेप्सी आदि से सफाई की। ठन्डे पेय का यह कहते हुए विरोध भी किया कि यह टायलेट क्लीनर ही है। हम भी साथ थे। थोड़ी देर बाद मैं और ब्रह्मचारी बेहरा जंतर मंतर पर स्थित खाने पीने की स्टॉल पर गए, वहां हमने एक अजूबा देखा, यकीन करना मुश्किल था, मगर हाथ कंगन की आरसी क्या ? प्रत्यक्षम किम प्रमाणं ? हमने देखा कि श्रीमान केजरीवाल और सिसोदिया साहब के हाथों में कोक पेप्सी की एक एक बोतल है, जिसे वो बड़े आराम से पी रहे हैं। ब्रह्मचारी जी से रहा नहीं गया। उन्होंने पूछ लिया कि अभी तो आप जनता को इनके खिलाफ भाषण दे रहे थे और अब खुद ही पी रहे हो। दोनों समाज सुधारकों ने पूरी निर्ल्ल्जता के साथ कहा, अगर कोल्डड्रिंक टायलेट क्लीन कर सकते है तो पेट भी साफ कर सकते हैं, इसलिए हम तो पेट कि सफाई कर रहे हैं। और फिर हंसते हुए घूंट भरने लगे... उस दिन जो इनका दोगलापन सामने आया, उसने इनके प्रति मेरी भावनाओं को बदल कर रख दिया। बाद में यह भी पता चला कि केजरीवाल जी जेएनयू के एक छात्रावास में आरक्षण विरोधी यूथ फॉर इक्विलिटी द्वारा आयोजित एंटी रिजर्वेशन प्रोग्राम में मुख्य वक्ता के नाते भाषण भी दे चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि इन श्रीमान के सांप्रदायिक ताकतों के सिरमोरों के साथ भी अच्छे खासे सम्बन्ध रहे हैं। ऐसे ही कारणों के चलते हमारे मतभेद बढ़ते जा रहे थे। ऊपर से जन लोकपाल के नाम पर एक संविधानेत्तर सत्ता निर्मित करने के अलोकतांत्रिक प्रयास भी मुझे रुचा नहीं और मैंने खुल कर विरोध करने का फैसला किया। हालाँकि यह मज़दूर किसान शक्ति संगठन का सामूहिक निर्णय नहीं था, लेकिन मैं मुखालफ़त का झंडा लहरा चुका था,एक तरफ पुरे देश में अन्ना अरविन्द और उनके काल्पनिक जन लोकपाल पर देशवासी बलि बलि जा रहे थे। मीडिया बिछा जा रहा था, वहीं दूसरी और मैंने विरोध के उपकरण थाम लिए और अब ईमानदारी के स्वयंभू प्रतीकों से लड़ाई शुरू हो चुकी थी .....(जारी)
(-भंवर मेघवंशी, लेखक की आपबीती ‘हिन्दू तालिबान ‘का सैंतालीसवां पाठ )