आहत भावनाओं का खेल : जब आपके पास ताकत हो तभी आप आहत हो सकते हैं
आहत भावनाओं का खेल : जब आपके पास ताकत हो तभी आप आहत हो सकते हैं
जब आपके पास ताकत हो तभी आप आहत हो सकते हैं और इसे प्रदर्शित भी कर सकते हैं
कई सदी पहले की एक कविता पर आधारित फिल्म पदमावती हफ्तों तक चुने हुए प्रतिनिधियों और मीडिया के लिए चर्चा का विषय बना रहे तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि विरोध की राजनीति किस दिशा में जा रही है. हालांकि, पिछले कुछ महीनों में भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा और इसमें सरकारों की चुप्पी को देश ने देखा है. लेकिन इस बार राजपूतों की नुमाइंदगी का दावा करने वाली करनी सेना को जिस तरह से पूरे देश में समर्थन मिला, वह आश्चर्यजनक है. भारतीय जनता पार्टी के शासन वाले पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों और भाजपा के और कई नेताओं ने उन प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया जो निर्देशक और अभिनेत्री का सर काटने पर ईनाम देने की घोषणा कर रहे थे और जो फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे थे.
इनका कहना था कि फिल्म से राजपूतों की भावनाएं आहत होती हैं. फिल्म उनके इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करती है. रानी पदमिनी और उनके सम्मान को ठेस पहुंचाती है. मुस्लिम शासक अलाउद्दीन खिलजी का महिमामंडन करती है. वे इस बात से भी नाराज हैं कि फिल्म बनाने में राजपूत समुदाय की राय नहीं ली गई. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी इस बात से है कि फिल्म में पदमिनी और खिलजी के बीच प्रेस प्रसंग और अंतरंग दृश्य हैं.
इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने का यह आरोप एक बड़ी योजना का हिस्सा है जिसमें मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के सामने इतिहास का एक अपना संस्करण सामने रखा जाना शामिल है. लेकिन इस कोशिश में एक महिला के चरित्र को आधार बनाया जा रहा है. जिसके बारे में यह स्पष्ट नहीं है कि यह चरित्र वास्तविक है या काल्पनिक. बताने की जरूरत नहीं कि एक भी प्रदर्शनकारी ने फिल्म नहीं देखी है. जब इस बारे में करनी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कल्वी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मैंने ट्रेलर देखा है और इसमें पदमावति के पति रतन सिंह को बकरे की तरह और अलाउद्दीन खिलजी को दैत्य की तरह दिखाया गया है.
बहुत कम लोगों ने यह सवाल निर्देशक से पूछा है कि उन्होंने क्यों खिलजी को दैत्य की तरह दिखाया है. उनसे यह नहीं पूछा गया कि खिलजी को इतने बुरे ढंग से क्यों दिखाया गया और उसकी सेना में जो झंडे दिखाए गए हैं वे इस्लामिक स्टेट और पाकिस्तान के झंडे से मिलते-जुलते क्यों हैं.
इस फिल्म को लेकर राजपूतों के विरोध से थोड़ा अलग हटकर देखें और यह सोचें कि अगर मुसलमानों ने इस आधार पर विरोध शुरू कर दिया होता तो क्या होता कि उन्हें गलत ढंग से प्रदर्शित किया गया है. क्योंकि अभी देश में जो माहौल है, उसमें वैसे भी उनका शांति से रहना मुश्किल कर दिया गया है. संजय लीला भंसाली ने ट्रेलर में मुसलमानों को लेकर घिसे-पिटे सोच को दिखाया है और अपनी फिल्म को सभ्यताओं को संघर्ष के तौर पर बेचने की कोशिश की है. फिर भी किसी मुस्लिम व्यक्ति ने विरोध नहीं किया. अगर उन्होंने विरोध किया होता तो फिर सरकार क्या रुख अपनाती, इसकी कल्पना हम सब कर सकते हैं. फिल्मों की तो बात छोड़िए देश के मुसलमान भीड़ द्वारा अपने खिलाफ की जा रही हिंसक घटनाओं का भी विरोध नहीं कर पा रहे हैं. न ही वे अपने खानपान, जीवनयापन और सम्मान पर हो रहे हमलों के खिलाफ खड़ा हो पा रहे हैं.
ये बातें इसलिए नहीं कही जा रहीं कि हर समुदाय को एक समान हो-हल्ला मचाने का हक है बल्कि इसलिए कही जा रही है कि यह समझना जरूरी है कि विरोध के लिए भी ताकत जरूरी है. इस देश में आहत होने के लिए यह जरूरी है कि आपको कानून का भय नहीं हो. हिंसक होने की सुविधा कुछ लोगों तक सीमित है.
आहत भावनाओं के इस खेल में जातिगत विशिष्टता भाव के साथ सांप्रदायिकता भी है और पुरुषवादी सोच भी. साथ ही निर्देशक और उनके खून के प्यासे लोगों के बीच इस बात की सहमति भी है कि हेटरोसेक्सुअल रोमांस को कैसे रोमांचक बनाया जाए. दोनों के लिए महिलाएं सम्मान और हवस की वस्तु है. करनी सेना के लिए खिलजी की क्रूरता आपत्तिजनक है लेकिन उसकी हिंसा कमजोरी से अधिक ताकत का प्रतीक है. करनी सेना एक मुस्लिम ‘दैत्य’ को अधिक पसंद करेगी न कि एक हिंदू ‘बकरे’ को. लेकिन इसे यह स्वीकार्य नहीं होगा कि एक हिंदू महिला किसी मुस्लिम आक्रमणकारी से अंतरंग संबंधों में दिलचस्पी ले. यही संभावना इन्हें मुखर होने के लिए उकसा रही है.
अंत में इस विवाद को सिर्फ कलाकारों की आजादी के दायरे में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि राजपूती शान और गौरव का महिमामंडन जिस तरह से भंसाली ने किया है, उसमें भी एक राजनीति देखी जानी चाहिए. जो लोग विरोध कर रहे हैं, उन्हें आज के राजस्थान में महिलाओं की स्थिति से कोई मतलब नहीं है.
इस फिल्म पर मचा विवाद भविष्य के भारत का कुरुप चेहरा दिखाता है. अभी हमारे यहां सत्ता में ऐसे लोग हैं जो बेवजह के प्रदर्शनों से लोगों का ध्यान बंटाए रखना चाहते हैं. वे समाज के आभासी तालिबानीकरण से बेपरवाह रहना चाहते हैं जहां लोग किसी का नाक, हाथ और गर्दन काटने पर ईनाम की घोषणा कर रहे हैं. इस बीच सृजनात्मक समुदाय इस असली एजेंडे से खुद को अलग रख रहा है. जो अंत में कलाकारों की सभी तरह की आजादी को खा जाएगा.
इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली
(Economic and Political Weekly, )
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