इमरान रिज़वी
सऊदी अरब के निवासी आज भी वहां काम करने वाले भारतीयों को (चाहे वो जिस भी धर्म के हों) "हिंदी" कह कर ही संबोधित करते हैं। ईरानी क्रांति के नेता इमाम खुमैनी के दादा जो कभी कश्मीर रहा करते थे, को आज भी ईरान में अयातुल्लाह हिंदी कह कर याद किया जाता है। जहाँ तक प्रश्न मोहन भागवत साहब की उस बात का है जिसमे उन्होंने कहा है कि भारत में रहने वाले सभी भारतीय क्षेत्र के लिहाज़ से "हिन्दू" हुए तो इस बात के दो पहलू हैं। पहला यह कि ये एक हकीक़त है कि हिन्द या हिंदुस्तान के रहने वाले लोगों को आमतौर पर हिंदी या हिंदुस्तानी (इंडियन) कहा जाता है। ऐसा उनकी क्षेत्रीय पहचान के आधार पर संबोधित किया जाता है। लिहाज़ा प्राथमिक तौर पर हिंदी कहा या समझा जाना कुछ नया अथवा गलत नहीं लगता। ना ही इसमें आम भारतीयों को कोई दिक्क़त होनी चाहिए, चाहे वो किसी भी धर्म के हों।

दिक्क़त तब शुरू होती है जब इस एक शब्द के नाम पर कुछ रूढ़ियाँ या धार्मिक संस्कृति जैसी चीजें दूसरों पर थोपी जाने लगें।

भारत एक विविधताओं से भरा देश है। इसमें अलग-अलग सभ्यताएं और संस्कृतियाँ वास करती हैं।

इन विभिन्नताओं को इस अनेकता में भी एकता के सूत्र में जो तत्व पिरोता है उसे हम भारत का संविधान कहते हैं। भारत के संविधान में कहीं भी हिन्दू हिंदुस्तान जैसे शब्द प्रयोग नहीं किए गए हैं। देश का संवैधानिक नाम "भारत" है और इसके निवासियों को "भारतीय" कहा गया है।

भारत के संविधान के पहले भाग में ही "संघ और उसके राज्यक्षेत्र शीर्षक" के तहत सर्वप्रथम इस बात का उल्लेख किया गया है कि

(1) भारत, अर्थात्‌ इंडिया, राज्यों का संघ होगा।
अतः संवैधानिक रूप से हम सभी भारत के निवासी हैं और इस नाते हम सभी नागरिक भारतीय कहलायेंगे, ना कि हिन्दू अथवा हिंदुस्तानी!
एक पल को मान भी लिया जाये,की भागवत साहब की बात सही है तो भी उसको देश भर में एक सामान्य स्वीकार्यता मिल पाना लगभग असंभव सी बात है, क्यूंकि भारत एक भिन्न संस्कृति और भाषाओँ वाला देश है जहाँ अलग- अलग रंग और ढंग की सभ्यताएं वास करती हैं। भिन्न धर्म और जातियों के रहते किसी एक धर्म या संस्कृति के आधार पर पूरे देश की पहचान तय नहीं की जा सकतीं। इसके पीछे भी एक साफ कारण है वो यह कि एक ओर तो संघ परिवार हिन्दू शब्द को केवल संस्कृति से ना जोड़ कर एक धर्म से जोड़ता है, जबकि भारत संवैधानिक तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है तथा इसके संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। भारत का संविधान एक पवित्र दस्तावेज़ है जिस पर जनसामान्य की आम सहमति मानी जाती है, एक देश जहाँ भिन्न जातियों सम्प्रदायों के लोग वास करते हों, वहां पंथनिरपेक्ष संविधान ही उन सबको एकता के सूत्र में पिरो कर रख सकता है और इस प्रकार देश की एकता और अखंडता को महफूज़ रखा जा सकता है। धार्मिक राष्ट्रीयता के उन्माद का नतीजा देश एक भार विभाजन की शक्ल में देख ही चुका है।

अतः धर्म आधारित राष्ट्रीयता के मुद्दे उठाने वाले सीधे तौर पर देश को तोड़ने और इसकी अखंडता को नुकसान पहुँचाने का ही काम करेंगे। इस तरह के लोगों से बेहद सावधान रहने की आवश्यकता है।

इमरान रिज़वी, लेखक विधि छात्र हैं।