प्रेम सिंह
गाजा पर पिछले एक महीने से जारी इजरायल के हवाई और जमीनी हमलों में मरने वालों की संख्या 1800 से ऊपर पहुंच चुकी है। मरने वालों में बड़ी संख्या बच्चों और औरतों की है। इस दौरान इजरायल के 64 सैनिक और तीन नागरिक मारे जा चुके हैं। गाजा शहर में हजारों मकान मलबे में तब्दील हो चुके हैं और कई लाख फिलीस्तीनी नागरिक अपने घर छोड़ कर राहत शिविरों में रह रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ समेत दुनिया की ज्यादातर सरकारों ने इजरायल द्वारा किए जा रहे हमलों की निंदा और उन्हें रोकने की अपील की है। दुनिया के कई शहरों में इन हमलों के खिलाफ नागरिकों के विरोध प्रदर्शन हुए हैं। हाल में खुद इजरायल के नागरिकों ने भी सड़कों पर आकर विरोध प्रदर्शन किया है। लेकिन एक महीना गुजर जाने के बाद भी युद्धविराम की संभावना नजर नहीं आती। लंबी अवधि छोड़िए, जिस तरह से कुछ घंटों का युद्धविराम भी नहीं चल पा रहा है, उससे लगता नहीं हाल में घोषित तीन दिन का युद्धविराम वाकई स्थायी होगा।
तीन इजरायली किशोरों के अपहरण और हत्या के बाद इजरायल ने जब गाजा पर हवाई हमले शुरू किए थे तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उसे हमले रोकने के लिए कहा था। लेकिन वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहु ने सुरक्षा परिषद की परवाह न करते हुए एलान किया कि आपरेशन जारी रहेगा और कहा नहीं जा सकता कितना लंबा समय लगेगा। विश्व व्यवस्था के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है कि वैश्विक मामलों की सर्वोच्च संस्था कमजोर और असहाय नजर आए। शायद अमेरिका को पता है कि इजरायल का गाजा पर यह हमला कितने लंबे समय तक जारी रहेगा। अगर रुकेगा तो उसके कितने दिन बाद फिर शुरू होगा। तभी उसने इजरायल को हथियारों और धन की मदद भेजी है। यह दर्शाता है कि फिलीस्तीनी नागरिकों की हत्याओं में अमेरिका की संलप्तिता है।
इजरायल अपने पुराने रवैये की तरह अंतरराष्ट्रीय कानूनों, जिनके तहत सभी लोगों को जीवन रक्षा का अधिकार है, और युद्ध कानूनों, जिनके तहत नागरिकों की हत्याएं निषिद्ध होती हैं, का खुला उल्लंघन कर रहा है। इन कानूनों के मद्देनजर और मानवता के लिहाज से निर्दोष लोगों की हत्याओं के समर्थन में दिए जाने वाले इजरायल के अपनी सुरक्षा के तर्क का कोई औचित्य नहीं हैं। हवाई हमले शुरू करने के पहले भी उसने फिलस्तीनी बच्चों को अगवा कर जेलों में डाल रख कर यंत्रणाएं दी हैं। प्रधानमंत्री समेत इजरायल के कई नेताओं के बयान रिकॉर्ड पर हैं जिनमें फिलीस्तीनियों का खात्मा करने का आह्वान बार-बार किया गया है।
भारत के फिलीस्तीन के साथ पुराने रिश्तों को ध्यान में रखते हुए देखें तो हमलों पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया, जो उसने शुरू में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के माध्यम से दी, नितांत अपर्याप्त है। सरकार को विदेश मंत्री की मार्फत हमलों की निर्णायक रूप से तुरंत निंदा करनी चाहिए थी और मामले को अंतराष्ट्रीय मंच पर उठा कर उन्हें तुरंत बंद करने का दबाव बनाना चाहिए था। लेकिन मौजूदा सरकार ने वैसा न करके संसद में बहस तक करवाने में आनाकानी की। एक समय था जब फिलीस्तीनी लोगों का हित भारत का प्रमुख सरोकार था और फिलीस्तीनी संघर्ष के प्रतीक पीएलओ के नेता यासर अराफात देश में जाना-माना नाम थे। बुद्धिजीवी और नागरिक समाज भी फिलीस्तीनी हित का समर्थन करते थे। यासर अराफात ने गांधी के अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए फिलीस्तीनी जनता की आजादी का संघर्ष जारी रखा था। नब्बे के दषक के शुरू में अमेरिका-ब्रिटेन द्वारा निर्देषित नवउदारवादी नीतियों को देश में थोपे जाने के बाद से चीजें तेजी से बदलती चली गईं। 1998-2004 की भाजपा नीत एनडीए सरकार ने देश की विदेश नीति को पूरी तरह उलट कर भारत की नियति को अमेरिका-इजरायल की धुरी से बांध दिया। नवउदारवादी भारत की सरकारें अमेरिका को खुश रखने के लिए इजरायल का समर्थन करती हैं और उसके द्वारा फिलीस्तीनियों पर किए जाने वाले अत्याचारों पर चुप्पी साध लेती हैं। ‘हमेशा शक्तिशाली के साथ रहो’ - नवउदारवादी भारत का यह मूलमंत्र बन गया है।
मध्यपूर्व, अफगानिस्तान और पाकिस्तान नवउदारवादी तथा तानाशाही/चरमपंथी ताकतों का युद्धक्षेत्र बना हुआ है। ये दोनों एक-दूसरे के कीटाणुओं पर पलते हैं। इस पूरे क्षेत्र में गृहयुद्ध जैसी स्थिति का भारत पर गंभीर असर आयद होता है। लेकिन भारत के शासक वर्ग की अमेरिका का पिछलग्गू बनने के अलावा अपनी कोई भूमिका नहीं रह गई है। भारत की सरकारों के इस अधीनस्थ रवैये ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देश के हितों को खतरे में डाल दिया है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसके चलते मौजूदा सरकार ने इजरायल के फिलीस्तीनी नागरिकों पर नृशंस हमले की कड़ी निंदा नहीं की है।
फिलीस्तीन की जनता, जो पिछली आधी सदी से ज्यादा समय से अपने जीवन और मातृभूमि पर जियनवादी हमले झेल रही है। इस बीच करीब बाईस हजार फिलीस्तीनी मारे जा चुके हैं। उसके साथ सोलीडेरिटी का इजहार किया ही जाना चाहिए। भारत और दुनिया के समस्त शांतिप्रिय लोगों को प्रमुख नेताओं/संस्थाओं पर दबाव बनाना चाहिए कि इस क्षेत्र में लंबे समय से चले आ रहे राष्ट्रीय, जातीय और सांप्रदायिक विवादों का बिना और समय गंवाए राजनीतिक समाधान निकालें। हमास अगर फिलीस्तीनी जनता का हिमायती बनता है तो उसे निर्दोष फिलीस्तीनी और इजरायली नागरिकों का जीवन बचाने के लिए बदले की हिंसक कार्रवाई छोड़ कर फिलीस्तीनी पक्ष में विश्व जनमत बनाने का काम करना चाहिए। भाईचारे की भावना केवल अपने धर्म के लोगों तक नहीं पूरी मानवता के लिए होनी चाहिए। एक ‘आतंकवादी संगठन’ के रूप में वह फिलीस्तीनी जनता का कभी भला नहीं कर पाएगा।
इजरायल को यह समझना होगा कि निर्दोष फिलीस्तीनियों की हत्या करके वह हमेशा के लिए न तो गाजा की घेरेबंदी बनाए रख सकता है, न अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है। कोई भी स्वस्थ राष्ट्र हमेशा हमलावर बना नहीं रह सकता। ताकत का तर्क हमेशा नहीं चल सकता। इजरायल को नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी ताकत के मद में वह अपने नागरिकों का जीवन खतरे में डाल रहा है। अमेरिका हमेशा उसकी पीठ पर नहीं खड़ा रहेगा। क्योंकि दुनिया हमेशा आज जैसी नहीं रहनी है।
डॉ. प्रेम सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के महासचिव हैं।वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।