प्रभाष जी के स्थान तक पहुंचने में वर्तमान दौर के हिंदी के किसी भी संपादक को अभी बहुत लंबा रास्ता पार करना है
बीच बहस में –
कल हस्तक्षेप पर प्रकाशित पलाश विश्वास के लेख “हिंदुत्व सुनामी के मुकाबले जनसत्ता को खड़ा कर पाना ओम थानवी का ही दम है”, पर कुछ प्रतिक्रियाएं फोन पर प्राप्त हुई हैं।

एक प्रतिक्रिया आई है कि पलाश जी के लेख में तथ्यात्मक गलती है – चूँकि शेखर गुप्त, प्रभाष जी के संपादक पद से हटने के बाद अपनी बड़ी भूमिका में आए, इसलिए वे उन्हें परेशान कैसे करते थे यह समझ से बाहर है। हिंदुत्व वाला आन्दोलन जब चरम पर था तो मुकाबले में प्रभाष जोशी थे, ओम थानवी नहीं। ओम थानवी ने तो गैर संघियों को चुन-चुन कर जनसत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। मंगलेश डबराल जैसे लोग बाहर हो गए और रायपुर जनसत्ता को लाँच करने वाले अंबरीश कुमार का अजीत जोगी से टकराव होने पर उन्हें वहां से हटवा दिया।

एक अन्य प्रतिक्रिया में एक तथ्य और सामने आया है कि जनसत्ता में बंदी का दौर श्रीयुत् ओम थानवी के समय का है, जो चार लाख के प्रसार को आज चार हजार तक पहुंचा चुके हैं।

एक अन्य जरूरी बात - “ओम थानवी को प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक“, कहना पलाश जी का निजी मत है, क्यों है यह वह स्पष्ट कर चुके हैं, लेकिन उनके इस मत से हमारी कोई सहमति नहीं है। हमारी नज़र में प्रभाष जी के विचारों से हमारी या किसी की भी सहमति-असहमति हो सकती है लेकिन प्रभाष जी का हिंदी पत्रकारिता में एक स्थान है और उस स्थान तक पहुंचने में वर्तमान दौर के हिंदी के किसी भी संपादक को अभी बहुत लंबा रास्ता पार करना है।

बाकी हस्तक्षेप आप सभी का मंच है, सभी के विचारों का स्वागत है, बिना सेंसर के आप सभी के विचार पाठकों के सामने हम रखते आए हैं, आगे भी रखेंगे।
अमलेन्दु उपाध्याय