इतनी सारी कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों हैं भारत में?
इतनी सारी कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों हैं भारत में?
इतनी सारी कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों हैं भारत में?
फिदेल कास्त्रो ने कामरेड ज्योति बसु से पूछा था
पलाश विश्वास
केरल और त्रिपुरा को छोड़कर भारत बंद का कहीं कोई असर नहीं हुआ है। केरल और त्रिपुरा में वामपंथी इस वक्त सत्ता में हैं, तो वहां बंद कामयाब रहा। बाकी देश में नोटबंदी के खिलाफ इस बंद का या आक्रोश दिवस का कोई असर नहीं हुआ है।
भारत बंद का आयोजन वामपक्ष की ओर से था, तो अब कहा जा रहा है कि किसी ने भारत बंद का आवाहन नहीं किया था।
बंगाल के कामरेडों ने फेसबुक और ट्विटर से निकलकर देश भर में आम हड़ताल की अपील जरूर की थी, जिसका मतलब भारत बंद है, ऐसा उन्होंने हालांकि नहीं कहा था। लेकिन इस आम हड़ताल में नोटबंदी के खिलाफ गोलबंद विपक्ष का नोटबंदी विरोध की मोर्चा तितर बितर हो गया।
अचानक इस मोर्चे की महानायिका बनने के फिराक में सबसे आगे निकली बंगाल की मुख्यमंत्री ने नोटबंदी के विरोध के बजाय बंगाल से वाम का नामोनिशान मिटाने की अपनी राजनीति के तहत बंद को नाकाम बनाने के लिए अपनी पूरी सत्ता लगा दी और साबित कर दिया कि बंगाल में वाम के साथ आवाम नहीं है।
बिहार में लालू और नीतीश के रास्ते अलग हो गये।
नीतीश ने लालू से कन्नी काटकर मोदी की नोटबंदी का समर्थन घोषित कर दिया और जल्द ही उनके फिर केसरिया हो जाने की संभावना है।
मायावती या मुलायम या अरविंद केजरीवाल किसी ने मोर्चाबंदी को कोई कोशिश नहीं की।
साफ जाहिर है कि इस नोटबंदी का मतलब सुनियोजित नरसंहार है, जिसके तहत करोड़ों लोग उत्पादन प्रणाली, रोजगार, अर्थव्यवस्था और बाजार से बाहर कर दिये जायेंगे और आहिस्ते-आहिस्ते भारतीय किसानों और मजदूरों की तरह वे आहिस्ते-आहिस्ते बेमौत मारे जायेंगे।
असंगठित क्षेत्र के और खुदरा बाजार के तमाम लोगों को मारने के लिए उनसे क्रयशक्ति छीन ली गयी है।
अब अर्थशास्त्री और उद्योग कारोबार के लोग भी कल्कि महाराज के इस दांव के खतरनाक नतीजों से डरने लगे हैं।
विकास दर पलटवार करने जा रही है और मंदी का अलग खतरा है तो भारतीय मुद्रा और भारतीय बैंकिंग की कोई साख नहीं बची है।
कालाधन निकालने के बजाये रिजर्व बैंक के गवर्नर ने अचानक मुखर होकर डिजिटल बनने की सलाह दी है नागरिकों को तो कल्कि महाराज का मकसद डिजिटल इंडिया कैशलैस इंडिया है, संघ और सरकार के लोग खुलकर ऐसा कहने लगे हैं।
तो मंकी बातों में नोटबंदी का न्यूनतम लक्ष्य लेसकैश और अंतिम लक्ष्य कैशलैस इंडिया बताया गया है जो दरअसल मेकिंग इन हिंदू इंडिया है।
#SystematicEthnicCleansingbytheGovernanceofFascistAparhteid
भारत में इतनी कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों हैं?
फिदेल कास्त्रो ने कामरेड ज्योति बसु से पूछा था। ज्योतिबसु ने फिदेल कास्त्रो को क्या जबाव दिया था, इसका ब्यौरा नहीं मिला है।
अब चाहे तो हर कोई कामरेड कास्त्रो फिर हवाना सिगार के साथ इस देश की सरजमीं पर प्रगट हों तो जवाब दे सकता है।
कामरेडवृंद यथास्थिति की संसदीय राजनीति में अपना अपना हिस्सा कादे से समझ बूझ लेना चाहते हैं और वे सबसे ज्यादा चाहते हैं कि भारत में सर्वहारा बहुजन का राज कभी न हो और रंगभेदी अन्याय और अराजकता का स्थाई मनुस्मृति बंदोबस्त बहाल रहे, इसलिए वे सर्वहारी बहुजन जनता की कोई पार्टी नहीं बनाना चाहते, बल्कि अपना नस्ली वर्चस्व कायम रखने के लिए वामपंथ का रंग बिरंगा तमाशा पेश करके आम जनता को वामविरोधी बनाये रखने के लिए नूरा कुश्ती के लिए इतनी सारी कम्युनिस्ट पार्टियां बना दी हैं कि आम जनता कभी अंदाजा ही नहीं लगा सके कि कौन असल कम्युनिस्ट है और कौन फर्जी कम्युनिस्ट है।
फिदेल ने अमेरिकी की नाक पर बैठकर एक दो नहीं, कुल ग्यारह अमेरिकी राष्ट्रपतियों के हमलों को नाकाम करके मुक्तबाजार के मुकाबले न सिर्फ क्यूबा को साम्यावादी बनाये रखा, बल्कि पूरे लातिन अमेरिका और अफ्रीका की मोर्चाबंदी में कामयाब रहे।
सोवियत यूनियन, इंधिरा गांधी और लाल चीन के अवसान के बाद भी फिदेल और चेग्वेरा ने मुट्ठीभर साथियों के दम पर क्यूबा में क्रांति कर दी जबकि क्यूबा में गन्ना के सिवाय कुछ नहीं होता और वहां कोई संगठित क्षेत्र ही नहीं है।
जनता को राजनीति का पाठ पढ़ाये बिना फिदेल ने क्रांति कर दी और करीब साठ साल तक लगातार अमेरिकी हमलों के बावजूद न क्यूबा और न लातिन अमेरिका को अमेरिकी उपनिवेश बनने दिया।
हमारे कामरेड करोड़ों किसानों और करोड़ों मजदूरों, कर्मचारियों और छात्रों, लाखों प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के बावजूद भारत में मेहनतकशों के हकहकूक की आवाज भी बुलंद नहीं कर सके, क्योंकि वे सत्ता में साझेदार थे या सत्ता के लिए राजनीति कर रहे थे और उनका लक्ष्य न सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व था और न संविधान निर्माताओं के लक्ष्य समता और न्याय से उन्हें कुछ लेना देना था।
हम अब न सामाजिक प्राणी हैं और न हमारी कोई राजनीति है। समाज के बिना राजनीति असंभव है।
हमारा कोई देश भी नहीं है। देशभक्ति मुंहजुबानी है। वतन के नाम कुर्बान हो जानेवाला शहीदे आजम भगतसिंह, खुदीराम बोस, मास्टर सूर्यसेन या अपने लोगों के हकहकूक के लिए शहीद हो जाने वाले बिरसा मुंडा, सिधो कान्हो जैसा कोई कहीं नहीं है।
हमारे देश में किसी लेनिन या माओ से तुंग या फिदेल कास्त्रो के जनमने के आसार हैं, क्योंकि बच्चे अब हगीज के साथ सीमेंट के दड़बों में जनमते हैं और जमीन पर कहीं गलती से उनके पांव न पड़े, माटी से कोई उनका नाता न हो, तमाम माता पिता की ख्वाहिश यही होती है।
हालांकि हमने किसी बच्चे को सोना या चांदी का चम्मच के साथ पैदा होते नहीं देखा।
हगीज के साथ पैदा हो रहे बच्चों का चक्रव्यूह रोज हम बनते देख रहे हैं। जिनमें मुक्ति कीआकांक्षा कभी हो ही नहीं सकती क्योंकि उन्हें उनकी सुरक्षा की शर्तें घुट्टी में पिलायी जा रही हैं।
अब इस देश में कामयाब वही है जो विदेश जा बसता है। हमारी फिल्मों, टीवी सीरियल में भी स्वदेश कहीं नहीं है। जो कुछ है विदेश है और वहीं सशरीर स्वर्गवास का मोक्ष है।
हमारे सारे मेधावी लोग अप्रवासी हैं और हमारे तमाम कर्णधार, जनप्रतिनिधि, अफसरान, राष्ट्रीय रंगबिरेंगे नेता, राजनेता, अपराधी भी मुफ्त में अप्रवासी हैं।
इसकी वजह यह है कि हमारा राष्ट्रवाद चाहे जितना अंध हो, हमारा कोई राष्ट्र नहीं है।
हमारा जो कुछ है, वह मुक्तबाजार है।
हम नागरिक भी नहीं है।
हम खालिस उपभोक्ता है।
उपभोक्ता की कोई नागरिकता नहीं होती।
न उपभोक्ता का कोई राष्ट्र होता है।
उपभोक्ता का कोई परिवार भी नहीं होता।
न समाज होता है।
न मातृभाषा होती है और न संस्कृति होती है।
उसका कोई माध्यम नहीं होता।
न उसकी कोई विधा होती है।
उसका न कोई सृजन होता है। न उसका कोई उत्पादन होता है।
इसलिए मनुष्य अब सामाजिक प्राणी तो है ही नही, मनुष्य मनुष्य कितना बचा है, हमें वह भी नहीं मालूम है।
इसलिए हमने जो उपभोक्ता समाज बनाया है, उसके सारे मूल्यबोध और आदर्श क्रयशक्ति आधारित है।
जिनके पास क्रयशक्ति है, वे बल्ले हैं।
जिनकी कोई क्रयशक्ति नहीं है, उनकी भी बलिहारी।
वे भी उत्पादन और श्रम के पक्ष में नहीं है और न उनके बीच कोई उत्पादन संबंध है।
वे टकटकी बांधे छप्परफाड़ क्रयशक्ति के इंतजार में हैं और उपभोक्ता वस्तु में तब्दील हर चीज, हर सेवा यहां तक कि हर मनुष्य को खरीदकर राज करने के ख्वाब में अंधियारा के कारोबार में शामिल हैं और उन्हें यकीन है कि आजादी का कोई मतलब नहीं है।
गुलामी बड़ी काम की चीज है अगर भोग के सारे सामान खरीद लेने के लिए क्रयशक्ति हासिल हो जाये।
वे मुक्तबाजार को समावेशी बनाने के फिराक में हैं।
वे मुक्तबाजार में अपना हिस्सा चाहते हैं चाहे इसकी कोई भी कीमत अदा करनी पड़े। यही उनकी राजनीति है।
मसलन तमिलनाडु, केरल और हिमाचल प्रदेश में इसी राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी नागरिक हर पांच साल में सत्ता बदल डालते हैं तो उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है कि शासक का चरित्र क्या है।
तमिलनाडु में जो चाहिए राशनकार्ड पर उपलब्ध है तो हिमाचल में गरीबी कहीं नहीं है। किसी को कोई मतलब नहीं है कि उनका शासक कितना भ्रष्ट या गलत है। केरल के कामरेड भी हर पांच साल में दक्षिणपंथी हो जाते हैं।
कल्कि महाराज का आम जनता विरोध नहीं कर रही है, क्योंकि आम जनता को अपने अनुभव से मालूम है कि विपक्ष की राजनीति का उनके हितों से, उनके हक हकूक और उनकी तकलीफों से कोई लेना देना नहीं है। वे सत्ता की लड़ाई लड़ रहे हैं।
उपभोक्ता जनता को कोई सत्ता नहीं चाहिए।
उपभोक्ता जनता की कोई राजनीति नहीं है।
उपभोक्ता जनता छप्पर फाड़ क्रयशक्ति के इंतजार में है और इस देश में ऐसी कोई राजनीति नहीं है जो उन्हें कायदे से समझा सकें कि छप्फर फाड़कर क्रयशक्ति नहीं, मौत बरसने वाली है।
कमसकम भारत के कामरेडों की राजनीति ऐसी नहीं है।
बाकी संघ परिवार और कांग्रेस में कोई फर्क नहीं है।
हमने अमेरिका से सावधाऩ अधूरा और अप्रकाशित छोड़कर कुछ कविताएं और कहानियां जरुर लिखी हैं, लेकिन उन्हें प्रकाशन के लिए नहीं भेजा है। न हमारी किताबें उसके बाद छपी हैं। हम अपने समय को संबोधित करते रहे हैं और करते रहेंगे।
पिछले दिनों बसंतीपुर से भाई पद्दो ने कोलकाता आकर कहा कि उसकी योजना है कि हमारी किताबें छपवाने की उसकी योजना है। हमने उससे कह दिया कि किताबें छापना हमारा मकसद नहीं है और न छपना हमारा मकसद है। ऐसा मकसद होता तो दूसरों की तरह आर्डर सप्लाई करते हुए अपनी कड़की का इलाज कर लेता। दिनेशपुर में पिता के नाम अस्पताल बना है, मैंने देखा नहीं है।
पद्दो ने कहा कि पिताजी की नई मूर्ति लगी है। वहां पार्क बना है और लाखों का खर्च हुआ है।
मेरे पिता तो अपने लिए दो दस रुपये तक खर्च नहीं करते थे। इसलिए मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है कि मेरे पिताजी के नाम कौन इतना सारा खर्च उठा रहा है और क्यों ऐसा हो रहा है।
हमने दरअसल किसी कद्दू में तीर नहीं मारा है।
बंगाल में न बिजन भट्टाचार्य की जन्म शताब्दी मनायी न समर सेन की। बिजन भट्टचार्ये के नबान्न से भारत में इप्टा आंदोलन शरु हुआ। समरसेन को खुद रवींद्रनाथ भविष्य का कवि मानते थे। रवींद्रनाथ के जीते जी वे प्रतिष्ठित कवि हो गये थे।
फिर उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। कविता कहानी से ज्यादा जरुरी उन्हें अपने वक्त को संबोधित करना लगा और बाहैसियत पत्रकार जिंदा रहे और मरे। हाल में उनका बाबू वृत्तांत प्रकाशित हुआ जो उनका रचना समग्र है। जिसमें उनकी कविताएं भी शामिल हैं।
हमने इस संकलन से समयांतर के लिए फ्रंटियर निकलने की कथा और आपातकाल में बुद्धिजीवियों की भूमिका का बाग्ला से हिंदी में अनुवाद किया है।
समर सेन ने सिलसिलेवार दिखाया है कि वाम बुद्धिजीवी इंदिरा जमाने में आपातकाल में भी कैसे विदेश यात्राएं कर रहे थे और कैसे वे हर कीमत पर इंदिर गांधी के आपातकाल का समर्थन कर रहे थे।
यह ब्यौरा पढ़ने के बाद बंगाली भद्र समाज और बुद्धिजीवियों का वाम अवसान बाद हुए कायाकल्प से कोई हैरानी नहीं होती।
जब तक बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सत्ता बनी रही वामदलों की वाम बुद्धिजीवियों की दसों उंगलियां घी की कड़ाही में थीं और सर भी। वे तमाम विश्वविद्यालयों, अकादमियों और संस्थानों में बने हुए थे। आजादी के बाद संघियों की सत्ता कायम होने से ठीक पहले तक विदेश यात्रा हो या सरकारी खर्च पर स्वदेश भ्रमण, वामपंथी इसमे केद्र के सत्ता दल से जुड़े बुद्धिजीवियों के मुकाबले सैकड़ों मील आगे थे। लेकिन उनकी इस अति सक्रियता से इस देश में सरवहारा बहुजनों को क्या मिला और उनके हकहकूक की लड़ाई में ये वाम बुद्धिजीवी कितने सक्रिय थे, यह शोध का विषय है।
सारा शोर इन्हीं बुद्धिजीवियों का है, बाकी जनता खामोश है।
अपना सत्यानाश होने के बावजूद जनता सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने को तैयार नहीं है क्योंकि कोई वैकल्पिक राजनीति की दिशा नहीं है।
अब पिद्दी न पिद्दी का शोरबा तमाम कामरेड अखबारों के पन्ने भरते नजर आ रहे हैं क्यूबा की क्रांति, फिदेल कास्त्रो, अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चा बंदी और क्यूबा यात्रा के संस्मरमों के साथ। इन तमाम लोगों से पूछना चाहिए कि कुल उन्नीस लोगों को लेकर क्यूबा, लातिन अमेरिका और अफ्रीका की तस्वीर फिदेल कास्त्रो ने बदल दी तो तमाम रंग बिरंगी कम्युनिस्ट पार्टियों, करोडो़ं की सदस्य संख्या वाले किसान सभाओं, मजदूर संगठनों, छात्र युवा संगठनों, महिला संगठनों आदि-आदि के साथ वे अब तक किस किस कद्दू में तीर मारते रहे हैं।
उन्हीं का वह तीर अब कल्कि महाराज हैं।
वह कद्दू अब खंड विखंड भारतवर्ष नामक मृत्यु उपत्यका है।


