सामूहिक फैसले न लेने का क्लासिक उदाहरण है नोटबंदी का फैसला...

वर्चुअल रियलिटी, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और आधुनिकता

जगदीश्वर चतुर्वेदी

मोदी सरकार आने के पहले कहने के लिए सामूहिकता का खूब ढोल पीटा गया, कहा गया सोनिया गांधी हरेक फैसले लेती रही हैं, मनमोहन सिंह पर थोपती रही हैं, वे तो उनके आदेशों का पालन करते रहे हैं, मोदीजी पीएम बनेंगे तो यह सब नहीं होगा, फैसले सामूहिक तौर पर मंत्रीमंडल लेगा, लेकिन व्यवहार में हुआ एकदम उलटा। प्रधानमंत्री कार्यालय में सभी मंत्रालयों की शक्ति संकेन्द्रित होकर रह गयी, यहां तक कि भाजपा के द्वारा राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के बाद राष्ट्रपति भवन के फैसले लेने का अधिकार भी पीएम ने अपने पास रख लिया। सामूहिक फैसले न लेने का क्लासिक उदाहरण है नोटबंदी का फैसला। यह फैसला अकेले पीएम का था, उनके कॉकस के लोगों के अलावा इसके बारे में कोई पहले से नहीं जानता था। जबकि यह फैसला लेना था रिजर्व बैंक को, लेकिन पीएम ने बैंक पर अपना फैसला थोप दिया।


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कहने का आशय यह कि मोदी के सत्ता में आने के बाद मंत्रिमंडल की सामूहिक फैसले लेने, स्वायत्त और लोकतांत्रिक विवेक के आधार पर काम करने की शक्तियां घटी हैं। अब मंत्रिमंडल में अ-लोकतंत्र सर्कुलेशन में है, पीएम निष्ठा चरम पर है, इसने लोकतंत्र को अपाहिज बना दिया है। सत्ता के सर्कुलेशन को रोक दिया है, अब सत्तातंत्र में सिर्फ वही चीज गतिशील है जिसकी पीएम ने अनुमति दी है। पीएम की अनुमति के बिना कोई चीज गतिशील नहीं हो सकती। उसने लोकतंत्र की स्पीड को रोक दिया है।

´अंगों के बिना शरीर´की धारणा से संचालित होने के कारण सिर्फ एक ही चीज पर बल है वह है प्रचार की सघनता और उन्माद। हम अब सब समय प्रचार की सघन अनुभूतियों में ही डूबते-उतराते रहते हैं। हम भूल गए कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की आजादी आदि का भी जीवन में कोई महत्व है। हम सबके जेहन में संघ, मोदी, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्रवाद के प्रचार को सघनता के साथ उतार दिया गया है। हरेक व्यक्ति बिना जाने माने बैठा है कि मोदीजी सही कर रहे हैं। सवाल करो कि क्या सही कर रहे हैं तो उसके पास न तो कोई तथ्य होते हैं,न प्रमाण होता है, लेकिन वह माने बैठा है कि मोदीजी सही कर रहे हैं। यहां तक कि जघन्य हत्याकांडों की खबरों तक से व्यक्ति अब विचलित नहीं होता, उसे मोदी की चुप्पी से कोई परेशानी नहीं है बल्कि वह मोदी की चुप्पी पर भी मोदी के पक्ष में तर्कों का पुलिंदा लेकर खड़ा है। हालात की गंभीरता देखें कि आधारकार्ड को संवैधानिक प्रावधानों, सुप्रीम कोर्ट के पहले के आदेशों की अवहेलना करके हर चीज से जोड़ दिया गया उसको भी चुपचाप स्वीकार कर लिया गया। अ-लोकतांत्रिक प्रक्रिया का इतना सघन प्रभाव पहले कभी महसूस नहीं किया गया।

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