औरंगज़ेब का नाम मिटाने की मुहिम और इतिहास का दूसरा पक्ष पेश करने वाली मिसालें
हरबंस मुखिया
कुछ लोग भारत के मध्यकालीन इतिहास को हिन्दुओं को मुसलमान बनाए जाने और मन्दिरों के विनाश के लिए याद कर रहे हैं। ऐसे समय में भी उन विपरीत मिसालों को नजरअन्दाज किया जाता है जो मध्यकालीन भारत में मस्जिदें गिराने और मन्दिर बनाने, मध्यकालीन ‘घर वापसी‘ या सीधे धर्मान्तरण के जरिए मुसलमानों को हिन्दू बनाए जाने के प्रमाण पेश करती हैं। वाकई, ये ऐसी घटनाएँ हैं जिन पर संघ परिवार भी खुश हो सकता है।
1540 में हुमाऊँ को हराने के बाद अफगान शासक शेरशाह ऐसे हिन्दू जमींदारों को दण्डित करने के लिए कटिबद्ध था, जिन्होंने, उसके अनुसार, ‘‘मुसलमानों की मस्जिदों और पूजा स्थलों को नष्ट करके उन्हें बुत पूजा के स्थल में बदल दिया था।‘‘ इसके पहले भी, गुजरात के तटीय शहर खम्भात में पारसियों ने ‘मुसलमानों पर हमला करने के लिए हिन्दुओं को भड़काया था, जिनमें (मस्जिद की) एक मीनार तोड़ दी गई थी, एक मस्जिद जला दी गई थी और 80 मुसलमान मारे गए थे। हालाँकि, वहाँ के काबिले तारीफ हिन्दू शासक ने मामले की छानबीन करने, आरोपों को सही पाने के बाद मस्जिद को उसके पुराने स्वरूप में बहाल कर दिया था।
अकबर के शासनकाल में धार्मिक विद्वान शेख अहमद सरहिन्दी शिकायत करते हैं कि, ‘‘हिन्दू मस्जिदें तोड़ रहे हैं और उनकी जगह अपने पूजा स्थल बना रहे हैं।‘‘
एक दस्तावेजी प्रमाण के अनुसार शाहजहाँ ने पंजाब में सात मस्जिदों को ‘‘उनके ऐसे गैरकानूनों मालिकों‘‘ से छीना था, जो ‘‘हिंसा के बल पर कब्जा जमाकर उन्हें इस्तेमाल कर रहे थे‘‘।
औरंगज़ेब भी कहता है कि 7,000 से बड़ी उच्चतम मनसबदारी वाले उसके दो राजपूत राजाओं में एक -जोधपुर के जसवंत सिंह - ने 1658-59 में मस्जिदें तोड़ी थीं और उनकी जगह मन्दिर बनाए थे।‘‘ यह जानने के बाद भी औरंगज़ेब और राजा जसवंत सिंह बीस बरस, यानी 1679 में राजा जसवंत के मरने तक एकजुट होकर काम करते रहे।
इसके अलावा, इस्लाम से हिन्दू धर्म में होने वाले धर्मान्तरण की ऐसी मिसालें मध्यकालीन भारत में मिलती हैं, जिनकी कल्पना किसी इस्लामिक धर्मतन्त्र में करना नामुमकिन है।
जहाँगीर के शासन में मध्य एशिया का सैलानी महमूद-बिन अमीर अली बल्खी बनारस आया था, जहाँ उसे 23 मुसलमानों वाले एक ऐसे गुट ने हैरत में डाल दिया, जो हिन्दू औरतों की मोहब्बत में इस्लाम छोड़कर हिन्दू बन गए थे। उसने लिखा है, ‘‘कुछ समय तक मैं उन लोगों के साथ रहा और इस गलत रास्ते के खिलाफ उनसे जिरह करता रहा। लेकिन, उन्होंने आसमान की तरफ देखकर माथे पर हाथ रख लिया। मैं इशारा समझ गया, वे इस घटना को नियति का लेखा मान रहे थे।‘‘
कश्मीर में मुगलों के ठीक पहले के शासक जै़नल आबिदीन ने मुसलमानों को, चाहने पर, हिन्दू धर्म में वापसी करने की औपचारिक इजाजत दे रखी थी। बाद में, अकबर ने भी यही किया, और अपने फरमान के जरिए कहा कि इच्छा के खिलाफ धर्मान्तरित कोई हिन्दू उम्र के किसी मुकाम में ‘‘अपने पुरखों के धर्म में वापसी कर सकता है‘‘। 15-16वीं सदी में प्रसिद्ध संत चैतन्य महाप्रभु ने उड़ीसा के मुस्लिम राज्यपाल के अलावा पठानों के एक समूह को भी हिन्दू बनाया था, हालाँकि वे कभी भी हिन्दू नहीं थे, और हिन्दू धर्म धर्मान्तरण कराने में विश्वास नहीं करता। इन लोगों को उन्होंने ‘‘पठान वैष्णव‘‘ कहा था।
एक जरथुस्त्र, मोबेड, द्वारा लिखित सत्रहवीं सदी के फारसी ग्रन्थ दाबिस्तान-ए-मज़ाहिब में शासन के उच्च स्तरों पर दोबारा धर्मान्तरण या धर्मवापसी के पर्याप्त प्रचलन के परोक्ष उल्लेख मिलते हैं। इसमें शाहजहाँ के दो शीर्षस्थ दरबारियों, मिर्जा सलीह और मिर्जा हैदर का जिक्र करते हुए बताया गया है कि वे पहले हिन्दू धर्म छोड़कर मुसलमान बने और बाद में धर्मान्तरित होकर अपने मूल धर्म में लौट गए थे। इस कार्यवाही के लिए उनमें किसी को भी सजा नहीं दी गई थी।
आम जनता के स्तर पर भी ऐसे चलन का जिक्र है। शाहजहाँ को पता चला कि कश्मीर के भीम्भर क्षेत्र में मुसलमान लड़के आम तौर पर हिन्दू लड़कियों से शादी कर रहे हैं, और शादी के बाद हिन्दू बन रहे हैं। उसने इस चलन को रोकना चाहा, लेकिन उसके फरमान नाकाम हो गए। सिख गुरु हरगोबिन्द ने भी काफी संख्या में मुसलमानों की हिन्दू धर्म में वापसी कराई थी। दाबिस्तान में इस घटना के अतिरंजित वर्णन में कहा गया है कि, ‘‘पंजाब के कीरतपुर और तिब्बत व खोतान की सीमाओं के बीच एक भी मुसलमान नहीं रह गया है‘‘।
इतिहास के रास्ते कभी सीधे-सादे नहीं होते।
(अनुवादक- विपिन बिहारी शुक्ल)
हरबंस मुखिया। लेखक मध्यकालीन भारत के प्रख्यात इतिहासकार हैं।
पंकज श्रीवास्तव की पेसबुक टाइमलाइन से साभार