एनडीए सरकार ने बदलवाए थे ज़ख्म के सीन-महेश भट्ट मैंने कहा कि जब बाबरी मस्जिद को तोडा गया था तो ये उसके ऊपर गुंबद पर खड़े थे…मेरी फिल्म से तो आप ये निकाल देंगे लेकिन इतिहास से ये कैसे निकालेंगे आप? (तीस्ता सीतलवाड़ के साथ फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट की बहुत खास बातचीत)
तीस्ता सीतलवाड- महेश जी, आपका स्वागत हैं, हिंदुस्तानी सिनेमा में जो सबसे बड़ी जो कहानी है वो क्या है?
महेश भट्ट- देखिये, हमारी यह मिली जुली तहज़ीब, हमारी यह विविधता ही हमारी कहानी है। हमारे यहाँ इतनी तरह के रंग हैं और इतने कल्चर्स हैं, जो मिल-मिला के एक रंग में कन्वर्ट हो जाते हैं और उसमें से अगर आप कोई भी एक रंग निकाल दें हमारा जो रंग है, फीका हो जाता है। यही सोच है, जिस पर हिंदुस्तानी सिनेमा ने अपना सफ़र शुरू किया था और ये हमको हमारे पुरखों से मिली देन हैं। हमारे राष्ट्रपिता ने बार-बार हमारी एक सेक्युलर क्रीड की बात दोहराई थी, जिसको नेहरू जी ने रोज़मर्रा ज़िन्दगी में जिया था। वो गंगोत्री है।
तीस्ता सीतलवाड- लेकिन आजकल तो धर्मनिरपेक्षता को बड़ी गालियां पड़ती हैं?
महेश भट्ट- हाँ वो होता है कि एक अंधेरी रात आती है और लगता है कि बस अब बस सुबह होगी ही नही… मगर यक़ीनन सुबह होगी और ये जो दौर है यह हिंदुस्तानी स्वभाव के विपरीत है। मैं पिछले साल जब दुर्गा पूजा के दौरान कलकत्ता गया था तो वहाँ पर मुझे बोम देवी नाम की एक देवी के बारे में पता चला, जिसकी मुसलमानों ने कल्पना करके, उसका एक फॉर्म क्रिएट किया है। ये देवी दुर्गा का ही एक रूप हैं। मतलब कि दुर्गा की पूजा में मुसलमान भी शामिल होता है, उसको बोम देवी बोलता है। हिंदू काली माँ बोलते हैं, या दुर्गा माँ बोलते हैं। इस पर मैंने कहा की यार जिस मुल्क में यह तहजीब सालों से जिन्दा हैं वो मुल्क तो सुरक्षित है।
तीस्ता सीतलवाड- और पंडित, मुल्लाओं को दोनों को नहीं पसंद होगी यह बात?
महेश भट्ट- वो बिल्कुल नहीं है क्योंकि वो आपको एक ही रंग में रंगना चाहते हैं और जीवन का अगर ये सत्य होता तो बगीचे में सिर्फ केवल एक ही रंग के फूल होते। यह कुदरत चीख-चीख कर हर पल आप से कहती हैं कि मेरा कोई एक रंग नहीं है। यह सारे रंग मेरे हैं और यही शिक्षा है, जो हिंदुस्तान के हमारे बड़ो ने हम को दी थी।
तीस्ता सीतलवाड- आपके लिए बनाने में सबसे कठिन फिल्म कौन सी थी?
महेश भट्ट- ज़ख़्म ! जो मैंने अपनी ही आपबीती पर बनायी थी। मेरी माँ एक शिया मुसलमान थी, मेरे पिता एक नागर ब्राह्मण थे। उनका विवाह नहीं हुआ था, क्योंकि उनके जो बड़े थे उन्होंने मेरे पिता के इस रिश्ते तो जायज़ नहीं समझा था कि किसी पराए मज़हब की स्त्री से उनका ये सम्बन्ध हो गया। तो हमने बचपन में वो तकलीफ झेली थी और बाहर रहकर उस तकलीफ़ को पूरी तरह महसूस किया था। 92 के बाद जब बाबरी मस्जिद को गिराने के बाद जब हमारे मुंबई और हमारे मुल्क में जो आग लगी थी, उसको हमने एक फ्रेम बना कर अपनी निजी कहानी कही थी। फिर वो सपना, जो हमारे बड़े सालों से देखते आये हैं उसको हम ने दोबारा आर्टिकुलेट किया।
तीस्ता सीतलवाड- मगर उस दौर मैं आपको कुछ न कुछ सम्पादित करना पड़ा था?
महेश भट्ट- हाँ, 1998 में एनडीए की सरकार थी और मुझे याद है कि होम मिनिस्ट्री के साथ में संवाद करना पड़ा था। हालाँकि सेंसर बोर्ड के जो मेंबर्स थे, जो कि स्वतंत्र संस्था हैं, उन्होंने पिक्चर बिल्कुल बिना किसी कट के क्लीयर की थी लेकिन हमारी चेयरपर्सन आशा पारेख लड़ गई थी। उन्होंने उस फेज़ में होम मिनिस्ट्री को फिल्म रेफर की और होम मिनिस्ट्री ने कहा कि एक सीन जहाँ पर भगवा कपड़े पहने, सिर पर बैंड लगा के जो भीड़ आती है हॉस्पिटल में, इसका रंग आप बदलिये। मैंने कहा कि जब बाबरी मस्जिद को तोडा गया था तो ये उसके ऊपर गुंबद पर खड़े थे…मेरी फिल्म से तो आप ये निकाल देंगे लेकिन इतिहास से ये कैसे निकालेंगे आप? इस पर उन्होंने जवाब दे दिया था मगर उनको बात समझ में आ गयी थी कि, यह कहानी तो सालों साल रहेगी ही! 1998 के बाद आज 2014 हो गया लेकिन उस फिल्म का आज भी ज़िक्र होता है और आज भी टीवी पर दिखाई जाती हैं। लेकिन उसमें उन्होंने वो निकाल दिया था। तो शायद ये इनटोलेरेंट जो आइडॉलोजी होती है, वो कहानी कहने वालों से डरते हैं और उनकी आवाज़ को हमेशा घोंटने की कोशिश करते हैं।
तीस्ता सीतलवाड- बाबरी मस्जिद को गिराने के पीछे की जो सोच थी, एक तरह से देखें तो आज हिंदुस्तान पर राज कर रही हैं, तो यह हम अवाम से, संविधान से ये कैसे निगोशिएट करेंगे ?
महेश भट्ट- देखिये इसमें बहुत सुकून हमको इस बात से पाना चाहिए कि एक तबका है जिस ने मौजूदा सरकार को चुना हैं, जो है 31 परसेंट, या 32 परसेंट। बाकी बहुत बड़ी संख्या हैं जिन्होंने उनको नहीं चुना है। यह तो आनेवाला वक़्त ही इनके सामने यह सिद्ध कर देगा कि देखिये ये जो इस मोड़ पे सत्ता इनके हाथ में आयी हैं, वो उनके हाथ में रहेगी नहीं अगर यह ज्यादा दिन तक ये इस पॉलिटिकल आइडॉलोजी को असर्ट करते रहेंगे। क्योंकि यह हमारे स्वभाव के बिल्कुल विपरीत है। हिंदुस्तान की अवाम के स्वभाव का इससे कोई तालमेल ही नही हैं, यह मेरा यकीन हैं। हाँ क्योंकि वो पिछली सरकार की नीतियों से बहुत खफ़ा थी तो उन्होंने एक तरह से अपना आक्रोश उनके खिलाफ़ दिखाया हैं। इसलिए इनके पक्ष में ऐसा किया है, ये कोई सीधा इशारा तो नहीं हैं।
तीस्ता सीतलवाड- भारतीय सिनेमा के सामने अभी किस तरह की चुनौतियां आएंगी, आनेवाले दिनों में ?
महेश भट्ट- देखिये पोस्ट लिब्रलाइजेशन के बाद से हमारे नौजवानो के अंदर एक बात बैठा दी गयी है कि मुनाफ़े से बड़ी कोई चीज़ नहीं। प्रॉफिट अबव वैल्यूज़ जो हैं, इस सोच को रिएक्जामिन करना होगा। क्योंकि ये संभव हैं कि आप वैल्यूज को बरक़रार रखते हुए या प्रॉफिट, एक प्रॉफिटेबल वेहिकल बना लें। क्या मुगले आज़म प्रॉफिटेबल वेहिकल नहीं था मगर अपने जो वैल्यूज़ थे, उसमे ज़िन्दा थे? क्या मदर इंडिया में वैल्यूज नहीं थी, क्या प्रॉफिट उसने नहीं कमाया? बिल्कुल…तो हम जब तक यह नहीं सोचेंगे कि हमारी फिल्म एक वैल्यू से कनेक्टेड फिल्म हो, जो प्रॉफिटेबल भी हो सकती हो, तब तक हम ऐसी फिल्म बनाएंगे ही नहीं।
तीस्ता सीतलवाड- महेश भट्ट के लिए सिनेमा में सबसे इंफ्लुएन्शिअल, इंस्पिरेशनल फिगर कौन है?
महेश भट्ट- हिंदुस्तानी सिनेमा में दिलीप कुमार साहब हैं, क्योंकि युसूफ़ खान जिसने आज़ादी के बाद अपने-आप को दिलीप कुमार कह के आइडेंटिफाई करना जरुरी समझा। उसने अपनी निजी ज़िन्दगी और अपने काम के जरिये बार-बार इस मिली जुली तहज़ीब की ही बात की है, उसको जिया है और मुझे लगता है कि ऐसे जो गहने हैं इनकी कद्र अगर हम नहीं करते हैं तो हम अपने साथ ही नाइंसाफी करते हैं। इस से हम ख़ुद ही गरीब हो जायेंगे।
तीस्ता सीतलवाड- दिलीप कुमार के ऊपर कभी फिल्म बनेगी?
महेश भट्ट- मुझे लगता हैं कि ऐसे लोग जब हमारे बीच से गुज़रते हैं तो उनकी खुशबू हमारे ज़ेहन में सालों-साल रहती हैं। यक़ीनन आज नहीं तो कल उनकी ज़िन्दगी पर फिल्म कोई न कोई ज़रूर बनाएगा।
तीस्ता सीतलवाड- महेश भट्ट फिल्म भी बनाते हैं, राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पे बोलते भी हैं और धरने पर भी उतरते हैं…इसको लेकर आप कभी कुछ टेंशन महसूस करते हैं या कुछ दबाव जैसा ?
महेश भट्ट- अकेलापन घेरता है…जैसे कि पिछले कुछ दिनों में जो हम ने देखा है…मुल्क की फ़िज़ाओं में जो पॉलिटिक्स खेली जा रही हैं…जिस किस्म का ट्रीटमेंट दिया जा रहा है…माइनॉरिटी वगैरह को। तो हमने जब सड़क पर खड़े हो कर आवाज़ उठायी तो हमको गहरे अकेलेपन का एअहसास हुआ मगर उस तनहाई में भी हमारी एक शान थी। हम शायद बापू की सोच को जी रहे हैं और हमको ऊर्जा और शक्ति इसी से मिलती हैं। मुझे लगता हैं कि दुनियादारी के लिए लोग कहते हैं कि पावर सेंटर से ज़्यादा से जूझना ठीक नहीं है। लेकिन फिल्म मेकर को तो हर मौसम में अपने दिल ही की बात कहनी चाहिए। हमने 98 में भी अपनी बात कही थी और तब भी नहीं डरे थे तो अब क्या डरेंगे!
तीस्ता सीतलवाड- आज इतिहास के पुनर्लेखन की कोशिश की जा रही है, आवाज़ की आज़ादी आज़ादी को दबाने की कोशिश हो रही है! क्या हमारी जो क्रिएटिव फ्रेटर्निटी हैं वो इस चुनौती से उपर उठेंगे या दब जाएंगे?
महेश भट्ट- यह अंधेरी रात है और बहुत ही काली है। इसमें जब तक जो क्रिएटिव लोग और इंडिपेंडेंट थिंकर्स हैं, जहाँ वो हैं, अपनी तरफ से प्रयास कर के एक छोटा सा दिया नहीं जलाएंगे तो यह अँधेरा यक़ीनन और गहरा हो जायेगा। और जैसा कि (Bertolt Brecht) बर्तोल्त ब्रेश्त कहते थे। इन डार्क टाइम्स राइट अबाउट डार्क टाइम्स और 98 में हमने जो फिल्म बनायीं थी ज़ख़्म, तो उसमे वो डार्क टाइम्स का ज़िक्र किया था। हर सूरत में फिल्म मेकर का कर्तव्य हैं की वो रियलिटी और अत्याचार को चाहें पर्दे पर या अपने माध्यम से बेझिझक प्रेजेंट करे। ये करना बहुत ज़रूरी है मगर लगता है कि ये रास्ता कठिन है क्योंकि लोग कहते हैं या तो आपको कॉप्ट किया जायेगा या आप ख़ुद समझौता या आपको डरा कर खामोश कर दिया जायेगा। मगर जितना आप एक आज़ाद पसंद मुल्क की आवाज़ को दबाने की कोशिश करते हैं, उतनी ही शिद्दत से वो एक चीख बन कर आप के सामने अपना नया रूप दिखाती है। और ये यक़ीनन होगा क्योंकि ये यह हुआ है, होता रहा है और ये होता रहेगा।
तीस्ता सीतलवाड- आखिरी सवाल, बाबरी मस्जिद को जानबूझ कर गिराने में और बामियान में बुद्ध को गिराने में 92 और 2001 क्या फ़र्क है?
महेश भट्ट- कोई फ़र्क नहीं है, ये जो एक्सट्रीमिस्ट सोच हैं वो किसी एक मुल्क की जागीर नहीं, किसी एक मजहब की जागीर नहीं हैं। हर मजहब में इनटोलेरेंट इंफ्रॉक्शन्स होते हैं, जिनके खिलाफ उसी मजहब के लोगो का कर्तव्य है कि वो उसके खिलाफ़ लड़ें। जब तक हम ये नहीं करते हैं, तब तक अमन या एक नॉर्मल्सी का अहसास आपको दूर दूर तक नहीं हो पाएगा। तीस्ता सीतलवाड- बहुत-बहुत शुक्रिया महेश जी।