इस चूहातंत्र पर हँस लीजिए, बस!
इस चूहातंत्र पर हँस लीजिए, बस!
— क़मर वहीद नक़वी
चूहे! कहने को चूहे, मगर दस हज़ार के! नहीं, नहीं, मेरे मग़ज़ का कोई पेच नहीं ढीला हो गया है। बिलकुल सच बात है। आरटीआइ से निकली है। बेंगलुरु में महानगर पालिका के दफ़्तर में चूहे मारने पर यह ख़र्च आया है! तीन-तीन महीने के ठेके के लिए दो बार टेंडर जारी हुए। निन्यानबे-निन्यानबे हज़ार के दो टेंडर। काम दिया गया एक प्राइवेट कम्पनी को। और कुल चूहे मारे गये बीस! यानी एक चूहा पड़ा दस हज़ार रुपये का! बड़ी दिलचस्प कहानी है। पालिका दफ़्तर की एक आलमारी में एक दिन एक मरा हुआ चूहा मिला। सबको बड़ी चिन्ता हुई। चूहे सारी फ़ाइलें कुतर जायेंगे। प्रस्ताव हुआ कि दफ़्तर का इंटीरियर भी ठीक किया जाये। आलमारियाँ वग़ैरह दुरुस्त करायी जायें और चूहे मारे जायें। और पूरे नियम-क़ानून से ‘इ-टेंडर’ जारी हुए। क़रीब एक करोड़ चालीस लाख रुपये ख़र्च हुए। इनमें दो लाख रुपये चूहों पर ख़र्च हुए। और रिपोर्ट दे दी गयी कि बीस चूहे मार दिये गये हैं। चूहे मारने के लिए सालाना टेंडर तो उसके बाद भी निकला था। उसका क्या हुआ, पता नहीं!
दफ़्तर-दफ़्तर की कहानी!
यह देश की असली तसवीर है। दफ़्तर-दफ़्तर की कहानी! सरकारी काम का सत्य! जो काम कुछ सौ रुपयों की कुछ चूहेदानियों और दफ़्तर के कुछ चपरासियों की मदद से हो सकता था, वह ‘इ-गवर्नेन्स’ से हुआ! एक प्राइवेट कम्पनी ने किया। कम्पनी दो लाख रुपये कुतर गयी! चूहे मार देने का बिल जमा हो गया। पूरी जाँच-परख के बाद उसका भुगतान भी हो गया। सारा काम बिलकुल क़ायदे-क़ानून से हुआ! कहाँ कोई भ्रष्टाचार हुआ भाई? आडिट कर लीजिए। कहीं, कुछ भी गड़बड़ नहीं मिलेगी! कोई चाहे भी तो गड़बड़ साबित नहीं कर सकता। कम्पनी ने तीन महीने का ठेका लिया निन्यान्बे हज़ार रुपये में। यानी क़रीब तैंतीस हज़ार रुपये महीने। चूहे पकड़ने के लिए उसने एक-दो आदमी तो ‘रखे’ ही होंगे। इसलिए इतना ख़र्च तो होगा ही। सारा हिसाब बिलकुल सही है।
यह चूहातंत्र है!
यह चूहातंत्र है! देश बरसों से इसी तंत्र से चल रहा है। सर्वव्यापी, सर्वविराजमान, सर्वशक्तिमान, सर्वमान्य चूहातंत्र यत्र-तत्र-सर्वत्र कुतर कार्य में सतत रत है। सब जानते हैं। सरकारें आती हैं, सरकारें जाती हैं, बजट आता है, बजट जाता है, चूहातंत्र सरकार निरपेक्ष है, दल निरपेक्ष है, विचारधारा निरपेक्ष है, बजट निरपेक्ष है। उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि जेटली बजट पेश करते हैं कि चिदम्बरम, प्रणव मुखर्जी कि यशवन्त सिन्हा कि जसवन्त सिंह कि मनमोहन सिंह कि मोरारजी देसाई। उसे क्या मतलब कि किन ‘विशेषज्ञों’ ने किस बजट को क्यों अच्छा या बुरा कहा? अख़बारों, टीवी चैनलों और अब सोशल मीडिया में बजट पर बहस करनेवाले भले ही बहस कर-करके कट मरें, उसे भला क्या फ़र्क़ पड़ता है? उसे मालूम है कि जनता का पैसा यहाँ रखो या वहाँ, यहाँ लगाओ या वहाँ, नेहरू के नाम की योजना लाओ या दीनदयाल उपाध्याय के नाम की, चूहातंत्र को तो नोट कुतरने ही हैं। बल्कि जितनी ज़्यादा योजनाएँ होंगी, उतने ज़्यादा नोट होंगे कुतरने को! जब से दुनिया बनी है और ख़ास कर जब से अपने यहाँ लोकतंत्र आया है, अब तक ऐसी कोई चूहेदानी बनी ही नहीं कि वह पूरे चूहातंत्र को पकड़ कर मार सके। क़िस्मत के मारे इक्का-दुक्का चूहे फँस गये अपनी बेवक़ूफ़ी से तो फँस गये!
यह हँसी-मज़ाक़ की बात नहीं, सचमुच बड़ी गम्भीर बात है। भ्रष्टाचार और गवर्नेन्स ये दो सबसे बड़े मुद्दे हैं, जिसने देश की ऐसी ख़स्ता हालत बना रखी है। दुर्भाग्य से इन दोनों ही मुद्दों पर, धूमिल के शब्दों में, देश की संसद मौन है। अभी जेटली जी ने बजट पेश किया। बताया कि देश किन आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। वित्तीय घाटा बहुत है। कम करने के दो ही रास्ते हैं। या तो सरकार की आमदनी बढ़े या सरकार का ख़र्च घटे। सरकार का ख़र्च तो बहुत ही घट सकता है, शायद आधे से भी ज़्यादा बशर्ते कि चूहातंत्र पर पूरी नहीं तो आधी लगाम भी लग जाये। यहाँ समझने की बात है कि चूहातंत्र का अर्थ केवल भ्रष्टाचार नहीं है, बल्कि इसमें वह तमाम सरकारी प्रक्रियाएँ, जटिलताएँ और तंत्र शामिल है, जिन्हें भ्रष्टाचार रोकने और सरकारी कामकाज को ‘सिस्टेमैटिक’ बनाने के नाम पर ही थोपा गया है!
‘गवर्नेन्स’ का काँटा!
बेंगलुरु का ही उदाहरण ले लें। मान लीजिए कि उस दफ़्तर में सारे के सारे लोग बेहद ईमानदार हैं। और सचमुच सरकारी फ़ाइलों की सुरक्षा के लिए दफ़्तर से चूहे ख़त्म करना बेहद ज़रूरी था। अब अगर दफ़्तर का अफ़सर बाज़ार से दो-चार चूहेदानियाँ ख़रीद लेता, किसी चपरासियों को ज़िम्मा दे देता कि वह चूहेदानियाँ लगा दिया करे, देख लिया करे कि उसमें चूहे फँस गये हैं तो दूर कहीं जा कर फेंक आये या मार दे। क्या यह सम्भव था? क़तई नहीं। क्योंकि फिर टेंडर की प्रक्रिया कैसे पूरी होती? चूहेदानियाँ कैसे ख़रीदी जातीं? अगर वहाँ कर्मचारी यूनियन हुई तो वह चपरासी को इस काम में हाथ भी न लगाने देती क्योंकि नियमानुसार यह काम चपरासी की ड्यूटी का हिस्सा नहीं हो सकता। और मान लीजिए कि वहाँ कोई यूनियन न होती या यूनियन को इस पर कोई आपत्ति न होती और अफ़सर महोदय अपने चपरासी को इस ‘ड्यूटी के अतिरिक्त’ काम के लिए अलग से कुछ पैसे देना चाहते तो यह भी शायद सम्भव न हो पाता। क्योंकि इस ख़र्च को किस मद में दिखाया जाता, चपरासी को उसके वेतन के अलावा भुगतान किस नियम में होता? ओवरटाइम में? तो उसका औचित्य दिखाना पड़ता? दूसरा विकल्प यह था कि अफ़सर महोदय अपनी जेब से पैसे देते! तो इस झमेले से बेहतर है कि यह काम किसी बाहर की एजेन्सी को दे दो! जनता के पैसे बरबाद हुए तो हुए, लेकिन सारा काम सरकारी नियम से हुआ!
दफ़्तरों में ऐसे मामले रोज़ ही आते हैं। आज ‘गवर्नेन्स’ का यह एक बहुत बड़ा काँटा है, जिसमें जनता के टैक्स के पैसे के एक बड़े हिस्से की बरबादी होती है। यह पैसा किसी और उपयोगी काम में लग सकता है। आज के समय में जब जनता महँगाई और टैक्स के बोझ से दबी हुई है, सरकार के पास आमदनी बढ़ाने का कोई और ज़रिया अब रह नहीं गया है, तो ‘गवर्नेन्स’ के ऐसे काँटों को निकाल कर न सिर्फ़ पैसे बचाये जा सकते हैं, बल्कि कार्यकुशलता भी बढ़ायी जा सकती है। लेकिन किसी की दिलचस्पी है इस पर दिमाग़ खपाने की?
दूसरा मुद्दा भ्रष्टाचार का है। दिलचस्प बात यह है कि अब तक की सारी सरकारें भ्रष्टाचार मिटाने के लिए ‘कटिबद्ध’ रही हैं। इस बात पर प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी की एक लाइन याद आ गयी। उन्होंने कुछ ऐसा लिखा था—‘अकसर सुनते हैं कि सरकार कटिबद्ध है। आपने देखी है सरकार की कटि? कहाँ होती है सरकार की कटि? अब अगर कटि ही नहीं है तो वह कटिबद्ध कैसे होगी?’ बहरहाल, सरकारें चाहें कितनी भी ‘कटिबद्ध’ रही हों, भ्रष्टाचार रोकने के लिए किसी ने कभी कुछ भी नहीं किया। उलटे आजकल राजनीतिक दल अपने लोगों को सलाह दे रहे हैं कि वे स्टिंग आपरेशनों से कैसे बच कर रहें! ऐसे में किसी सरकार, राजनीतिक दल या नेता के इस दावे पर सिर्फ़ हँसा ही जा सकता है कि वह भ्रष्टाचार रोकने के लिए कटिबद्ध है! तो राजनेताओं पर हँस लीजिए, बेंगलुरू के चूहातंत्र पर हँस लीजिए, इस आलेख पर हँस लीजिए कि इसके लिखने से क्या हो जायेगा, बस! हँसते-हँसते ज़िन्दगी कट जायेगी, राजकाज चलता रहेगा, देश आगे बढ़ता रहेगा!
(लोकमत समाचार, 12 जुलाई 2014)
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