इस तंत्र में जो फँसेगा वह मार दिया जाएगा फिलहाल अभी बारी अफजलों और याकूबों की है
इस तंत्र में जो फँसेगा वह मार दिया जाएगा फिलहाल अभी बारी अफजलों और याकूबों की है
आमतौर पर छोटे मोटे अपराधी भी स्थानीय थाना-प्रशासन और नेताओं से सांठ-गांठ करके चलते हैं। जो ऐसा नहीं करते या जब ऐसा करना बंद कर देते हैं उनका देर सबेर सफाया हो जाता है।
बड़े अपराधी बड़े स्तर के प्रशासन-पुलिस-नेताओं के गठजोड़ से बड़े अपराधों को अंजाम देते हैं। प्रदेश स्तर का अपराधी तो गठजोड़ भी प्रदेश स्तर के पुलिस-प्रशासन और नेताओं से करता है। बाद के समय में तो राजनीति का ही इस कदर अपराधीकरण हो गया कि नैतिकता, अपराध और राजनीति की परिभाषाएं ही गड्ड-मड्ड हो गयीं।
अक्सर नेता अपने विरोधी को सबक सिखाने के लिए अपराधियों का इस्तेमाल करने लगे, यहाँ तक कि विरोधी नेताओं पर हमले और हत्या भी हुई। बदले में अपराधी अपने लिए निडरता का वरदान पाते रहे।
यही स्थिति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। स्मगलर, अपराधी गैंग से लेकर बड़े और शातिर अपराधी तक राजनीतिज्ञों के मोहरे की तरह होते हैं। जब ज़रुरत हुई उसे हाथी, घोड़े या वजीर की तरह इस्तेमाल किया और जब इस्तेमाल पूरा हुआ तो चारे की तरह कसाईखाने के हवाले कर दिया।
टाइगर मेमन और याकूब मेमन की भी यही स्थिति है। ये दोनों पाकिस्तान के लिए मात्र मोहरे हैं। ये हिन्दुस्तान के लिए भी मोहरे हैं। याकूब मेमन तो सीधे अपराध में शामिल भी नहीं था। लेकिन अपराधी गैंग का सदस्य तो उसे माना ही जा सकता है।
उसने खुद को भारत सरकार को सरेंडर कर दिया। मुंबई बम ब्लास्ट में शामिल अपराधियों के नाम बताये और इस काण्ड की जाँच में भारतीय एजेंसियों को सहयोग किया। उसने ऐसा यह सोचकर किया कि समर्पण करने पर उसे अपने गुनाह की कमतर सजा होगी, या कम से कम फाँसी तो नहीं होगी।
अब याकूब का काम खत्म होता है। वह पाकिस्तान के किसी काम का नहीं रहा। लेकिन मौजूदा सरकार अभी उसे भुना सकती है। मरा हाथी, ज़िंदा हाथी से भी ज्यादा काम का साबित होने जा रहा है।
इससे एक तो सरकार यह साबित कर सकती है कि वह आतंकवादियों के प्रति बहुत सख्त है और यह सख्ती दिखाने के लिए फाँसी तो देनी ही होगी, जिससे देश की जनता को यह समझाया जा सकता है कि यह सरकार एक बहुत मज़बूत सरकार है जो फाँसी दे सकती है।
दूसरी बात, चूँकि यह सरकार हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार है, जो यह मानती और प्रचारित करती है कि हर आतंकवादी मुसलमान होता है , इसलिए इस हिन्दू मानसिकता की आग का ईंधन याकूब मेमन को बनना ही पड़ेगा।
अगर बात सिर्फ इतनी न होती तो इस देश के अन्दर कई दंगों के मास्टर माइंड अपराधी और नेता जिनके खिलाफ भले बहुत सीधे सबूत न भी हों, याकूब मेमन की तरह परिस्थितिजन्य साक्ष्य उपलब्ध हैं, उन्हें भी फाँसी की सजा हो गयी होती।
अगर यह बात न होती तो गाँधी हत्या से लेकर चौरासी के सिख दंगे, बाबरी मस्जिद के बाद के दंगे, गोधरा और गुजरात के मास्टर माइंड को भी फाँसी की सज़ा हुई होती।
हर देश की राजनीति अपनी कमियों के लिए अपनी सुविधानुसार दुश्मन चुन लेती है। जैसे अमेरिका अपनी हर समस्या के लिए बाहर से आने वालों को ही ज़िम्मेदार मानता है और हर बार आव्रजन नियम और कड़े कर देता है। वैसे अमेरिका ईराक, अफगानिस्तान को भी अपने यहाँ कि समस्याओं का ज़िम्मेदार बता कर मामला हल कर चुका है।
भारत तो जब ऐसा करता है तो दो चार लोगों को फाँसी दे देता है, अमेरिका जब ऐसा करता है तो औरतों, बच्चों, बूढों समेत पूरे देश को ही फाँसी पर लटका सकता है। जैसा उसने इराक और अफगानिस्तान में साबित भी किया।
भारत में शिवसेना हर समस्या के लिए यू।पी। बिहार वालों को ज़िम्मेदार मानती है, दिल्ली में शीला दीक्षित भी ऐसा ही मानती थीं। मौजूदा सरकार पुरानी सरकार को हर कमी के लिए ज़िम्मेदार मानती है। पाकिस्तान भारत को हर बात का दोषी ठहरा देता है और भारत के पास दोष ठहराने के लिए काफी चॉइस है- वह बांग्लादेशियों, पाकिस्तानियों, चीन, नेपाल तक कहीं भी सुविधा और परिस्थिति के हिसाब से दोष मढ़ सकता है।
यह जो षड्यंत्र हैं, सत्ता का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यही कूटनीति हो गयी है। यही राजनीति। सत्ताओं ने हमेशा दंगे करवाए हैं। अंग्रेजों के समय से लेकर आज तक राज्य दंगे बाकायदा प्रायोजित करता रहा है।
इस तंत्र में जो फँसेगा वह मार दिया जाएगा। ज़रूरी नहीं कि सजा उसके अपराध के अनुपात में ही दी जाए।
याकूब मेमन का रोल यहीं तक था। इसके आगे या पीछे कोई और मेमन, अफज़ल या कसाब आयेंगे। न तो दंगों में मरे बेक़सूर लोगों की आहों से, न ही इन फाँसियों से सत्ता तंत्र की आँखों की कोर गीली नहीं होती।
लेकिन बुरा उनके साथ हो रहा है जिन्हें सत्ता तंत्र अपना मोहरा बना रहा है। मोहरे राजा को जिताने के लिए ही होते हैं। यही उनका एकमात्र उपयोग होता है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे समर्पण करके आ रहे हैं। वे मार दिए जायेंगे क्योंकि सत्ता में समर्पण कोई मायने नहीं रखता। सही मोहरे का सही समय पर उपयोग ही आज की राजनीति है। कई बार तो उन्हें बिना पर्याप्त सबूतों के जनता के दिल को शांत करने के बहाने भी मार दिया जाएगा जैसे अफज़ल को मारा गया, जैसे याकूब को मारने की तैयारी है।
संदीप डांगे, रामजी कल्सांग्रा, लोकेश शर्मा, कमल चौहान, राजेंद्र चौधरी , स्वामी असीमानंद, प्रज्ञा ठाकुर, माया कोड्नानी, बाबू बजरंगी आदि आदि आज फायदे की स्थिति में हैं।
फिलहाल अभी बारी अफजलों और याकूबों की है।
संध्या नवोदिता


