इसी व्यवस्था द्वारा पैदा किया गया तमाम सेफ्टी वाल्व और स्पीड ब्रेकर है "आप" #AAP
इसी व्यवस्था द्वारा पैदा किया गया तमाम सेफ्टी वाल्व और स्पीड ब्रेकर है "आप" #AAP
भ्रम का कुहरा फैला रही है आप कि एक भ्रष्टाचार रहित संत-पूँजीवाद सम्भव है
'आम आदमी पार्टी' की चुनावी सफलता पर लट्टू हो रहे साथियों से दो बातें
आनंद सिंह
'आम आदमी पार्टी' की हालिया चुनावी सफलता से भारतीय मध्य वर्ग के अच्छे-खासे हिस्से में एक नयी उम्मीद का संचार हो गया है। मजे की बात तो यह है कि दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों धाराओं की ओर झुकाव रखने वाले तमाम ढुलमुल लोगों को अन्तत: एक साफ-सुथरा नायक मिल गया है जिसके दामन पर कोई दाग़ भी नहीं है। प्रतिबद्ध दक्षिणपंथी तो अभी भी फासिस्ट मोदी के खून से सने दामन से ही चिपके हुये हैं लेकिन वे ढुलमुल दक्षिणपंथी जो मोदी के खून से रंगे हाथों को छिपाने में शर्म महसूस करते थे, उनके लिये केजरीवाल के रूप में उन्हें ऐसा नायक मिला है जो देशभक्ति की बातें भी करता है और जिसका नाम अब तक किसी क़त्ले-आम या भ्रष्टाचार में नहीं सामने आया है। लेकिन उससे भी मजे की बात तो यह है कि वामपंथियों के ढुलमुल धड़े को भी अन्तत: मौजूदा व्यवस्था में ही आम आदमी की बातें करने वाला और धर्मनिरपेक्षता की पैरोकारी करने वाला नायक मिल गया है जिसकी वजह से वे विचारधारा, जो उन्हे पहले ही बोझिल लगती थी, का परित्याग कर विचारधाराविहीन सामाजिक परिवर्तन का जश्न मनाने में तल्लीन हो गये हैं। ऐसे लोग इन दिनों भारतीय वामपंथी धारा को समाज में अपनी पैठ न बना पाने पर पानी पी-पी कर कोस रहे हैं और 'आम आदमी पार्टी' से सीखने की नसीहतें दे रहे हैं।
ऐसे तमाम ढुलमुल और अप्रतिबद्ध साथियों से मेरा आग्रह है कि वे मीडिया की 'हाइप' के आधार पर नायकों को चुनने की बजाय भारतीय समाज के इतिहास और मौजूदा परिस्थिति का संजीदगी से विश्लेषण करके ही कोई राय बनायें क्योंकि पूंजी के दम पर टिकी मीडिया के अस्तित्व की शर्त ही यही है कि वह आये दिन नायकों को निर्माण करे, पुराने नायक का ब्राण्ड जब घिस जाये तो नये नायक का ब्राण्ड सामने लाये।
क्या आपको याद नहीं कि अभी ज़्यादा दिन नहीं हुये जब उप्र विधानसभा चुनाव के बाद अखिलेश यादव को मीडिया ने एक नायक की तरह उभारा था। उससे पहले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद पूरा मीडिया ममता बनर्जी के गुणगान में लगा था। अब ये ब्राण्ड पिट चुके हैं। पिछले कुछ महीनों से मोदी ब्राण्ड तमाम कॉरपोरेट संचालित मीडिया में जीवन संचार का काम कर रहा है इससे तो तो आप वाकिफ़ ही हैं। लेकिन इसी बीच 'आम आदमी पार्टी' की जीत के बाद उन्हें नायक का एक नया ब्राण्ड मिला है जिसमें एक बंबइया फिल्म के नायक में होने वाले गुण भी हैं और वह साफ सुथरी छवि का भी है जिसको समर्थन देने में धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखने वाले (या फिर ऐसा दिखावा करने वाले) मध्यवर्ग को कोई दिक्कत नहीं होगी। इसलिये अब मार्केट में नायकों के दो तगड़े ब्राण्ड आ चुके हैं। और हमें इनमें से अपना नायक चुनने के लिये कहा जा रहा है।
शायद आप में से कुछ लोग यह कहेंगे कि आप मीडिया की 'हाइप' की वजह से नहीं बल्कि 'आम आदमी पार्टी' की ऐतिहासिक जीत की वजह से उसका समर्थन कर रहे हैं। चलिये देखते हैं कि इस पार्टी की जीत कितनी ऐतिहासिक है। यह जीत का निश्चित रूप से एक नई पार्टी के लिये यह एक बड़ी जीत है, परन्तु ऐसा भारतीय पूँजीवादी राजनीति के इतिहास में पहली बार तो नहीं हुआ है। अगर आज़ाद भारत के इतिहास पर एक सरसरी निगाह भर दौड़ा ली जाये तो हमें पता चलेगा कि जब जनता का भरोसा लूट-खसोट और भ्रष्टाचार पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था से उठने लगता है तब व्यवस्था के भीतर से ही व्यवस्था-परिवर्तन की बात करने वाले किस्म-किस्म के मदारी अपना चुनावी डमरू बजाते हुये काँग्रेस का विकल्प प्रस्तुत करने के नाम पर जनता को गुमराह करते हैं, उसे असली मुद्दों से भटकाते हैं और उसके गुस्से पर ठण्डा पानी डालते हुये जनता को यकीन दिलाते हैं कि दिक्कत व्यवस्था में नहीं बल्कि एक पार्टी विशेष या नेता विशेष में है। अगर चुनावी जीत को ही ऐतिहासिकता का पैमाना बनाया जाय तो 'आम आदमी पार्टी' ने जो इतिहास रचा है उससे कहीं बड़े इतिहास इस देश में रचे जा चुके हैं। इस पैमाने से चलें तो जयप्रकाश नारायण, एनटी रामाराव, वीपीसिंह और यहाँ तक कि आडवाणी, लालू, मुलायम, मायावती सभी ने इतिहास रचा जो केजरीवाल की तुलना में कहीं बड़ा था। ऐसे इतिहासों से किस किस्म की व्यवस्था बनती है वह हम सबके सामने है।
चलिये इस पार्टी की नीतियों पर भी बात कर ली जाय। पिछले कुछ वर्षों में जो घपले-घोटाले सामने आये उनसे अब साफ़ जाहिर हो चुका है कि इस देश में विकास के नाम पर एक बेतहाशा लूट मची हुयी है। बड़े-बड़े पूँजीपति घराने इस देश की अकूत प्राकृतिक सम्पदा और श्रमशक्ति का शोषण करके अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं और देश की आम मेहनकश जनता शोषण की चक्की मे पिसती हुयी नरक जैसी जिन्दगी बिताने को मज़बूर है। ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण के मामले में भारत का रिकार्ड तमाम सब सहारन अफ्रीकी देशों से भी आगे है और वहीं दूसरी ओर धनकुबेरों की संख्या में भी कीर्तिमान बनाये हैं। इस घनघोर अन्याय का एक द्वितीयक पहलू यह भी है कि इस बेतहाशा लूट का एक छोटा सा टुकड़ा (जो 'आइसबर्ग के टिप' के समान है) पूँजीपति वर्ग अपने चाकरों यानी नेताओं और नौकरशाहों को घूस और कमीशन के रूप में देता है जिसको भ्रष्टाचार का नाम दिया जाता है। इस परिदृश्य में 'आम आदमी पार्टी', जो इन घोटालों के बाद उभर कर आयी, किस प्रकार का समाधान प्रस्तुत कर रही हैं? यह पार्टी मुख्य लूट यानी प्राकृतिक संसाधनों और श्रम शक्ति की अँधी पूँजीवादी लूट (जो कानून के दायरे में होती है) के बारे में तो चुप्पी साधे रहती है लेकिन द्वितीयक लूट यानी भ्रष्टाचार पर बहुत चिल्ल पों मचाती है। इससे क्या साबित होता है? वास्तव में इस पार्टी को इस मुख्य पूँजीवादी लूट से कोई दिक्कत नहीं है बशर्ते कि वह लूट के नियमों (यानी कानून) के दायरे में हो। बेशक हर इंसाफ़पसन्द व्यक्ति चाहेगा कि भ्रष्टाचार ख़त्म हो परन्तु उसके लिये भी हमें उसकी जड़ (यानी लोभ-लालच और निजी सम्पत्ति पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था) पर प्रहार करना होगा। परन्तु यह पार्टी जड़ों पर प्रहार करने की बजाय फुनगियों को कतरने को ही व्यवस्था परिवर्तन का नाम देती है। इस प्रक्रिया में यह जनता में एक झूठी उम्मीद भी पैदा कर रही है जो अन्तत: निराशा ही पैदा करती है और राजनीतिक स्तर पर फासीवाद की ही जमीन तैयार करती है। यह पार्टी दरअसल इसी व्यवस्था द्वारा पैदा किये गये तमाम सेफ्टी वाल्व और स्पीड ब्रेकरों में से एक है। यह जनता के बीच इस भ्रम का कुहरा फैला रही है कि एक भ्रष्टाचार रहित संत-पूंजीवाद सम्भव है।
कुछ लोग कहेंगे कि और कोई विकल्प ही नहीं है। आखिर किया क्या जाये? अगर आप व्यवस्था परिवर्तन को 'टवेंटी टवेंटी' मैच या 'फास्टफूड' जैसा नहीं समझते और तो आप मानेंगे कि विकल्प आसमान से नहीं टपकते, बल्कि उन्हें सचेतन प्रयासों से गढ़ना पड़ता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इस देश में क्रांतिकारी ताकतें तमाम शहादतों और कुर्बानियों के बावजूद अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरी और दूसरे देशों की क्रान्तियों का अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति की वजह से इतिहास के मौजूदा दौर में बिखराव और भटकाव का शिकार हैं। लेकिन हमें यह भी जानना होगा कि ऐसे ही गतिरोध की स्थिति को तोड़ने के लिये ही शहीदे आज़म भगतसिंह ने क्रान्ति की 'स्पिरिट' ताज़ा करके इंसानियत की रूह में हरकत करने की बात कही थी। हमें अपने हठी मताग्रहों और संकीर्णताओं को त्याग कर साहसिक तरीके से क्रान्ति के विज्ञान को आत्मसात करना होगा। हमें कल-कारखानों, खेत खलिहानों, गंदी बस्तियों में क्रान्ति का संदेश ले जाकर आम मेहनतकश जनता को एकजुट, लामबंद और संगठित करना होगा। मौजूदा व्यवस्था द्वारा फैलाई जा रही मानवद्रोही संस्कृति के बरक्स हमें एक वैज्ञानिक तथा मानवीय सोच से लैस नयी पीढ़ी को भी तैयार करने के भगीरथ प्रयास में जी जान से जुटना होगा। शायद आप कहेंगे कि यह तो बहुत मुश्किल और लम्बा काम है। लेकिन, धर्म-अंधविश्वास की जकड़न में फँसे एक पिछड़े हुये पूँजीवादी देश में क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने का कोई आसान और शॉर्टकट तो है ही नहीं। इसके लिये ऊबड़-खाबड़, पथरीली, लम्बी और साहसिक यात्राओं से तो गुज़रना ही होगा। शायद आप में से कुछ लोग कहेंगे कि यह आपके बस की बात नहीं। लेकिन आप इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने आप अपनी इस कमज़ोरी को छिपाने के लिये समाज में किसी भ्रम को (मसलन 'आम आदमी पार्टी' के द्वारा फैलाये जाने वाले ईमानदार पूँजीवाद के भ्रम को) न बढ़ावा दें। और साथ ही साथ जो लोग भ्रम फैला रहे हैं उनका पर्दाफ़ाश करें।


