प्रतिकार और हिंसा कभी किसी धर्म का अंग नहीं बन सकते
डॉ. मोहम्मद आरिफ

आतंकवाद अपने आप में कोई विचार धारा नहीं, बल्कि एक रणनीति है। यह कहां तक उचित या अनुचित है, इसे लेकर लंबी बहसें चली हैं। यहां तक कि 9/11 की घटनाओं के बाद जिस तरह से आतंकवाद को मनमाने तरीके से परिभाषित किया गया वह चिंतनीय ही नहीं, निंदनीय भी है। प्रश्न उठता है कि क्या इस्लाम सचमुच वैसा ही है जैसा उसे पेश किया जा रहा है या उसको इस तरह से पेश करने मे कुछ निहित स्वार्थ हैं?

पिछले डेढ़ दशकों में इस्लाम की तस्वीर रूप में ही चित्रित की गयी है। अतिवादी ताकतें सनसनीखेज कार्यवाही को उछाल देती है लेकिन शांतिवादी कार्यवाही की उपेक्षा करती हैं। धर्मांध लोगों की टिप्पणियों को इस्लाम के मूल्य के रूप में बड़े मुखरित तरीके से प्रचारित किया जाता है और गंभीर तथा संयत व्याख्या की उपेक्षा कर दी जाती है। ऐसा प्रचारित किया जाता है कि जैसे इस्लाम और आतंकवाद एक सिक्के के दो पहलू हैं और इस्लाम का काम सिर्फ हिंसक वारदातों को अंजाम देना है, ऐसी सोच वाले इस्लाम के बुनियादी वसूलों को नहीं जानते। उन्हें यह भी नहीं ज्ञात है कि इस्लाम का उदय ही अंधकार का नाश करने एवं शांति तथा इंसाफ का राज्य कायम करने के लिए हुआ था।

हमें यह बात याद रखी चाहिए कि धर्म और हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं हैं, चाहे वह इस्लाम हो या अन्य कोई धर्म। दुनिया में धर्म न्याय एवं शांति स्थापित करने के लिए ही अस्तित्व में आये, न कि बदला लेने और हिंसा फैलाने के लिए। प्रतिकार और हिंसा कभी किसी धर्म का अंग नहीं बन सकते। ...और इस्लाम में तो उसका प्रश्न ही नहीं उठता। इस्लाम आतंकवाद का समर्थन नहीं बल्कि खण्डन करता है। नाहिदा की मानें तो जिस तरह लोग विभिन्न व्यवसाय करते हैं उसी तरह आतंक व हिंसा फैलाना आंतकवादियों का व्यवसाय है उनका किसी धर्म से कोई लेना देना नहीं और उन्हें सिर्फ वहशी दरिन्दा समझना चाहिए किसी धर्म का अलम्बरदार तो बिल्कुल नहीं।

इस्लाम शब्द सल्म से बना है जिसकी अर्थ शांति है। सही मायने में इस्लाम शब्द ही इस्लाम धर्म का सार है। इसका अर्थ है शांति स्थापित करना और अल्लाह की इच्छा को समर्पित होना। इस्लाम तो अप्रत्यक्ष रूप से भी अत्याचार की बात नहीं करता, हिंसा की बात तो बहुत दूर है। रसूल-ए-अकरम ने सुलह-ए-हुदैबिया में जो शर्ते स्वीकार की वह मुसलमानों के पक्ष में नहीं थीं किन्तु हिंसा से बचने के लिए उन्होंने उन शर्तों को स्वीकार कर लिया जिससे शांति स्थापित होती थी। इस्लाम हिंसा के उपयोग की अनुमति सिद्धांत रूप में बिल्कुल नहीं देता। यदि कभी संघर्ष करना पड़े तो कुरआन की आयत सं0 2:90 का स्पष्ट आदेश है कि अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुम्हारे विरूद्ध लड़ते हैं, किन्तु आक्रामक मत बनो। अल्लाह आक्रमणकारियों को निश्चित रूप से पसंद नहीं करता। यहां पर अल्लाह के मार्ग में लड़ने का तात्पर्य है इंसाफ के लिए लड़ना, दयालु, एवं करूणामय समाज की स्थापना के लिए लड़ना न कि हिंसा के लिए।

हिंसा की जड़े मनुष्य की लालच में निहित होती हैं कुरआन शांति की सामाजिक जड़ों को मजबूत करता है। कुरआन इमान वालों को केवल ऊपरी तौर पर ही शांति से प्रेम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता बल्कि व वास्तविक शांति स्थापित करने के लिए संघर्ष के सामाजिक आर्थिक कारणों की तह तक पहुंचने का प्रयास करता है। हिंसा में कहीं भी धर्म के रूप में इस्लाम के शामिल होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जहां तक न्याय और शांति का प्रश्न है, इस्लाम का दूसरे धर्मों से कोई टकराव नहीं है, क्योंकि शांति न्याय एवं संवेदना दूसरे धर्मों की तरह इस्लामी मूल्य भी हैं। इसका बुनियादी रूप से टकराव शोषकों एवं शोषितों के बीच है। इसलिए यदि कुछ तत्व अपने निहित स्वार्थ को पूरा करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं तो उसमें इस्लाम या पूरे मुस्लिम समाज को घसीटना ठीक नहीं। यदि किसी अन्याय और शोषण के विरूद्ध लड़ाई लड़ना है तो इस्लाम के अपने जायज तरीके हैं जिसके लिए वह हिंसक साधनों की अनुमति कतई नहीं देता।

कुरआन की आयत सं. 2:208 में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि ऐ ईमानवालों, सम्पूर्ण शांति में प्रवेश करो और शैतान के कदमों पर मत चलो। बेशक वह तुम्हारा खुला दुश्मन है। शैतान के कदमों पर चलना हिंसा है और उससे बचना शांति की वकालत करना है। यहाँ दूसरी आयत सं. 15:46 में अल्लाह कहता है कि शांति एवं सुरक्षा में प्रवेश करो। इस तरह कुरआन में अनेक आयतें शांति के समर्थन एवं हिंसा के विरूद्ध विद्यमान है।

इस्लाम ने अपनी ओर से शांति एवं इंसाफ के लिए श्रेष्ठतम प्रयास किये हैं और सदैव हिंसा का विरोध किया है। कुछ शरारती तत्व मजहब का सहारा लेकर उसकी विकृत अवधारणा प्रस्तुत करके हिंसा पर आमादा हैं, उसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं। उनके कार्यों को मुस्लिम समाज ने कभी भी उचित नहीं माना बल्कि सदैव मुखालफत ही की और जहां तक इस्लाम का सम्बन्ध है शांति एवं अहिंसा उसकी शिक्षा के अनिवार्य अंग रहे हैं।

वस्तुतः वर्तमान आतंकवाद मूलतः साम्प्रदायिक घृणा के इजहार का मुख्य माध्यम बन गया है। इसे किसी विशेष धर्म से जोड़ना उचित न होगा यह धार्मिक नहीं बल्कि इलाकाई अन्र्तद्वदों के फलस्वरूप विकसित होता है। साम्प्रदायिक घृणा और धार्मिक रूढि़वाद की दीवार जितनी मजबूत होती जाती है आतंकवाद का खतरा उतना ही बढ़ता जाता है पर 20वीं सदी के उत्तरार्ध में आतंकवाद का मुख्य स्त्रोत केवल धार्मिक रूढि़वाद और साम्प्रदायिकता नहीं है बल्कि वर्चस्ववादी महाबली राष्ट्रों की विदेश नीति और षड्यंत्रों का जाल है।

इस संदर्भ में यहां उल्लेख करना समीचीन होगा कि हाल में उत्पन्न संकट को देखते हुए बनारस सहित देश के अन्य उलेमाओं धार्मिक विद्वानों द्वारा इस्लामी नुक्त-ए-नजर से आंतकवाद और हिंसा के विरूद्ध दिया गया फतवा एक स्वस्थ परम्परा का घोतक ही नहीं है बल्कि इस्लाम की सही व्याख्या है। इस सराहनीय प्रयास से निकट भविष्य में शांति स्थापित कराने में न केवल मदद मिलेगी बल्कि इस्लाम के बारे में फैली गलतफहमी भी दूर होगी। उन लोगों के मंसूबे भी नाकाम होंगे जो इस्लाम को हिंसक एवं आंतकवादी प्रचारित करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।

भय एवं घृणा की रणनीति को निष्प्रभावी बनाने का एक मात्र विकल्प है लोगों के दिल एवं दिमाग केा जीतना। जरूरत हैं एक ऐसे जन-आन्दोलन की जिसका उद्देशय हिंसा एवं आतंक के स्थान पर विभिन्न समुदायों के बीच आपसी समझ विकसित करना हो। जिस पर चल कर सद्भाव एवं शांति की स्थापना की जा सकती है और किसी धर्म को अकारण कटघरे में खड़ा करने से बचा जा सकता है।

डॉ. मोहम्मद आरिफ, लेखक सेन्टर फार हारमोनी एण्ड पीस के चेयरमैन एवं सामाजिक कार्यकर्ता है।