ईश्वर की सत्ता के खिलाफ जंग कहीं जनता के खिलाफ न हो जाए
महेंद्र मिश्र
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव या तो संघ-भाजपा की गोद में बैठ गए हैं या उनकी कोई उससे बड़ी डील हो गई है, वरना वृंदावन में नास्तिकों के सम्मेलन में भगवा गिरोह ने जो तांडव किया, और महिलाओं के साथ जिस बर्बर तरीके से पेश आया, वह बगैर सत्ता संरक्षण के संभव नहीं था।
यह कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले मेरठ में गोडसे की प्रतिमा का अनावरण हुआ। रोकने की बात तो दूर उस पर सरकार की मौन सहमति रही। अखलाक के मसले पर भी वह हर स्तर पर भाजपा को सहयोग करती दिखी। हत्या आरोपी का तिरंगे में अंतिम संस्कार और परिजनों को मुआवजा उसी का नतीजा था।
हालांकि नास्तिक सम्मेलन पर मेरी अपनी अलग सोच है। लेकिन उसके आयोजन को लेकर कोई दो राय नहीं है। यह आयोजकों का मौलिक अधिकार है। उसे कोई संस्था, व्यक्ति या सरकार नहीं छीन सकता है। यह अधिकार उसे संविधान से मिला हुआ है। इसलिए बीजेपी-संघ समर्थित गिरोह की यह हरकत फासीवाद की श्रेणी में आता है। ऐसे में सम्मेलन को शांति पूर्ण तरीके से करवाने की जिम्मेदारी निभाने की जगह भगवाधारियों के सामने समर्पण कर प्रशासन ने लोकतंत्र और संविधान का खुला मजाक उड़ाया है।

दरअसल मैं बार-बार कहता रहा हूं कि इन्हें न तो अपनी परंपरा का ज्ञान है न ही संस्कृति का इल्म। चार्वाक से लेकर बौद्ध और जैन धर्म में नास्तिकता की एक लंबी परंपरा है। कबीर ने उस मध्य युग में अंधविश्वास, कर्मकांडों और दकियानूसी परंपराओं के खिलाफ अलख जगाई। जब धर्म और आस्था का सबसे ज्यादा जोर था। हिंदू धर्म का भी विकास तब हुआ जब शंकराचार्य ने बहस और शास्त्रार्थ की चुनौती को स्वीकार किया।
बौद्ध धर्म तो हर चीज को संदेह की नजर से देखने की सलाह देता है और चीजों की पुष्टि के लिए तर्क और तथ्य को पहली कसौटी बताता है।

बाद के दौर में दयानंद सरस्वती ने तमाम कर्मकांडों को खारिज कर उनके खिलाफ पूरा एक अभियान का ही संचालन किया।
अंग्रेजों को नाको चने चबवाने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने ‘मैं नास्तिक हूं’ लेख लिखकर धर्म के मामले में अपना पक्ष जाहिर किया। लेकिन ये मूढ़मति कुएं से निकलने के लिए तैयार नहीं हैं। ये किसी और से ज्यादा खुद हिंदू धर्म का नुकसान कर रहे हैं।
बात अगर नास्तिक सम्मेलन, उसकी सार्थकता और उसके औचित्य पर की जाए, तो उसको लेकर जेहन में कई सवाल हैं। मसलन भारतीय समाज अभी जहां खड़ा है, क्या वहां इस तरह के सम्मेलन की जरूरत है?
एक ऐसी प्रतिगामी ताकत जो अपने धर्म पर खतरे का डर दिखाकर लोगों को गोलबंद कर रही है, क्या आप उसको इस्तेमाल करने के लिए खतरा संबंधी एक और मुद्दा नहीं दे दे रहे हैं? जिससे उसे लोगों को गोलबंद करने का एक और हथियार मिल जाएगा।

इस तरह का आयोजन कुछ लोगों को भले ही मानसिक तौर पर तुष्ट कर दे, लेकिन उसका कोई व्यापक फायदा नहीं दिख रहा है।
यह बात जरूर है कि इससे एक नया संप्रदाय खड़ा हो सकता है, लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकलेगा। क्या वह समय आ गया है जब ईश्वर के अस्तित्व को सीधे चुनौती देना जरूरी है?
नास्तिक समाज एक आखिरी लक्ष्य हो सकता है। लेकिन उसको हासिल करने और वहां तक पहुंचने के लिए एक रचनात्मक रास्ते की तलाश करनी होगी। अवलन तो समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन और शोषण पर आधारित पूरी व्यवस्था के खात्मे के बगैर वह संभव ही नहीं है। लेकिन उससे पहले रूढ़िवाद, अंधविश्वास और पोंगापंथ के खिलाफ अभियान या फिर समाज में तार्किकता के पक्ष में गोलबंदी के जरिये इस काम को आगे बढ़ाया जा सकता है।

इस बात को एक दूसरे नजरिये से भी समझा जा सकता है।
एक दौर में संघ समेत कट्टरपंथी हिंदू संगठन अपनी तमाम मांगों और मुद्दों को सीधे-सीधे रखते थे। मसलन हिंदू राष्ट्र के स्थापना की मांग हो या फिर तिरंगे को खारिज कर भगवा झंडे को अपनाने का मामला। वंदेमातरम से जन-गण-मन का विस्थापन। इन सब मामलों में उन्हें सीधे-सीधे खारिज कर दिया गया। बाद में संघ ने इस बात को समझा और उसने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया। और इन सभी मसलों को उसने रचनात्मक तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश की। जिससे जनता में उसकी स्वीकार्यता बने।
इसका मतलब यह नहीं है कि संघ ने इन मुद्दों को छोड़ दिया। उसका यही लक्ष्य है। और उसे आज नहीं तो कल वो हासिल करेंगे। और उस पर खुलकर बोलेंगे। लेकिन मौजूदा समय वक्ती चुप्पी साधे हुए हैं।
और वैसे भी ईश्वर या फिर इंसान से अलग किसी दूसरी दैवीय सत्ता की स्वीकारोक्ति किसी शौक का नतीजा नहीं होता, बल्कि यह एक मजबूरी है। जो किसी साधन-सपन्न से ज्यादा वंचित और पीड़ित तबके की जरूरत है। ऐसे में इसका बेजा इस्तेमाल करने वालों का पर्दाफाश जरूरी है। लेकिन उस जनता से जिसका कोई दूसरा सहारा नहीं है। उसे बगैर कोई वैकल्पिक संसाधन मुहैया कराए इसको छीनना क्रूरता की श्रेणी में आएगा।

इस मामले में मार्क्सवाद से बड़ी सैद्धांतिकी कोई दूसरी नहीं आ सकी है।
मार्क्स ने धर्म को गाली नहीं दी, न ही उसका तिरस्कार किया। बल्कि उसे जनता का हृदय बताया। और किसी दूसरी चीज की गैरमौजूदगी में उत्पीड़ित शख्स के लिए सहारा करार दिया। लेकिन साथ ही उन्होंने उसके खात्मे का रास्ता भी बताया है।
यानी उन भौतिक परिस्थितियों की समाप्ति जिनके चलते इसका वजूद है। अब यह काम परिवर्तनकारी ताकतों को करना है। ऐसे में ईश्वर की सत्ता के खिलाफ जंग कहीं जनता के खिलाफ जंग में न तब्दील न हो जाए, इसका पूरा ध्यान रखना होगा।

अगर ऐसा हुआ तो इस पूरी जमात के अलग-थलग पड़ जाने का खतरा है।
इस बात में कोई शक नहीं है कि दक्षिणपंथी कट्टरवादी ताकतों के उन्माद के खिलाफ न तो कोई ताकत संगठित है, न ही कोई आंदोलन खड़ा हो पा रहा है। ऐसे में तरक्कीपसंद सेकुलर जमात में एक अजीब किस्म की बेचैनी है। कोई दूसरा रास्ता न देख लोग खुद ही पहल करने के लिए बेताब हैं। नास्तिक सम्मेलन को इसी के एक नतीजे के तौर पर देखा जा सकता है।