उत्तर प्रदेश : चुनाव नहीं महाभारत का संग्राम, जहां शकुनि की चालें कृष्ण की कूटनीति सब होंगी
उत्तर प्रदेश : चुनाव नहीं महाभारत का संग्राम, जहां शकुनि की चालें कृष्ण की कूटनीति सब होंगी
उत्तर प्रदेश : चुनाव नहीं महाभारत का संग्राम, जहां शकुनि की चालें कृष्ण की कूटनीति सब होंगी
कूटनीतिक चालें और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव
वीरेन्द्र जैन
वैसे तो हमारे ढीले ढाले लोकतंत्र में किसी को भी सहज रूप से राजनीतिक पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का अधिकार है और कई ‘धरती पकड़’ पार्षद से लेकर राष्ट्रपति पद तक का फार्म भर के इस ढीले ढाले पन का उपहास करते रहते हैं पर उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में चार प्रमुख दलों के बीच टक्कर मानी जा रही है।
रोचक यह है कि ये चारों दल राजनीतिक दल के नाम पर चुनावी दल हैं और सामाजिक राजनीतिक आन्दोलनों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है, भले ही इनका ‘शुभ नाम’ कुछ भी हो।
ये चारों दल पिछली परम्परा के अनुसार अपना-अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करेंगे जिसका उनके कार्यक्रमों से कोई सम्बन्ध नहीं होगा क्योंकि ये दल कोई राजनीतिक कार्य करते ही नहीं हैं, एक से दूसरे चुनाव के बीच जो कुछ भी करते हैं वह चुनावी सम्भावनाओं से जुड़ा होता है।
उक्त चार दलों में से तीन दल राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल हैं, और एक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दल है।
विडम्बना यह है कि इनमें से भी केवल एक दल ही राष्ट्रव्यापी दल कहा जा सकता है और यही दल सबसे कमजोर स्थिति में है।
दूसरा दल पश्चिम मध्य भारत का दल है जो केन्द्र में सत्तारूढ़ है व उद्योग व्यापार वालों की पसन्द का दल होते हुए भरपूर संसाधन जुटा लेता है जिसके सहारे वह साम्प्रदायिक संगठनों को बनाये रखता है।
ये संगठन चुनावों के दौरान ऐसा ध्रुवीकरण करते हैं कि उसे चुनावी लाभ मिल जाता है। इस दल की पहचान भले ही एक साम्प्रदायिक दल की है किंतु इसकी साम्प्रदायिकता की प्रमुख दिशा चुनाव केन्द्रित ही रहती है व शेष समय में इसके साम्प्रदायिक संगठन ध्रुवीकरण हेतु भूमि विस्फोटक <लेंड माइंस> बिछाने में लगे रहते हैं।
तीसरा राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल एक जातिवादी दल है जो आरक्षण के आधार पर लाभान्वित वर्ग में पैदा की गयी जातीय चेतना के भरोसे उनके सहयोग से चलता है।
ये वह वर्ग है जिसने सरकारी नौकरियों में आकर पाया कि सवर्णों में उनके प्रति अभी भी नफरत बनी हुयी है और वे उन्हें मुख्यधारा में स्वीकार नहीं करते। स्थानीय निकायों के चुनावों और पंचायती व्यवस्था के चुनावों से लेकर सशक्तीकरण योजनाओं में भी इन्हें आरक्षण का लाभ मिला है, जिस पर वे लगातार खतरा महसूस करते रहते हैं व इस भय के कारण एकजुट हो गये हैं।
यह दल आंकड़ागत रूप से भले ही राष्ट्रीय दल की मान्यता पा गया हो, किंतु चुनावी दृष्टि से मूल रूप से यह उत्तरप्रदेश तक सीमित क्षेत्रीय दल ही है क्योंकि अभी तक और कहीं भी यह स्वतंत्र सरकार बना पाने में सफल नहीं हुआ है।
यह दल अपने चुनावी खर्चों के लिए सवर्णों के उम्मीदवारों से सौदा करके भी संसाधन जुटाता है। इसका अपना एक सुनिश्चित वोट बैंक बन गया है जिसमें अगर कोई दूसरा वर्ग सहयोग कर देता है तो इनकी जीत की स्थितियां बन जाती हैं व न मिलने पर वे ठीक प्रतिशत में अपने वोट पाकर भी हार जाते हैं। गत लोकसभा चुनाव में चार प्रतिशत वोट पाकर भी वे एक भी सीट नहीं जीत सके। कहा गया था कि ‘हाथी’ ने अंडा दिया है।
चौथी पार्टी राज्य स्तर की अधिमान्य पार्टी है और वर्तमान में वही सत्तारूढ़ है, अपने नाम में जुड़े समाजवाद शब्द से उनका अब कोई सम्बन्ध नहीं है।
यह पार्टी पिछड़े वर्गों की एक जाति के वोटों तक सीमित पार्टी है और इसे भी किसी अन्य के समर्थन की जरूरत बनी रहती है।
2007 और 2012 के परिणाम बताते हैं कि समर्थन मिल जाने पर वे सरकार बना लेते हैं, और न मिले तो हार जाते हैं।
इनका जातिगत समर्थन सरकार द्वारा देय सत्ता के लाभों के पक्षपात पूर्ण वितरण से बना है। पुलिस की सहायता से वे आपराधिक भावना वाले अफसरों, व्यापारियों से धन की वसूली भी करते रहते हैं। सरकारी ठेके और खदानों के अपने लोगों के बीच आवंटन से वे बहुत अर्थसम्पन्न हो चुके हैं और पहली बार मिले इस स्वाद को बनाये रखने हेतु एकजुट रहना चाहते हैं।
इस प्रदेश में समुचित संख्या में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं जो संघ परिवार के सच्चे- झूठे आतंक से ग्रस्त होने के कारण भाजपा को हराना अपना प्रमुख ध्येय मान कर वोटिंग करते हैं और जो दल इस स्थिति में नजर आता है उसे अपना एकजुट समर्थन देकर जीतने में सहायता करते हैं। कभी काँग्रेस तो कभी समाजवादी और कभी बसपा उनके योगदान से लाभान्वित होते रहे हैं।
ये चारों ही प्रमुख दल सत्ता की शक्ति और सम्पत्ति हथियाने के लिए लालायित नेताओं से भरे हुये हैं जो अपना लक्ष्य पाने के लिए किसी भी दल में सुविधानुसार आते जाते रह्ते हैं और भविष्य में भी ऐसा आवागमन कर सकते हैं।
हाल ही में इनमें से हर दल में दूसरे दल में रह चुके नेता सहज रूप से आ चुके हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है।
ये सभी कभी न कभी सत्तारूढ़ रह चुके हैं और भरपूर अवैध धन सम्पत्ति के सहारे चुनावों में धन के प्रवाह द्वारा वोटों में वृद्धि के लिए तैयार थे, किंतु बड़े नोटों पर लगे प्रतिबन्धों ने उनको रणनीतियों में परिवर्तन के लिए बाध्य कर दिया है।
इनमें से किसको कितना नुकसान हुआ है इसका आंकलन अभी शेष है किंतु केन्द्र की भाजपा सरकार ने इसे लागू किया है अतः अनुमान किया जा सकता है कि उसने पहले ही सावधानी पूर्वक उचित समय पर पांसे चले होंगे।
सच तो यह है कि यह कोई लोकतांत्रिक लड़ाई नहीं है अपितु सामंती युग का सत्ता संग्राम है जिसे नये हथियारों से लड़ा जाना है। इनमें षड़यंत्र, दुष्प्रचार, झूठ, धोखे, सिद्धांतहीनता, वंशवाद, दलबदल, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अवैध धन, बाहुबलियों के दबाव, आदि का प्रयोग होगा।
सबके पास अपने अपने मिसाइल हैं और अपने अपने कवच हैं।
सब एक दूसरे का प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग लेते देते रहे हैं और उसके लिए अभी भी तैयार हैं। चुनावों का विश्लेषण करते हुए कुछ लोग सैद्धांतिकता का छोंक लगाने की कोशिश करते हैं जो अंततः हास्यास्पद हो जाती है।
राजनैतिक चेतना सम्पन्न वोट इतनी कम संख्या में है कि वह चुनाव परिणामों पर प्रभाव नहीं डालता।
काँग्रेस किंकर्तव्यविमूढ होकर किराये के चुनावी प्रबन्धक के सहारे है, सपा और बसपा अपने जातिगत मतों के सहारे है व भाजपा दलबदल से लेकर दंगों और बेमेल गठबन्धनों तक कुछ भी कर सकती है।
यह चुनाव नहीं महाभारत का संग्राम है जहां युद्ध जीतने के लिए शकुनि की चालें व कृष्ण की कूटनीतियां सब काम करेंगी।
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