प्रो. भीम सिंह
भारतीय संविधान में तय किये गये सिद्धांत और नियमों का साऊथ और नॉर्थ ब्लाक, नई दिल्ली में बैठे लोगों ने विश्वासघात किया है। उत्तराखंड प्रकरण इस बात की जिंदा मिसाल है कि किस तरह संविधान के जनादेश और कानून के शासन का साऊथ ब्लाक ने इस इरादे से अपहरण कर लिया कि वहां कि चुनी हुई सरकार को खरीद-फरोख्त या साजिश के द्वारा गिराकर अपनी सरकार बनायी जा सके। कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को गिराने के लिए हो रही साजिश को कानूनी विशेषज्ञों को विश्लेषण करने की जरूरत है, जो इस पूरे प्रकरण में मोदी सरकार के कामकाज पर नजर रखे हुए है।
पहले उत्तराखंड विधानसभा में राजनीतिक दलों की पोजिशन पर नजर डालना जरूरी है। विधानसभा में 70 चुने हुए विधायक हैं, एक विधायक को राज्य में एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी के तरफ से मनोनीत किया जाता है। कुल 71 विधायक हैं, जिनमें कांग्रेस के 36 विधायक हैं। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस के पास जरूरी विधायक मौजूद थे और उसने पार्टी के दिग्गज और ईमानदार नेता श्री हरीश रावत के नेतृत्व में सरकार बनायी। भाजपा के आकाओं ने हिमालयी राज्य में आरएसएस के ठिकानों को बढ़ाने के लिए वहां की सरकार को गिराने की साजिश रची।
असम में चुनाव होने वाले हैं। मणिपुर मुश्किल दौर से गुजर रहा है और उत्तराखंड को केन्द्र की मोदी सरकार के कोप का सामना है। वहां 12 महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन भाजपा हरीश सरकार को गिराना चाहती है, ताकि अगले विधानसभा चुनाव मोदी सरकार के शासन में हों, जिसका कारण यहां बताने की जरूरत नहीं है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार किसी भी राज्य में राष्ट्रपति को राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि कहीं इसमें बाहरी आक्रमण या आंतरिक बाधा तो नहीं है और राज्य सरकार भारतीय संविधान के अनुसार सरकार चला सकती है या नहीं। अपनी संतुष्टि के बाद ही राष्ट्रपति वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर सकते हैं। राज्यपाल ने कांग्रेस/हरीश रावत को विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए 28 मार्च की तिथि तय कर दी थी। उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इस तिथि को स्थगित करने को सही नहीं ठहरा सकती। उच्च न्यायालय के इस निर्णय से उत्तराखंड प्रभावित होगा। राष्ट्रपति को इस निर्णय को खारिज कर देना चाहिए था और विधानसभा सत्र को राज्य के राज्यपाल के आदेश के अनुसार काम करने देना चाहिए।
भाजपा ने राज्य में मोदी नीति को लागू करने के लिए राज्य की कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष सरकार के 9 विधायकों को इस नीयत से खरीदा कि वे इस राज्य में जहां पांडवों ने लगभग 5000 वर्षों तक शासन किया है, सत्ता में आ जाय। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में लीडरशिप ने पहली गलती यह की कि उसने पार्टी दलबदल कानून की घोर उल्लंघन की है। बनावटी कानून की बुनियाद पर आप 9 विधायकों को नई जिंदगी नहीं दे सकते। यह विभाजन नहीं है, क्योंकि इसके लिए एक-तिहाई विधायकों की जरूरत होती है। इन नौ विधायकों को किसी नियम या कानून के अन्तर्गत ठीक नहीं ठहराया जा सकता। विधानसभा के स्पीकर श्री गोविंद सिंह कुंजवाल को दलबदल कानून (जो जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होता) के तहत इसकी पूरी शक्ति प्राप्त है कि वे सत्ताधारी पार्टी को विश्वासमत हासिल करने का आदेश दें और अयोग्य विधायकों को विधानसभा से निकाल दें। स्पीकर के इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, लेकिन उच्च न्यायालय के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह निकाले गये नौ विधायकों के दर्जे को बहाल कर सके। संवैधानिक जनादेश के अनुसार विधानसभा की इस समय पोजिशन इस तरह है। 71 विधायकों में से 9 को निकाल दिया जाय तो बचते हैं 62, उन्हें आधा किया जाय तो मुख्यमंत्री को चाहिए 31 (62/2 - 1 + 32)। राज्यपाल ने उन्हें विश्वासमत हासिल करने के लिए 28 मार्च, 2016 तिथि दी थी ताकि यह साबित कर सकें कि उन्हें बहुमत हासिल है या नहीं। एक विधायक श्री रसैल वैलंटाइन गार्टनर को एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी ने मनोनीत किया है, जिन्हें संसद के नियम के तहत वोट देने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इसलिए श्री हरीश रावत को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए 31 विधायकों की आवश्यकता है। श्री हरीश रावत के पास 27 विधायक हैं, जबकि छोटी पार्टियों के छः विधायकों का उन्हें समर्थन हासिल है, जिससे 1 अप्रैल, 2016 को उनके विधायकों की संख्या 33 हो जाती है। विधानसभा स्पीकर को इसका अधिकार प्राप्त है कि वे मामले को विधानसभा में कानून के अनुसार हल कर सकते हैं। यही कानून है।
28 मार्च को विधानसभा को भंग करने का कोई कानूनी तर्क नहीं था और यह गैरकानूनी तरीके और बदनियती से किया गया था। इससे उत्तराखंड उच्च न्यायालय की खंडपीठ पर न सिर्फ सवालिया निशान लग जाता है, बल्कि यह संविधान के दायरे में भी स्वीकार्य नहीं है। उच्च न्यायालय को बहुमत साबित करने के दिन को 28 मार्च से एक सप्ताह के बाद के लिए स्थगित करने का कोई कानूनी शक्ति प्राप्त नहीं है। उच्च न्यायालय का आदेश प्राकृतिक न्याय, कानून का शासन और न्यायिक मानकों की विश्वसनीयता की अवहेलना है।
कांग्रेस के नेताओं के पास पहला विकल्प यह था कि वे उच्च न्यायालय जायं, जो देहरादून से दूर है और नैनीताल के मुश्किल इलाके में है या फिर दूसरा विकल्प यह था कि वे कानूनी विशेषज्ञ श्री के. वेनुगोपाल या श्री राम जेठमलानी से सलाह ले सकते थे।
कांग्रेस के कानूनी सलाहकार वर्तमान स्थिति को समझने में नाकाम रहे, जिस पर केन्द्र सरकार के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नजर रखे हुए हैं। अधिवक्ता श्री एम.एल. शर्मा द्वारा दायर की गयी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट अगले सप्ताह सुनवाई कर सकती है और वह उस समय उत्तराखंड के सम्बंध में अदालत से राष्ट्रपति की घोषणा पर सवाल करेंगे।
कानून का अहम बिंदु यह है कि श्री हरीश रावत को बहुत साबित करने का एक अवसर देने के लिए विधानसभा सत्र बुलाया जाय। 11 मार्च, 1994 को सुप्रीम कोर्ट के एस.आर. बोमई के फैसले का उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि राज्यपाल की ओर से 28 मार्च को बहुमत साबित करने के दिये गए अवसर को खारिज कर दिया। यह कानून के साथ मजाक और भारतीय संविधान के जनादेश के साथ धोखा है। क्या प्रधानमंत्री मोदी उत्तराखंड की वर्तमान स्थिति के मामले में अपना बचाव कर सकते हैं?
भीमसिंह
(वरिष्ठ अधिवक्ता, मुख्य संरक्षक, नेशनल पैंथर्स पार्टी)