हिमालय के हत्यारों को कठघरे में खड़ा कीजिये राष्ट्रीय आपदा की रस्म अदायगी से पहले!
आपदाओं के असर को जितना ज्यादा लम्बा खींचा जाये, उतना ही राजनीतिक आर्थिक फायदा होता है सत्तावर्ग का

पलाश विश्वास

लाशों की गिनती अभी शुरु हुयी है, जो कभी पूरी होती भी नहीं है। आधे-अधूरे राहत और बचाव अभियान की तरह हर बार लाशों की गिनती अधूरी रह जाती है। अब लाशों के ढेर पर बैठकर हुक्मरान राष्ट्रीय आपदा की रस्म निभायेंगे। आँसू और सहानुभूति की आँधी में हिमालय के हत्यारे इस बार भी बच निकलेंगे जैसे वे हमेशा मृत्यु उत्सव के आयोजन के बाद बच निकलते हैं। हिमालय और दक्षिण एशिया के जीवन मरण के प्रश्न पर्यावरण का मुद्दा सियासत के शोर में एक बार फिर हाशिये पर जा रहा है। इस राष्ट्रीय आपदा के लिये जो राजकाज और जो कारपोरेट नीति निर्धारण जिम्मेदार है, उसे बदले बिना ऐसी आपदाओं का सिलसिला कभी बन्द होने वाला नहीं है।

यह सही है कि हिमालय में इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरी है बचाव और राहत अभियान की। कम से कम जो लोग जिन्दा हैं, उन्हें सही सलामत घर तक पहुँचाने की। लेकिन उससे कम जरूरी नहीं है जो इस मानव निर्मित आपराधिक हादसे के जिम्मेवार हैं, उन्हें कठघरे में खड़ा करने और सजा देने की। वरना फिर राष्ट्रीय आपदा आयेगी और व्यापक स्तर पर आयेगी।

1970 की अलकनंदा की बाढ़, 1978 का तवाघाट भूस्खलन, 1978 की भागीरथी बाढ़ और 1991 की उत्तरकाशी भूकम्प और बाढ़, भूस्खलन व भूकम्प के पूरे सिलसिले के मद्देनजर यह आपदा सर्वनाश का बड़ा अशनिसंकेत है जिसने हिमाचल और उत्तराखंड से लेकर भारत और नेपाल की सीमाओं को तोड़ दिया है। अगली आपदा राष्ट्रीय नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय आपदा भी हो सकती है।

अव्वल तो आपदा और राष्ट्रीय आपदा के हालात ही नहीं बनने चाहियें, यह कार्यभार राष्ट्र का है। फिर भी प्राकृतिक विपर्यय जैसी आपदा की स्थिति में आपदा प्रबन्धन का चाकचौबन्द बंदोबस्त होना चाहिये ताकि जानमाल का कम से कम नुकसान हो। चुस्त होना चाहिये बचाव और राहत अभियान।

यह सबक कम से कम पूरे राष्ट्र को स्पर्श करने और असहाय बना देने वाले इस हादसे के बाद धर्मोन्मादी राष्ट्रवादियों को समझ में आ जानी चाहिये कि कोई राष्ट्र बड़ी अपराजेय सैन्य शक्ति बनने से ही महाशक्ति नहीं बन जाता। अपने नागरिकों की जान माल और हक-हकूक को सुरक्षित कर पाने से ही कोई राष्ट्र महाशक्ति बनता है। एक अमेरिकी नागरिक के संकट पर जिस तरह अमेरिका दुनिया के किसी भी कोने में अपनी पूरी सैन्य शक्ति और अपने सारे संसाधन झोंक देता है, उसकी तुलना में लाखों करोड़ों लोगों के विपर्यस्त हो जाने की हालत में अपनी सरकारों के रवैये को देखते हुये भी आप महाशक्ति बनने का ख्वाब बुनते हैं, तो बलिहारी आपकी आस्था की!

उत्तराखंड में फिर भारी वर्षा की आशंका है। अड़तालीस घंटे में करीब एक लाख लोगों को प्रभवित इलाकों से निकालना है और फिर होने वाली आपदाओं से लाखों लोगों को बचाने का प्रबन्धन किया जाना है। लेकिन सौ से कम हेलीकॉप्टर लगाये गये हैं। भारतीय सेना और वायुसेना के पास क्या इतने ही हेलीकॉप्टर हैं? कारपोरेट और राजनीतिक हस्तियों की सेवा में ही तो इससे कई गुणा ज्यादा होंगे। सेना को बुलाने में देरी और पर्याप्त कुमुक न मिलने से जिस गति से बचाव हो रहा है, उससे तो फिर भारी वर्षा होने से हालात एकदम नियन्त्रण से बाहर हो जायेंगे। जाहिर है कि लोगों को बचाने की कवायद में सरकारों की दिलचस्पी ज्यादा है, सारी राजनीति इसी को लेकर है। हम तो शुरु से कहते रहे हैं कि आपदाएं प्राकृतिक नहीं है, मानव निर्मित हैं और सरकारें इन आपदाओं के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। आपदाओं के असर को जितना ज्यादा लम्बा खींचा जाये, उतना ही राजनीतिक आर्थिक फायदा होता है सत्तावर्ग का। आपदाओं को बेअसर करने से किसी का हित नहीं सधता।

डीएसबी कालेज में हमारे प्रिय अर्थशास्त्री दिवंगत चंद्रेश शास्त्री आपदाओं के अर्थशास्त्र पर खूब चर्चा करते थे तो उससे भी पहले 1973 से लेकर 1975 में राजकीय इंटर कालेज नैनीताल में हमारे अध्यापक सुरेश चंद्र सती उत्तराखंड के पर्यावरण केन्द्रित अर्थशास्त्र हमें पढ़ाया करते थे। दोनों का मत था कि बिना पर्यावरण संरक्षण के आर्थिक व्याकरण कॉरपोरेट हित में भी नहीं होता। तब खुला बाजार खुला नहीं था। डीएसबी में ही हमारे अंग्रेजी के अध्यापक दिवंगत फ्रेडरिक स्मेटचिक पहाड़ों, रेगिस्तान, अरण्यों और नदियों के देश में पर्यावरण के मद्देनजर आपदा प्रबन्धन की सबसे ज्यादा बाते करते थे। उनके कहने का तात्पर्य हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से पहले वहाँ आये समुद्री तूफान से निपटने में सत्ता और प्रतिपक्ष की तत्परता से समझ में आया। जबकि समुद्रतटवर्ती इलाकों को तूफान आने से खाली करा लिया गया। बिजली काट दी गयी। पूरा राष्ट्र चुनाव प्रचार और राजनीति को स्थगित करके नागरियों की सुरक्षा में लग गया। जापान में आये सुनामी में परमाणु बिजली घरों में व्यापक रेडियेसन से निपटने का मामला भी हालिया है। दोनों मामले में जान माल की क्षति नगण्य रही है।

हमारे यहाँ फर्क यह है कि कॉरपोरेट हितों के लिये राष्ट्र नरसंहार के लिये सेना को झोंक देती है, लेकिन आपदा प्रबन्धन में उसकी जो दक्षता है, उसका इस्तेमाल का फैसला करते हुये इतनी देरी हो जाती है, कि स्थितियाँ नियन्त्रण से बाहर चली जाती हैं। आपदा की पूर्व चेतावनी के लिये इतने उपग्रह छोड़े गये हैं, लेकिन मौसम चेतावनियों के मद्देनजर आपदाओं से ठीक पहले प्रभावित होने वाले इलाकों को खाली करा लेने की नजीर अभी बनी नहीं है। उत्तराखंड में तो मौसम चेतावनी की सिरे से उपेक्षा करते हुये आपदा के स्पष्ट पूर्वाभास के बावजूद बद्री केदार यात्रा स्थगित न करके सरकार ने ही इतनी बड़ी संख्या में लोगों की बलि चढ़ा दी। उत्तराखण्ड राज्य सरकार यदि मौसम विभाग द्वारा आपदा के एक सप्ताह पूर्व जारी भारी वर्षा की सूचना का संज्ञान लेकर यात्रा को कुछ समय के लिये यात्रा को स्थगित कर देती तो देवताओं के दर्शन को आये हजारों लोग दैवीय आपदा का शिकार बनने से बच जाते लेकिन सरकार अपनी राजनीतिक उठापटक में इतनी मशगूल थी कि मौसम विभाग की भारी वर्षा की चेतावनी की रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दिया और उसका खामियाजा तीर्थाटन को राज्य में आये देश भर के लोगों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

प्रत्येक राज्य में केन्द्र सरकार द्वारा मौसम विभाग की स्थापना की गयी है इस विभाग द्वारा जारी की जाने वाले मौसम सम्बन्धी पूर्वानुमान जारी किये जाते हैं और यह अपेक्षा की जाती है कि राज्य सरकार व उनके अंग इस सूचनाओं का गम्भीरता से संज्ञान लेंगी, लेकिन राज्य सरकार व उनके अधिकारी इस तरह की सूचनाओं को रद्दी की टोकरी में डालने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं और इस तरह की लापरवाहियों का खामियाजा प्रदेश की भोली भाली जनता को अपनी जान देकर उठाना पड़ता है।

फैज ने सही लिखा हैः-

कहीं नहीं है, कहीं नहीं है लहू का सुराग!

...कहीं भी नहीं लहू का सुराग, न कातिल हाथ के नाखूनों में

न आस्तीनों पै कोई निशान, न सुर्खी है खून पिये कमीने होठों पै

न रंग है भालों की नोकों पै, न खाक पर कोई धब्बा,

न छज्जे पर कोई दाग

कहीं नहीं है कहीं भी नहीं

लहू का सुराग

न खर्च हुआ

बादशाह की खिदमत में खून

कि मुआवजा देते

न मैदाने जंग में बरपा

कि सनद रह पाती कि

झंडे पै लिखा जाता

पुकारता रहा बेआसरा यतीम लहू

किसी के पास न सुनने का वक्त था

न दिमाग

न मुद्दई न शहादत, हिसाब पाक हुआ

ये खून खाक के लिये था,

खाक को खुराक हुआ