सतह से उठती हुई कांग्रेस
अंबरीश कुमार
सत्रह जुलाई की भीगी दोपहर लखनऊ के अमौसी हवाई अड्डे से जब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर और पार्टी की ओर घोषित मुख्यमंत्री पद की दावेदार शीला दीक्षित बाहर निकले तो उन्हें अंदाजा भी नहीं होगा कि उनके स्वागत के लिए इतने कार्यकर्ता जुटे होंगे।
लंबे अरसे बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं में ऐसा उत्साह और नेताओं में इस प्रकार की एकजुटता नजर आयी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने लखनऊ की हर मुख्य सड़क को राज बब्बर और शीला दीक्षित के स्वागत वाले होर्डिंग और पोस्टर से पाट दिया था। केवल विक्रमादित्य मार्ग ही अपवाद बचा था जहां सपा का प्रदेश मुख्यालय और मुलायम सिंह यादव का सरकारी आवास है। इस सड़क पर समाजवादियों का कब्जा रहता है। मुख्यालय के सामने कई दुकाने हैं जिन पर गांधी, लोहिया और जयप्रकाश के अलावा नये पुराने समाजवादियों के फोटो-पोस्टर और सपा का झंडा आदि बिकते नजर आते हैं। कांग्रेसियों ने भी परंपरा का उल्लंघन नहीं किया लेकिन उन्होंने कोई और सड़क या चौराहा ऐसा नहीं छोड़ा जहां राज बब्बर नजर न आ रहे हों।
हालत यह है कि शहर में कई जगह मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की तस्वीर वाली होर्डिंग पर भी राज बब्बर की तस्वीर चस्पा है।

कांग्रेसियों के स्वागत जुलूस ने शहर में कई जगह जाम की स्थिति निर्मित कर दी। वहीं कार्यकर्ताओं की भीड़ के चलते मंच तक टूट गया। शीला दीक्षित, राज बब्बर, मोहसिना किदवई, जितिन प्रसाद से लेकर संजय सिंह तक सभी नेता साथ नजर आये।

राज बब्बर ने कार्यकर्ताओं से कहा कि अब न परिवार चलेगा न तड़ीपार रहेगा।
जाहिर है वह तड़ीपार कहकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर सीधा निशाना साध रहे थे। उन्होंने सपा को भी निशाने पर लिया लेकिन सम्मान के साथ। आखिर वह खुद सपा से निकले हैं।
प्रधानमंत्री मोदी भी उनके हमले से नहीं बचे।
कुल मिलाकर यह साफ हो गया कि कांग्रेस उप्र में आक्रामक राजनीति करने वाली है और वह तीसरे-चौथे नंबर की लड़ाई से निकलने का प्रयास करेगी। वैसे भी उसके पास खोने को कुछ नहीं है। वह जो भी पायेगी वह उसका राजनीतिक लाभ ही माना जायेगा। परंतु इस बीच पार्टी कार्यकर्ताओं में जो उत्साह नजर आ रहा है वह विधानसभा चुनाव में पार्टी को लाभ दिला सकता है।
पिछले दिनों जैसे ही उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राज बब्बर का नाम घोषित हुआ, कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गयी। इसके बाद आलाकमान ने कई ऐसे फैसले लिए जिन्होंने कांग्रेस को लखनऊ के अखबारों की सुर्खियों में बनाये रखा।
प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस काफी समय बाद चर्चा में आयी है। बल्कि कहा जाये तो केवल चर्चा नहीं बल्कि पार्टी में नयी ऊर्जा भी नजर आ रही है।
राज बब्बर की राजनैतिक कर्मभूमि उत्तर प्रदेश ही है। इस बात ने कार्यकर्ताओं को संबल दिया है। उनकी राजनीतिक यात्रा दिलचस्प है जो उनकी नेतृत्त्व क्षमता को भी आसानी से उजागर करती है।

राज बब्बर छात्र जीवन में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़ गये थे।
वह आगरा की संघर्ष वाली छात्र राजनीति से निकले और आंदोलनों से राजनीति का ककहरा सीखा। इन बातों ने ही आगे चलकर उनको एक परिपक्व राजनेता में तब्दील किया।
सपा से संसद में पहुंचने वाले राज बब्बर उत्तर प्रदेश में दो बार ज्यादा चर्चा में आये। पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ अनिल अंबानी की दादरी परियोजना को लेकर शुरू हुए किसान आंदोलन के वक्त तो बाद में फिरोजाबाद से मुलायम सिंह की बड़ी बहू डिंपल यादव को हराने के चलते।

दादरी किसान आंदोलन से राज बब्बर को नयी राजनीतिक ऊंचाई मिली थी।
उन्होंने पूर्वांचल के फाजिल नगर (देवरिया) से दादरी (गाजियाबाद) तक सड़क मार्ग से यात्रा की थी। मुलायम सिंह यादव सत्ता में थे और अमर सिंह का स्थान उनके बाद आता था। अमर सिंह और राज बब्बर के बीच विवाद हुआ और राज को पार्टी से बाहर जाना पड़ा। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में वीपी सिंह और राज बब्बर ने किसान आंदोलन को लेकर मोर्चा खोल दिया। आंदोलन लंबा चला और लाठी गोली सब चली। राज बब्बर ने मुलायम सिंह पर सीधा हमला तो नहीं किया लेकिन समाजवादी सरकार को नहीं बख्शा।
देवरिया से शुरू हुई किसान यात्रा ने पूरे प्रदेश में जबरदस्त माहौल तैयार कर दिया। उस समय प्रदेश में राज बब्बर का दिया एक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था। 'जिस गाड़ी पर सपा का झंडा ,उस गाड़ी में बैठा गुंडा'। उस दौर में समाजवादी पार्टी अपने बाहुबलियों के चलते आये दिन चर्चा में रहती थी। ऐसे में राज बब्बर का सीधा हमला रंग लाने लगा। जनमोर्चा गठबंधन ने युवाओं और किसान नौजवानों को लामबंद किया। यह और बात है कि वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में इसका फायदा मायावती को मिला क्योंकि सपा को टक्कर देने की स्थिति में केवल बसपा ही थी। वीपी सिंह और राज बब्बर के जनमोर्चा के तीन ही उम्मीदवार जीते लेकिन सपा की पराजय का माहौल तैयार करने में इसने बहुत बड़ी भूमिका निभायी थी।

जनमोर्चा और किसान मंच के तत्कालीन उपाध्यक्ष विनोद सिंह के मुताबिक,

'जनमोर्चा और किसान मंच के किसान आंदोलन की उस दौर में बड़ी भूमिका थी। चुनाव में जनमोर्चा के केवल तीन उम्मीदवार भले जीत लेकिन तीन दर्जन सीटों पर हमें 20 हजार से अधिक वोट हासिल हुए थे।' इस चुनाव में समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी और मायावती सत्ता में आयी।

चुनाव से पहले जनमोर्चा और कांग्रेस के बीच भी तालमेल की संभावना तलाशी गयी थी। कांग्रेस से बातचीत की जिम्मेदारी राजबब्बर ने संभाली और वहीं से वह कांग्रेस आलाकमान के करीब आये। कांग्रेस ने राजबब्बर की राजनैतिक प्रतिभा तभी पहचान ली थी। बाद में राजबब्बर कांग्रेस में शामिल हो गये। उसके बाद से उन्होंने कई चुनावों में कांग्रेस के स्टार प्रचारक की भूमिका निभायी और पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता बन गये। यही वजह है कि लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद पार्टी ने उनको उत्तराखंड से राज्यसभा में भेजा और अब उन्हें उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की अहम भूमिका निभाने को दी गयी है। वह लखनऊ के मीडिया में काफी लोकप्रिय हैं इसका भी उनको लाभ मिल रहा है।
बहरहाल वे प्रदेश कांग्रेस में जान फूंकने की कवायद में लग गये हैं। यह काम आसान नहीं है लेकिन राज बब्बर को भरोसा है अपने आप पर और आम लोगों पर।

राज बब्बर ने कहा,

'एक ही परिवार का सरपंच भी है और मुख्यमंत्री भी। परिवारवाद से अब लोग मुक्त होना चाहते हैं तो तड़ीपार से भी मुक्त होना चाहते हैं।'

अमित शाह का नाम लिये बिना उन्होंने कहा कि यह बड़ी डील डौल का नेता उत्तर प्रदेश में घूम घूम कर डील कर रहा है। पर अब इसे लोग पहचान चुके हैं।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का हिंदू जनाधार मुख्य रूप से भाजपा और बसपा में बंट गया है। खासकर दलित अगर बसपा की तरफ गया तो अगड़ी जातियां भाजपा की तरफ चली गयी। अब अगर कांग्रेस मजबूत होती है तो इनमें से कुछ तो कांग्रेस की तरफ लौट सकती है। साफ़ है कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ा तो बसपा और भाजपा पर असर पड़ेगा। इसी वजह से बसपा की मायावती तक ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाये जाने पर तीखी प्रतिक्रिया की। यही स्थिति भाजपा की भी रही।
पर समाजवादी पार्टी भी कम सतर्क नहीं है। अयोध्या आंदोलन के बाद कांग्रेस का मुस्लिम जनाधार समाजवादी पार्टी की तरफ चला गया था। बाद में कल्याण सिंह ने जब सपा की लाल टोपी पहनी तो फिर मुसलमानों का एक हिस्सा कांग्रेस में लौटा। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में और कांग्रेस सपा बसपा के बराबर खड़ी हो गयी थी। अब वैसी स्थिति तो है नहीं फिर भी समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी का कहना है कि इन दगे हुये कारतूसों से कांग्रेस को कोई फायदा नहीं होने वाला है ।
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