उप्र में शुरू हुईं 2017 की तैयारियां
उप्र में शुरू हुईं 2017 की तैयारियां
केंद्र में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सरकार गठन के एक वर्ष पूर्ण हो चुका है। लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा का सम्पूर्ण चुनाव प्रचार गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ( वर्तमान प्रधानमंत्री ) की व्यक्तिगत छवि, बयानों और कार्यों पर आधारित था, उनके ही बलबूते पूरा चुनावी अभियान संचालित हुआ। लाल कृष्ण आडवाणी सरीखे दिग्गज भाजपा नेताओं को भी तमाम मुद्दों पर मन मसोस कर रहना पड़ा। रूठने - मनाने का दौर आता जाता रहा परन्तु नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह की जोड़ी ने किसी की भी परवाह न की।
राजनीति में आंकड़े और आकलन का भी अपना अलग व विशेष महत्त्व होता है। वरिष्ठ नौकरशाह से प्रधानमंत्री पद तक का सफ़र तय करने वाले मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार ने अपना दो कार्यकाल पूरा किया। आर्थिक सुधारों व विकास गति को बढ़ाने की योजना लागू करते करते, क्रियान्वित करते करते सत्ताधारी कांग्रेस जनों को यह भान न हुआ कि महंगाई कब कैसे सुरसा की भांति मुँह बाये जनमानस का सुख चैन लीलने लगी और इसका राजनैतिक नुकसान क्या होगा ? भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल उफान पर चढ़ा। सत्ताधारी कांग्रेस ने दमन की राह पकड़ी तो जनाक्रोश व्यापक हुआ और दूरदराज के ग्रामीण अंचलों तक भी कांग्रेस सरकार के दमनात्मक जनविरोधी भ्रष्टाचार पोषक रवैये छवि की चर्चा आम हुई। कांग्रेस सरकार के खिलाफ उपजे इस जनाक्रोश का आकलन भाजपा ने बखूबी किया। जनाक्रोश को हवा देने में कोई कोताही भाजपा ने नही बरती और यही कारण रहा कि भाजपा के चुनावी रणनीतिकार कांग्रेस पर हमलावर रहने की रणनीति पर काम किये और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में कांग्रेस पर तीखे हमले अनवरत होते रहे। यह सब जनता का विश्वास रूपी मत हासिल करने की चेष्टा योजना के तहत ही हुआ। थोड़ा और पीछे के वर्षों के राजनैतिक हालात चुनाव पर दृष्टि डालें तो उ प्र में जनता के मन को समझने में तनिक भी चूक न होगी।
उ प्र विधानसभा आम चुनाव 2012 के वक़्त पर दृष्टि डालते हैं। केंद्र में कांग्रेसनीत गठबंधन सरकार और उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार थी। बसपा प्रमुख मायावती की पकड़ कानून व्यवस्था और नौकरशाही पर बनी हुई थी। केंद्र सरकार पर भ्रष्टाचार के तीखे सवाल व आरोपों की बौछार होना जारी था और इसी भ्रष्टाचार की कालिख बसपा सरकार पर भी लगनी शुरू हो चुकी थी। तमाम विभागों के घोटाले कदाचरण उजागर हो रहे थे, जन्मदिन पर जबरन धन उगाही व नोटों की माला प्रकरण राजनैतिक सामाजिक माहौल को गर्माते रहते थे। उ प्र की राजधानी लखनऊ सहित अन्य जनपदों में जैसे ही तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पार्कों का निर्माण कार्य युद्ध स्तर पर शुरू कराया था विरोध के स्वर तेज हुए। उ प्र में भूमि अधिग्रहण विरोधी आन्दोलन भी खूब चला। बलात्कार, हत्या आदि आपराधिक घटनाओं में सत्ताधारी विधायकों - मंत्रियों की संलिप्तता ने बसपा सरकार के खिलाफ जनाक्रोश को हवा दी। यह वह दौर था जब उ प्र की जनता यह आकलन कर रही थी कि बसपा सरकार को हराने में कौन सा राजनैतिक दल - नेता सक्षम-योग्य है। वैचारिक प्रतिबद्धता को विस्मृत कर आम जनमानस सिर्फ और सिर्फ बसपा सरकार को हराना और उसके स्थान पर बेहतर सक्षम विकल्प की तलाश में था। आम धारणा बन चुकी थी कि बसपा को हर हाल में उ प्र की सत्ता से हटाना ही है। उप्र की सियासी रणभूमि पर भाजपा 2012 में ना तो कोई मुद्दा पकड़ सकी और ना ही कोई चेहरे को नेतृत्व के रूप में सामने ला सकी। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और सपा प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ही दो ऐसे नेता थे, जो उप्र के लोगों की दृष्टि में थे और जिनके बयान व कार्य पर लोगों की पैनी नजर थी। इस मौके पर एक कुशल रणनीतिकार की भूमिका निभाते हुए सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने योजनाबद्ध तरीके से सौम्य छवि के अखिलेश यादव को आगे किया तथा सपा के ग्रामीण जनाधार एवं युवा चेहरे के प्रति आकर्षण के नव मिश्रण का प्रथम लाभ सपा को यह हुआ कि प्रचार युद्ध में सपा को बढ़त मिली। क्रांति रथ यात्रा, साइकिल यात्रा और जनसभाओं में जनसमुदाय उमड़ने लगा। आक्रामक शैली में चुनाव प्रचार कर रहे राहुल गाँधी की सभाओं में भी भारी भीड़ जुट रही थी। यही नही भाजपा और बसपा की भी जनसभाओं में भीड़ किसी की तुलना में कम नही रहती थी। सभी दलों की जनसभाओं में उमड़ती भारी भीड़ की वजह से ही राजनैतिक विश्लेषक कोई ठोस आकलन सरकार गठन को लेकर नही कर पा रहे थे। चुनाव हुए और परिणाम स्वरूप सपा को भारी बहुमत हासिल हुआ, सपा के 224 विधायक विजयी हुए। सपा की यह ऐतिहासिक जीत देन थी — बसपा सरकार के खिलाफ उपजे जनाक्रोश की, सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव द्वारा संगठित किये गए कार्यकर्ताओं की तथा युवा चेहरे अखिलेश यादव के प्रति जाग्रत हो चुकी उम्मीदों की।
वर्ष 2012 के उप्र विधानसभा आम चुनावों के पश्चात् वर्ष 2014 के आम लोकसभा चुनाव हुआ। 2012 में 224 सीट पर विजय हासिल करने वाली सपा सिमट कर 5 सीटों पर आ गई, कांग्रेस 2 सीटों पर रही और बसपा का खाता भी नही खुल सका। सर्वाधिक राजनैतिक लाभ भाजपा को 71 सीटों पर और उसकी सहयोगी अपना दल को 2 सीटों पर जीत से हासिल हुआ। यह आकलन बेहद आवश्यक है कि आखिर 2012 और 2014 के चुनावों में सपा-भाजपा की सीटों के आंकड़ों में इतना अंतर क्यों ? 224 सीटों पर विजय हासिल करने वाली सपा सिर्फ 2 वर्ष के अन्तराल में हुए लोकसभा चुनाव में 5 सीटों पर किन कारणों से सिमट गई, इसका आकलन बेहद आवश्यक है। कारण कोई एक नही और ना ही कोई नया कारण है। आम जनमानस मानों डॉ लोहिया की बात कि - जिन्दा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती हैं, को व्यवहार में अनुपालित कर रहा है। कानून व्यवस्था, नौकरशाही का मनमाना रवैया, सपा विधायकों-मंत्रियों-पदाधिकारियों का मनबढ़ व्यवहार प्रमुख कारण रहे जिन्होंने अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व की सरकार के तमाम अच्छी योजनाओंं-कार्यों पर पानी फेर दिया। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव चेतावनी देते रहे परन्तु उनकी चेतावनी निष्प्रभावी ही रही। कांग्रेस की तत्कालीन केंद्र सरकार से आजिज उ प्र की जनता लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ मत देने का मन बना चुकी थी। उसे यकीन था कि बसपा-सपा को मत देने का मतलब है कि आंकड़ों की बाजीगरी में सौदेबाजी करने का कोई भी अवसर ये दोनों दल नही छोड़ेंगे। सपा मुखिया द्वारा तीसरा मोर्चा की बात व कवायत भी गैर कांग्रेसवाद पर नही टिकी थी और आम जनता का मन डॉ. लोहिया की सोच कांग्रेस हराओ-देश बचाओ पर आ टिका था। दशकों पूर्व डॉ लोहिया देश में व्याप्त बुराइयों का जनक पंडित नेहरू और कांग्रेस को मानते थे और 2014 के चुनावों के दौरान यह बात भारतीय जनमानस के मनो- मस्तिष्क में बैठ चुकी थी कि कांग्रेस ही देश की बदहाल स्थिति की जिम्मेदार है। कांग्रेस मुक्त भारत की बात को नरेन्द्र मोदी प्रमुखता से कहने लगे थे। भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी ने इस तथ्य का भली भांति आकलन कर लिया था। नरेन्द्र मोदी जनभावनाओंं को अपने भाषण के द्वारा निरंतर उभारते रहे, लोगों को उद्वेलित करते रहे। प्रचार युद्ध का कोई भी ऐसा तरीका नहीं था जिसको अपनाते हुए वे आगे न निकल गए हों। अपने संबोधन व भाव-भंगिमाओं से नरेन्द्र मोदी ने खुद को एक सशक्त नेतृत्वकर्ता के रूप में जनमानस के मध्य स्थापित करने में सफलता अर्जित की और इस सफलता के पीछे गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर अर्जित ख्याति ने एक अहम भूमिका निभाई।
अब पूरे एक वर्ष व्यतीत हो चुके हैं नरेन्द्र मोदी के प्रधान मंत्रित्व में केंद्र सरकार के गठन को। उप्र सरकार का भी कार्यकाल तीन वर्ष पूरा हो चुका है। उप्र में सत्ता में वापसी के लिए बसपा की व्याकुलता प्रदर्शित होने लगी है। कांग्रेस भी उ प्र में अपने पैर ज़माने के प्रयास में है। उ प्र में 73 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाली भाजपानीत गठबंधन के सांसदों ने अपने-अपने संसदीय इलाके में कौन से उल्लेखनीय कार्य किये हैं इसका ब्यौरा कोई भी भाजपा कार्यकर्ता, प्रचारक या समर्थक नही देता है। जिस प्रकार सम्पूर्ण लोकसभा चुनाव का प्रचार नरेन्द्र मोदी के नाम व काम पर चला ठीक उसी प्रकार अब सरकार के कार्य भी सिर्फ नरेन्द्र मोदी- प्रधानमंत्री के बयान, घोषणा व विदेश यात्रा से जोड़कर भाजपा के लोगों द्वारा उल्लेखित किये जा रहे हैं। विकास का नारा लगाने व राग अलापने वाले भाजपा नेताओंं- सांसदों एवं हिंदुत्व का शंखनाद करने वाले भाजपा नेताओंं-सांसदों के मध्य भी एक द्वन्द्व जारी है। कई सांसदों के व्यवहार के विषय में इलाकाई लोग कहते हैं कि हमारे सांसद का स्पष्ट कहना है कि जनता ने वोट मोदी के नाम पर दिया है, मुझे नहीं अब काम भी वही करेंगे। मोदी-मोदी का निरंतर जाप करते हुए खुद को पक्का भाजपाई साबित करने में जुटे कुछ समर्थक अपनी महिला सांसद को राजनैतिक दृष्टि से अपरिपक्व तथा अच्छी चाय बनाने वाली गृहणी तक सार्वजानिक रूप से कह-लिख देते हैं। कानपुर के डॉ. इमरान इदरीस लिखते हैं — कानपुर का दुर्भाग्य तो यह है कि सांसद मुरली मनोहर जोशी कब कानपुर आये और कब चले गए ये अगले दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित खबर के माध्यम से लोगों को पता चलता है। बाराबंकी की सांसद प्रियंका रावत अपने पिता को अपना प्रतिनिधि नियुक्त करने के प्रकरण में नरेन्द्र मोदी की नाराजगी भुगत चुकी हैं, बावजूद इसके बाराबंकी के एक युवा भाजपा नेता को फर्जी मुक़दमा दर्ज कराकर कारागार में निरुद्ध करा देना बाराबंकी सांसद प्रियंका रावत का चर्चित एवं उल्लेखनीय कार्य माना जाता है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह और वरिष्ठ काबिना मंत्री कलराज मिश्र भी अपने संसदीय इलाके में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं करा सके।
ऐसा भी नही है कि सभी भाजपा सांसद कार्य कराने में रूचि नही रखते । सरकार की कार्यशैली व आत्म मुग्धता ने जमीनी विकास कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला हुआ है। यूँ ही नही भाजपा सांसद भरत सिंह ने आवाज उठाई और अधिकांश सांसदों ने उनके सुर में सुर मिलाया। अब तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी केंद्र सरकार के कार्य प्रणाली को लेकर चिंतित है।
उ प्र की सियासी जमीन पर दृष्टि जमाये जनता किसी भी राजनैतिक दल की तनिक सी चूक पर उसको अर्श से फर्श पर ला पटकती है। पिछले कई चुनावों के परिणाम इस आकलन के गवाह हैं। 2012, 2014 के आम चुनावों के परिणाम फिर उपचुनावों के नतीजे प्रदेश-केंद्र दोनों सरकारों सहित राजनैतिक दलों की आँखों को खोलने के लिए उसको सत्ता पथ दिखाने के लिए पर्याप्त हैं बशर्ते दृष्टि बाधित न रखी जाये।
अरविन्द विद्रोही


