उफ्फ सरदार पटेल के ये पैरोकार
उफ्फ सरदार पटेल के ये पैरोकार
अशोक कुमार सिद्दार्थ
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी ग्राम से शुरू हुआ सशस्त्र आंदोलन देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या बन गया है। भारत सरकार कभी इन्हें सामाजिक-आर्थिक समस्या के रूप मे तो कभी कानून और आंतरिक सुरक्षा के लिए आतंकवाद से भी बड़े खतरे के रूप मे प्रचारित कर रही है। भारत का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग इनका नाम आते ही नाक-भौह सिकोड़ने लगता है, लेकिन कोई भी उनकी वास्तविक समस्या से परिचित नहीं होना चाहता। यहाँ तक कि भारत के माननीय गृह मंत्री भी अभी कुछ दिनों पहले पूर्ववर्ती सरकार की तरह ही जमीनी हकीकत को छोडकर सतही समाधान निकालने वाला तथाकथित बयान दे चुके हैं, शायद उनको यह नहीं पता है कि समस्या का यदि यही समाधान होता तो कब का नकसलवाद खत्म हो गया होता। सरकार की गलत नीतियों और दमनकारी व्यवस्था के चलते ये लगातार बढ़ता ही जा रहा है, जिसके प्रभाव में अधिकतर भारत का आदिवासी क्षेत्र है। जिसे देखकर इसे प्रजातन्त्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। शहरी मध्यम वर्ग और सरकारें सभी आदिवासियों को माओवादी एवं नक्सलवादी करार देने मे लगे हुये हैं, जबकि देखा जाए तो पूर्वोत्तर के आदिवासी और राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के मीणा और भील आदिवासी किसी भी रूप से नकसलवाद से सम्बद्ध नहीं हैं।
आज कल शहरों में विचार-विमर्श करने वाला मध्य-वर्ग वह है जो पिछ्ले दो दशक से ‘फकत सरकारी’ और ‘करोड़पति बनने के पाँच नियम वाली शिक्षा’ प्राप्त कर रहा है। जिसने जाना है कि ज़िम्मेदारी का अर्थ है कि दिन भर किसी भी तरह, इसमे रिश्वतख़ोरी और दलाली भी शामिल है- पैसा कमाया जाय और शाम को किसी माल या बार मे खर्च कर दिया जाय।
यह वर्ग बीस रुपये के रूमाल के बदले ढाई सौ रुपये और दस रुपये के बर्गर के बदले डेढ़ सौ रुपये बहुराष्ट्रीय कंपनियों को थमा देता है, जाहिर सी बात है कि इन्हें नक्सलवाद-माओवाद और आदिवासियों की असल समझ नहीं है।
सरकारें माओवादियों के छोटे से ‘मुक्त क्षेत्र’ और उनकी ‘समानान्तर सरकारों’ और वहाँ की थोड़ी सी आबादी को लेकर इतनी क्यों चिंतित है, जबकि विकास के लिए अभी नब्बे फीसदी जनता बाकी है। दिल्ली जैसे महानगरों मे झुग्गी-झोपड़ियों के लोग स्वच्छ पानी और सड़क के लिए तरस रहे हैं, इनका विकास क्यों नहीं किया जा रहा है ? मुक्त क्षेत्र तो पूरे देश में है, नेताओं और गुंडे-माफियाओं के इलाके भी मुक्त क्षेत्र ही हैं। वहाँ उनकी इजाजत के बगैर कुछ नहीं होता है और बहुत कुछ ऐसा हो भी रहा है जो असंवेधानिक ही नहीं, भयंकर अपराध की श्रेणी में आता है। इनके दरबार क्या समान्तर सरकार नहीं हैं ? और क्या यह सब लोकतंत्र के हित मे है ? माओवादियों,प्रकारांतर में आदिवासियों को आंतरिक चुनौती के रूप मे प्रचारित करने का एक मात्र कारण इनके इलाके के जंगल और उनमें छिपा हुआ अकूत खजाना है। सरकारें भारी मुनाफे के लिए इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर रही हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में टाटा, एस्सार, पोस्को और वेदान्ता से जुड़े विवाद और पुलिसिया अत्याचार इसी के उदाहरण हैं इन सबको ‘विकास’ के नाम पर उसी प्रकार अंजाम दिया जा रहा है जिस प्रकार भारत के कुछ तथाकथित ‘राष्ट्रवादी’ संगठनो द्वारा किया जा रहा है।
दूसरे स्तर पर यह संघर्षशील आदिवासी समाज को हमेशा के लिए असहाय बना देने की कोशिश है, क्योंकि लेवी वाले माओवादियों के बहाने पूरे आंदोलन को इस प्रकार बदनाम किया जा रहा है कि पूरे शहरी बुद्धिजीवी वर्ग का इनसे मोहभंग हो जाए और सरकार एवं पूँजीपतियों का काम आसान हो जाए। आदिवासी हमेशा से लेनिन और माओ को सिधु-कानू , बिरसा मुंडा और गुंडाधुर के रूप मे समझते रहे हैं। लेकिन बदली परिस्थितियों में अब नक्सलवादी ही माओवादी नजर आने लगे हैं सल्वा जुड़ूम मे फंसे आदिवासी अब उनके ही शत्रु हो गए हैं। आदिवासियों की भाषा और संस्क्रति उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। आदिवासियों की स्वायत्त सामाजिक व्यवस्था इनके अनुकूल नहीं थी तो इन लोगों ने उसे भी नष्ट कर दिया, आदिवासी जनताना सरकारों के सारे फैसले गैर– आदिवासी करते हैं। अगर सरकार आदिवासियों से बात भी करती है तो ये नेता आदिवासियों के हिट सर्वोपरि रखेंगे, इसमें थोड़ा संदेह है।
वर्तमान सरकार के शीर्ष नेतृत्व के नेता और अपने आपको सरदार पटेल के तथाकथित असल पैरोकार बताने वाले उन्हीं आदिवासियों के साथ आतंकवादियों जैसा व्यवहार करने वाला बयान दे चुके हैं जिनके बारे मे सरदार पटेल ने झारखंड के दौरे पर होने के दौरान सन 1949 में कही थी –
हम आदिवासियों से नहीं लड़ सकते। ये लोग आजादी की लड़ाई हम लोगों (1857) से भी पहले से लड़ रहे हैं। आदिवासी ही भारत के सच्चे राष्ट्रवादी हैं॰
पटेल के भक्तों के द्वारा ही गुजरात में 70 आदिवासी गावों को विस्थापित कर 2500 करोड़ के लागत की उनकी प्रतिमा बनाने की परियोजना पर काम चल रहा है, शायद यदि पटेल जिंदा होते तो वो इसका पुरज़ोर विरोध करते। बहरहाल, उन्होंने जैसे चाहा वैसे आने वाले इतिहास की व्याख्या कर दी और दुनिया उस ‘सरदार के सपनों के सौदागर’ को मोदीनामा मान ज़ोर-शोर से प्रचार कर रही है।


