उमर खालिद का मुकदमा और दिल्ली पुलिस की तफ्तीश
उमर खालिद का मुकदमा और दिल्ली पुलिस की तफ्तीश
Umar Khalid's case and Delhi Police investigation : Vijay Shankar Singh
दिल्ली दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका की आलोचना क्यों हो रही है ? : विजय शंकर सिंह
हाल के वर्षों में यदि किसी एक महानगर की पुलिस के पेशेवराना काम काज पर सवाल उठा है तो वह है दिल्ली पुलिस। हम लोग जब नौकरी में आये थे तो यह सुनते थे कि मुंबई पुलिस देश की सबसे पेशेवराना ढंग से काम करने वाली पुलिस है। पर बाद में दिल्ली पुलिस को राजधानी की पुलिस और सीधे भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आधीन होने के कारण और भी बेहतर बनाया गया। उसे जनशक्ति सहित अन्य आधुनिक संसाधन दिए गए। पर हाल ही में हुए दिल्ली दंगों में, दिल्ली पुलिस की भूमिका की बहुत अधिक आलोचना हुयी है। चाहे, दिल्ली दंगे में, कानून व्यवस्था और दंगा नियंत्रण करने का मामला हो, या दंगे से जुड़े अपराधों की विवेचना का, दोनों ही दायित्वों में, दिल्ली पुलिस की भूमिका सन्देह के घेरे में रही।
फरवरी 2020 के दिल्ली दंगे के दौरान, चाहे कानून व्यवस्था बनाये रखने का मामला हो, या दंगों से जुड़े मुकदमों की जांचों (investigation of cases related to riots) का, दिल्ली पुलिस, स्पष्ट रूप से एक राजनीतिक पक्ष की ओर झुकी दिखी और दंगा नियंत्रण के लिये, समान रूप से सभी दंगाइयों पर, बिना उनके धार्मिक आस्था से प्रभावित हुए, दिल्ली पुलिस द्वारा जो भी कार्यवाही की जानी चाहिए थी, उसे करने में पुलिस विफल रही। सत्तारूढ़ दल के उपद्रवी तत्वों पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी और उन्हें कहीं-कहीं संरक्षण भी दिया गया, जबकि जो लोग सत्तारूढ़ दल से नहीं जुड़े थे, उनपर ज्यादतियां की गयी और तरह तरह के मुकदमे लादे गए।
देश के एनएसए को दंगा नियंत्रित करने के लिए उतरना पड़ा
दंगा नियंत्रण का यह आलम था कि, देश का यह सम्भवतः पहला दंगा था, जिसे नियंत्रित करने और दंगा पीड़ितों से उनकी बात सुनने के लिये देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (National Security Advisor of the country) को दिल्ली की सड़कों और गलियों में उतरना पड़ा। सत्तारूढ़ दल के जिन नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए, उनके खिलाफ आज तक कोई कार्यवाही नहीं हुयी। पुलिस का सत्तारूढ़ दल के प्रति यह अनुराग, सत्तारूढ़ दल को तो ज़रूर कुछ लाभ पहुंचा दे, पर जनमानस में, पुलिस की जो विपरीत छवि इससे बनी है, उससे केवल पुलिस की ही हानि होगी।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद का मुकदमा | Jawaharlal Nehru University student Umar Khalid's case
दंगे भड़काने के आरोपों में, कई मुक़दमे दिल्ली पुलिस ने दर्ज किये और उसमें आरोपित लोगों को गिरफ्तार भी किया।
सभी मुकदमों के विस्तार में न जाकर सबसे चर्चित मुक़दमे का उल्लेख मैं यहां करता हूँ। यह मुक़दमा है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद का। उमर खालिद, वही छात्र नेता हैं जिनके ऊपर जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार, के साथ कैम्पस में कथित अलगाववादी नारे लगाने का आरोप है। वह मुक़दमा अभी चल रहा है और उस मुक़दमे में उमर खालिद जमानत पर हैं। पर यह मुक़दमा जिसका मैं उल्लेख करने जा रहा हूँ वह दिल्ली दंगे के भड़काने के आरोप से जुड़ा है। यह मुक़दमा एफआईआर संख्या, 59/2020 का है। उमर पर आरोप है कि उन्होंने एक भड़काऊ भाषण दिया था, जिससे दिल्ली में दंगे फैले। उमर खालिद को इसी मामले में गिरफ्तार कर के जेल में रखा गया है।
उमर ने इसी मामले में, अपने को जमानत पर छोड़े जाने का प्रार्थना पत्र सेशन्स जज के यहां दिया है। जिस पर कल 23 अगस्त को अदालत में बहस हुयी और उस बहस ने दिल्ली पुलिस के तफतीशी हुनर की कलई उतार कर रख दी। यूएपीए के तहत इन आरोपों से जुड़े एक बड़े षड्यंत्र के मामले में, जेएनयू के छात्र, उमर खालिद की जमानत अर्जी पर हुयी सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष की दलीलों के सामने अभियोजन पक्ष, कमज़ोर और साक्ष्य विहीन ही दिखा।
दिल्ली पुलिस की दिल्ली दंगों की विवेचना मामलों में क्या भूमिका रही है
यह एक दुःखद तथ्य है कि, दिल्ली दंगों की विवेचना के मामले में, दिल्ली पुलिस को लगभग हर मुकदमे में, अदालत की झाड़ सुननी पड़ रही है और एक बार तो उसपर ₹ 25,000/- का जुर्माना भी लग चुका है। दिल्ली पुलिस की इन मामलों में क्या भूमिका रही है, इस पर चर्चा करने के पहले, हम इस जमानत की रोचक अदालती कार्यवाही की चर्चा करते हैं।
अदालत में उमर खालिद की जमानत अर्जी पर 23 अगस्त को बहस चल रही थी। अभियोजन पक्ष के आरोपों का खंडन करते हुए, उमर खालिद के एडवोकेट, त्रिदीप पेस ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत के समक्ष तर्क दिया कि,
"दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज, एफआईआर संख्या 59/2020 में, विवेचना के बाद अदालत में दायर की गई पूरी चार्जशीट एक मनगढ़ंत कहानी है, और उनके मुवक्किल के खिलाफ दर्ज मामला और आरोप, एक वीडियो क्लिप पर आधारित है। यह वीडियो क्लिप, रिपब्लिक टीवी और न्यूज 18 द्वारा चलाए जा रहे उनके भाषण के कुछ अंशो का प्रसारण है। न्यूज चैनल रिपब्लिक टीवी और न्यूज 18 ने पिछले साल 17 फरवरी को अमरावती, महाराष्ट्र में उमर खालिद द्वारा दिए गए एक भाषण का छोटा संस्करण चलाया था। दिल्ली पुलिस के पास रिपब्लिक टीवी और सीएनएन-न्यूज18 के अलावा कुछ नहीं है।"
एडवोकेट त्रिदीप पेस ने आरोप लगाया कि,
"न्यूज18 ने अपने द्वारा प्रसारित वीडियो से खालिद द्वारा एकता और सद्भाव की आवश्यकता के बारे में दिए गए एक महत्वपूर्ण बयान को हटा दिया।"
जहां तक रिपब्लिक टीवी का संबंध है, पेस ने चैनल से प्राप्त एक उत्तर पत्र पढ़ा जिसमें कहा गया था कि,
"इसकी क्लिप भाजपा सदस्य अमित मालवीय द्वारा किए गए एक ट्वीट पर आधारित थी।"
पेस ने वीडियो फुटेज की एक प्रति के लिए सीआरपीसी की धारा 91 के तहत पुलिस द्वारा की गई मांग पर रिपब्लिक टीवी द्वारा दिए गए इस जवाब को अदालत में पढ़ा। रिपब्लिक टीवी के जवाब में कहा गया,
"यह फुटेज हमारे कैमरापर्सन ने रिकॉर्ड नहीं किया था। इसे श्री अमित मालवीय ने ट्वीट किया था।"
यह पत्रकारिता की मृत्यु है | This is the death of journalism
पेंस ने पत्रकारिता के आचरण पर एक गम्भीर टिप्पणी की और कहा,
"आप की सामग्री एक यूट्यूब वीडियो है, जिसे एक ट्वीट से कॉपी किया गया है। न्यूज 18 चैनल ने भाषण से वाक्यों को हटा दिया, इस प्रकार इसका अर्थ और संदर्भ बदल गया। इससे दुनिया में फर्क पड़ता है... गांधी जी पर आधारित एकता का संदेश उस दिन दिया गया था और इसे एक आतंक करार दिया गया था। रिपब्लिक टीवी ने उमर खालिद के भाषण का एक संपादित संस्करण दिखाया जिसे अमित मालवीय ने ट्वीट किया था। पत्रकार की वहां जाने की जिम्मेदारी भी नहीं थी। यह पत्रकारिता की नैतिकता नहीं है। यह पत्रकारिता की मृत्यु है। मेरे मुवक्किल को, प्रेस द्वारा फंसाया गया है। प्रेस ने, भाषण के अन्य हिस्सों को क्यों छोड़ दिया? इस तथ्य के अलावा कि (फरवरी) 17 को कुछ भी नहीं हुआ, आप (दिल्ली पुलिस) मार्च में इस भाषण का संज्ञान लेते हैं। 6 मार्च को जब आपने (पुलिस ने ) कहा कि उन्होंने भाषण दिया, तो आपके पास क्या था? आपके पास एक भाषण था जिसे एक ट्वीट से कॉपी किया गया था और वह कहानी जुलाई में आई थी जब आपने 18 लोगों को गिरफ्तार किया था। उमर खालिद अपने उस भाषण में लोकतांत्रिक सत्ता की बात कर रहे थे। उन्होंने हिंसा/हिंसक तरीकों का आह्वान नहीं किया।"
त्रिदीप पेस ने कोर्ट के लिए खालिद के भाषण की पूरी क्लिप भी चलाई।
अब बात पुलिस द्वारा दायर आरोपपत्र और अभियोजन की करते हैं। अभियोजन पक्ष के आरोपों के अनुसार, 'खालिद ने 8 जनवरी, 2020 को अन्य आरोपियों के साथ मिलकर राष्ट्रपति ट्रम्प की भारत यात्रा के दौरान दंगे भड़काने की साजिश रची थी।'
इस आरोप का खंडन करते हुए, बचाव पक्ष के वकील त्रिदीप पेस ने कहा, कि, 'ट्रम्प की यात्रा के बारे में समाचार की घोषणा विदेश मंत्रालय द्वारा 11 फरवरी, 2020 को ही की गई थी।' उन्होंने वेबसाइट, 'द क्विंट' द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा,
"जब विदेश मंत्रालय को ही यूएस राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की यात्रा का नहीं पता था, और उनका कार्यक्रम सार्वजनिक रूप से घोषित भी नहीं हुआ था, तब कैसे यह महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम उमर खालिद को पता चल गया ? यह एक शानदार सिद्धांत है ... वास्तविक पत्रकारिता के लिए धन्यवाद, सच्चाई सामने आई।"
एडवोकेट त्रिदीप पेस ने अंत में यह कहा कि,
"उमर खालिद और अन्य के खिलाफ दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी 59/2020 पूरी तरह से अनावश्यक थी और नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के विरोध के आधार पर चुनिंदा लोगों को लक्षित करने के लिए यह मसौदा तैयार किया गया था और बाद में मुकदमा दायर किया गया था। आपके ( पुलिस के ) पास 6 मार्च को मामला नहीं था। दंगों में सभी 750 प्राथमिकी अलग-अलग अपराध हैं। लेकिन मैं यह निवेदन कर रहा हूं कि जब वे प्राथमिकी दर्ज की गईं, तो अपराध थे। लेकिन इस प्राथमिकी में ऐसा कुछ नहीं था। यह इतने व्यापक तरीके से तैयार किया गया था ताकि आप लोगों को फंसाने के लिए बयान प्राप्त कर सकें।"
सभी बयानों को दिल्ली पुलिस का विचार बताते हुए पेस ने कहा कि,
"इस मामले में दायर आरोपपत्र पूरी तरह से मनगढ़ंत है। बयान बनाए जाते हैं जिनका भौतिक साक्ष्य से कोई संबंध नहीं है। इस प्राथमिकी में किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था और यह प्राथमिकी दर्ज नहीं की जानी चाहिए थी। अभियोजन पक्ष के पास अपने मामले का समर्थन करने के लिए शुरुआत से ही कोई सबूत या सामग्री नहीं थी। बयान और सबूत प्राथमिकी दर्ज करने और संज्ञेय अपराधों के घटने के कुछ दिनों बाद एकत्र किए गए थे। अभियोजन ने हास्यास्पद बयान दर्ज किए हैं। इससे अभियोजन पक्ष को क्या हासिल होगा? यह पाखंड है। इस प्राथमिकी में शामिल लोगों में से किसी को भी हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिए। जिस दिन आपने ( पुलिस ने ) मामला दर्ज किया, आपने कहा कि भाषण थे। बाद में आपने कहा कि एक गुप्त मुखबिर था। आज न तो आपके पास गुप्त मुखबिर है, न ही भाषण।"
त्रिदीप पेस ने यह भी दलील दी कि खालिद को हिरासत में रखने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि वह जांच में पूरा सहयोग कर रहा है।
पेंस ने कहा,
"इस मामले में पहली बार मुझसे ( उमर खालिद से ) 30 जुलाई को पूछताछ की गई है। मुझे बुलाया गया और मैं तुरंत उपस्थित हुआ। बिल्कुल देरी नहीं हुई ... मुझे पहुंचने के लिए गुवाहाटी से यात्रा करनी पड़ी लेकिन मैं पहुंच गया। इस प्राथमिकी में मेरी गिरफ्तारी भी थी। पेश होने के लिए नोटिस दिया। मुझे कहीं से नहीं उठाया गया।"
कोर्ट 3 सितंबर को सुनवाई जारी रखेगी। उमर खालिद के खिलाफ एफआईआर में यूएपीए की धारा 13/16/17/18, आर्म्स एक्ट की धारा 25 और 27 और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान की रोकथाम अधिनियम, 1984 की धारा 3 और 4 सहित अन्य आरोप हैं। आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत उल्लिखित विभिन्न अपराधों के तहत भी आरोप लगाए गए हैं। पिछले साल सितंबर में पिंजरा तोड़ के सदस्यों और जेएनयू के छात्रों देवांगना कलिता और नताशा नरवाल, जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा और छात्र कार्यकर्ता गुलफिशा फातिमा के खिलाफ मुख्य आरोप पत्र दायर किया गया था।
पुलिस के पास सुबूत के नाम पर रिपब्लिक टीवी और न्यूज़ 18 पर चलाये गए वीडियो की आधी अधूरी क्लिपिंग है। खबरें क्यों और किस मक़सद से दी जा रही हैं, यह न्यूज़ चैनल वाले जानें पर उक्त क्लिपिंग को यदि, उमर खालिद के खिलाफ सुबूत के रूप में अदालत में पुलिस द्वारा पेश किया जा रहा है तो, उन सुबूतों की गहराई से छानबीन करने का दायित्व पुलिस के विवेचक का है। पुलिस ने या तो पूरा भाषण सुना नहीं और यदि सुना भी तो, उसने वही अंश चुने जो न्यूज चैनलों ने दिखाया।
न्यूज़ चैनल जांच एजेंसी नहीं हैं और ब्रेकिंग न्यूज़ सिंड्रोम इतना गहरे पैठा हुआ है कि जो भी खबर हो उसे तुरंत फैलाओ। यह पत्रकारिता के बाज़ारवाद का दुष्परिणाम और बाध्यता है। पर पुलिस की ऐसी कोई बाध्यता नहीं। यदि कोई निहित राजनीतिक संकेत हो कि, ऐसा करना ही है तभी ऐसी बातें हो सकती हैं। कमाल की बात यह भी है कि यह डॉक्टर्ड वीडियो क्लिपिंग भी न्यूज़ चैनलों को भाजपा आईटी सेल के अमित मालवीय ने ही उपलब्ध कराया था। क्या पुलिस को अमित मालवीय से पूछताछ नहीं करनी चाहिए थी ?
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि, अदालत में दिल्ली दंगे को लेकर दिल्ली पुलिस को पहली बार ऐसी असहजता का सामना करना पड़ा है। इसकी भी क्रोनोलॉजी कम रोचक नही


