एक ऐसे समाज के बारे में क्या कहेंगे जहां लेखकों को बन्दूक की गोलियों से टकराना पड़ता है
एक ऐसे समाज के बारे में क्या कहेंगे जहां लेखकों को बन्दूक की गोलियों से टकराना पड़ता है

तर्क और विचारों से कौन डरता है ?
दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की शहादत के बहाने चन्द बातें
-1
आग मुसलसल जेहन में लगी होगी
यूं ही कोई आग में जला नहीं होगा
दोस्तों
कातिल के पिस्तौल से निकली ऐसी ही आग का शिकार हुई तीन अज़ीम शख्सियतों की याद में हम सभी लोग ‘कलम विचार मंच’ की पहल पर यहां जुटे हैं। विगत दो साल के अन्तराल में हम लोगों ने डॉ नरेन्द्र दाभोलकर, कामरेड गोविन्द पानसरे और प्रोफेसर कलबुर्गी को खोया है। गौरतलब है कि सिलसिला यहीं रूका नहीं है। कइयों को धमकियां मिली हैं। ऐसा समां बनाया जा रहा है कि कोई आवाज़ भी न उठाए, उनके फरमानों को चुपचाप कबूल करे। दक्षिण एशिया के महान शायर फैज़ अहमद फैज़ ने शायद ऐसे ही दौर को अपनी नज्म़ में बयां किया था। ‘निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन, के जहां ; चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले..’
और इसी माहौल के मद्देनज़र हम इसी अदद मसले पर आपस में गुफ्तगू करना चाह रहे हैं कि आखिर तर्क और विचार से इस कदर नफरत क्यों दिख रही है ? कौन हैं वो लोग, कौन हैं वो ताकतें जो विचारों से डरती हैं, तर्क करने से खौफ खाती हैं ? चन्द रोज लखनऊ की सड़कों पर उतर कर भी आप ने ऐसे हत्यारों के खिलाफ आवाज़ बुलन्द की थी। और एक तरह से समूचे देश के विभिन्न नगरों, कस्बों में जो इस मसले पर जो बेआरामी, बेचैनी देखने को मिली थी, उसके साथ अपनी आवाज़ जोड़ी थी। आज की यह चौपाल, आज की यह गोष्ठी दरअसल इसी सिलसिले की अगली कड़ी है। हम उन चिन्ताओं को आपस में साझा करना चाह रहे हैं ताकि यह जो माहौल बन रहा है, जो गतिरोध की स्थिति बनती दिख रही है उसमें थोड़ी हरकत पैदा की जा सके।
इसे दिलचस्प संयोग कहेंगे कि इस गोष्ठी का आयोजन बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के महान सामाजिक विद्रोही पेरियार रामस्वामी नायकर (17 सितम्बर 1879-24 दिसम्बर 1973) के 139 वें जन्मदिन के महज एक दिन बाद हो रहा है।
कल ही देश के तर्कशील समूहों, संगठनों ने, विचारों की अहमियत जाननेवाले तमाम लोगों ने उनका जन्मदिन मनाया, वही पेरियार जिन्होंने ताउम्र तार्किकता, आत्मसम्मान, महिला अधिकार और जातिउन्मूलन के सिद्धान्तों का प्रचार किया और आन्दोलन किए। मालूम हो कि तमिल लिपि में नए बदलावों के जनक पेरियार समाजवादी रूस की उपलब्धियों से भी प्रभावित थे और उन्होंने नास्तिकता एवं तर्कशीलता के प्रचार के लिए अभिनव मुहिमों का आयोजन किया था।
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सुनो ऐ नदियों के देवता
जो चीजें खड़ी रहती हैं वह गिर जाती हैं
जैसा माहौल बन रहा है कि उसे देखते हुए यही पूछने का मन करता है कि एक ऐसे समाज के बारे में क्या कहेंगे, जहां लेखकों को बन्दूक की गोलियों से टकराना पड़ता है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर पत्थर या बम बरसाये जाते हैं ? शायद ऐसा समाज जो अपनी ‘आध्यात्मिक मौत’ की तरफ बढ़ रहा है या ऐसा समाज जो अंधेरे की गर्त में अपना भविष्य देख रहा है।
दुनिया के सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाले भारत में दो साल के अन्दर तर्कशील विचारक, कार्यकर्ता की तीसरी मौत की घटना हमारे सामने ऐसे ही सवाल खड़े कर देती है। अगस्त 2013 में पुणे की सड़कों पर तर्कशील आन्दोलन के कार्यकर्ता एवं लेखक नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या, फरवरी 2015 में कोल्हापुर की सड़क पर अपनी पत्नी के साथ टहल कर लौट रहे कम्युनिस्ट आन्दोलन के अग्रणी नेता कामरेड पानसरे की हत्या और अब धारवाड़, कर्नाटक में अपने घर के अन्दर वामपंथी विचारक एवं कन्नड़ भाषा के प्रकांड विद्वान 77 वर्षीय कलबुर्गी की हत्या (30 अगस्त 2015) ऐसे ही सवालों से हमें रूबरू कराती है।
बीजापुर जिले के किसान परिवार में जनमे प्रोफेसर मल्लेशप्पा माडिवालप्पा कलबुर्गी (Professor Malleshappa Madivalappa Kalburgi) ने, जिन्होंने अपनी मेधा एवं लगन से कन्नड़ भाषा को समृद्ध किया, लिंगायत सम्प्रदाय पर मौलिक अनुसंधान किया जिसका बाईस जुबानों में अनुवाद हुआ, एक सौ तीन किताबें लिखीं, सैकड़ों लेख लिखें और अंधश्रद्धा एवं अतार्किकता के खिलाफ जिन्दगी भर आवाज़ बुलन्द करते रहे, उन्होंने यह सपने में नहीं सोचा होगा कि जिला धारवाड़ का उनका अपना घर ही उनके झंझावाती जीवन का आखरी मुक़ाम साबित होगा। ‘सर’ से मिलने के नाम पर अन्दर घुसा हमलावर – जिसके लिए उन्होंने खुद दरवाजा खोला था – वह उनका काल बन कर उपस्थित होगा। वह अपने घर के अन्दर एक अतिवादी की गोली का शिकार होंगे।
चाहे प्रोफेसर कलबुर्गी हों, कामरेड पानसरे हों या डॉ नरेन्द्र दाभोलकर हों, तीनों के झंझावाती जीवन में एक समानता यह रही है कि उन्हें साम्प्रदायिक ताकतों की तरफ से, जनद्रोही शक्तियों की तरफ से – ऐसे लोग जो लोगों के दिमागों पर ताले रखना चाहते हैं – लगातार धमकियां मिलती रहीं। मूर्तिपूजा की मुखालिफत करने के लिए कुछ समय पहले प्रोफेसर कलबुर्गी के घर पर हिन्दुत्ववादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने पथराव भी किया था। अतिवादियों के बढ़ते मनोबल के चलते उन्हें सुरक्षा भी प्रदान की गयी थी, मगर कुछ माह पहले उन्होंने उसे लौटा दिया था। उनका कहना था कि विचारों की रक्षा के लिए संगीनों एवं बायनेटों की जरूरत नहीं होती है। उनका दावा था कि उनके विचारों में इतना ताप है कि उनके न रहने के बाद भी उसकी लौ तमाम चिरागों को रौशन करती रहेगी।
गौरतलब है कि तीनों की हत्याओं का तरीका एक ही रहा है, मोटरसाइकिल पर सवार दो हमलावर और एक का गोली चलाना। भारत में पश्चिमी भाग में सक्रिय एक अतिवादी संगठन के कार्यकर्ताओं की तरफ – जो इसके पहले भी आतंकी घटनाओं में शामिल हो चुके हैं – सन्देह प्रगट किया जा रहा है, मगर अभी भी आधिकारिक तौर पर न दाभोलकर के हत्यारे पकड़े गए है और न ही पानसरे के कातिल गिरफ्त में आए हैं। फिलवक्त यह कहना मुश्किल है कि क्या प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या में भी यही सिलसिला दोहराया जाएगा ?
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या के विरोध में धारवाड़ ही नहीं कर्नाटक के तमाम हिस्सों में प्रदर्शन हुए हैं। बंगलुरू के टाउन हाल के सामने एकत्रित प्रदर्शनकारियों में कार्यकर्ताओं या आम जनों के अलावा कन्नड़ भाषा में तमाम अग्रणी हस्ताक्षर मौजूद थे। वहां एक प्रदर्शनकारी का बैनर सभी के आकर्षण का केन्द्र बना था ‘कल बसवन्ना और आज कलबुर्गी’।
गौरतलब है कि 12 वीं सदी के महान समाजसुधारक बसवन्ना – जो लिंगायत सम्प्रदाय के संस्थापक समझे जाते हैं – जिन्होंने तत्कालीन कन्नड़ समाज की कुप्रथाओं के खिलाफ जबरदस्त आवाज़ बुलन्द की, जातिप्रथा को शिकस्त देने की अपने ढंग से कोशिश की और जिन्हें अपने वक्त़ के रूढ़िवादी तत्वों से लगातार जूझना पड़ा, के दौर के साहित्य को लेकर प्रोफेसर कलबुर्गी ने मौलिक अनुसंधान किया था।
कलबुर्गी कई मायनों में बसवन्ना की तरह ही थे, जो समाज की अतार्किकता, बन्ददिमागी के खिलाफ खुल कर बोलते थे, लिखते थे, मूर्तिपूजा के प्रति लोगों के सम्मोहन की आलोचना करते थे, और शायद यही वजह थी कि लगातार रूढ़िवादी ताकतों के निशाने पर वह रहे थे। बसवण्णा के बारे में यह मशहूर है कि बारहवीं सदी में उन्होंने अनुभव मंडप, नाम से एक सार्वजनिक सभा का आयोजन करना शुरू किया जहां अपने जमाने में तमाम लोग एकत्रित होते थे और उनके सामने मौजूद आध्यात्मिक, आर्थिक और सामाजिक सवालों पर आपस में बहस मुबाहिसा करते थे।
बसवण्णा की रचनाओं में हम अक्सर ‘स्थावर’ और ‘जंगम’ के बीच अर्थात ‘क्या स्थिर है’ और ‘क्या सचल है’ इसके बीच निरन्तर विरोधाभास देखते हैं। उनके मुताबिक मंदिर, प्राचीन किताबें स्थिर की श्रेणी में शुमार होंगी जबकि काम, चर्चा ‘सचल’ में शुमार होगा। एक रचना में वह लिखते हैं
अमीर लोग/ शिव के लिए मंदिर बनाएंगे
मैं एक गरीब आदमी/ क्या करूंगा ?
मेरे पैर खम्भे हैं/ मेरा शरीर ही तीर्थ है
और सिर सोने का बर्तन है
सुनो ऐ नदियों के देवता
जो चीजें खड़ी रहती हैं वह गिर जाती हैं
मगर जो चीजें चलती हैं वह/ टिकी रही जाती हैं।
जिस तरह बसवण्णा अपने वक्त़ के उनके विरोधियों के हाथों मार दिए गए थे, वही हाल इक्कीसवीं सदी के उनके सबसे मशहूर शिष्य का हुआ है।
एक विद्वान लेखक से विचारों से निपटने के बजाय उनके विरोधियों ने बन्दूक की गोलियों से ही उनको समाप्त करना चाहा। शायद हमलावर भूल गए थे कि विचार कभी मरते नहीं हैं। 30 अगस्त के पहले अगर कलबुर्गी का नाम कर्नाटक तक सीमित था तो आज अपने मानवद्रोही हमलावरों को चुनौती देता हुआ यह नाम दक्षिण एशिया के इस हिस्से के उन बुद्धिजीवी कार्यकर्ताओं की कतार में शुमार हुआ है, जिन्होंने सुकरात की तरह विचारों की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दी।
‘अगर सत्ताधारी ताकतें गलत हों तो सही होना खतरे से खाली नहीं होता’।
फ्रांस के महान क्रांतिकारी दार्शनिक वोल्टेयर के इस कथन से बखूबी परिचित प्रोफेसर कलबुर्गी जिन्होंने अभिव्यक्ति के तमाम खतरे उठा लिए की अस्वाभाविक मौत पर लिखे अपने लेख में इंडियन रैशनेलिस्ट एसोसिएशन के प्रमुख सनल एरमाकुदू, जो खुद ईसाई कट्टरपंथियों की कार्रवाइयों के चलते पिछले कुछ सालों से आत्मनिर्वासन में यूरोप में हैं,(व्हाट इफ दयानंद सरस्वती लिवड इन अवर टाईम्स, इंडियन एक्स्प्रेस, 1 सितम्बर 2015) लिखा है कि
किस तरह विगत सदियों में तमाम हिन्दु सुधारकों ने मूर्ति पूजा की जबरदस्त आलोचना की थी। क्या हिन्दू धर्म की वह सहिष्णु धारा अपना असर खोती जा रही है जिसने विचारों की बहुविध परम्पराओं का लगातार सम्मान किया जिसमें ‘वेदनिन्दक’ कहे गए चार्वाक और लोकायत भी शामिल थे ? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह धारा पीछे ढकेली जा रही है और असहिष्णुता ने सर उठाया है और ऐसे आलोचक जिनका जवाब नहीं दिया जा सकता उन्हें गोलियां चला कर खामोश किया जा रहा है। ..कल्पना करें कि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती (1824-1883) जिन्होंने मूर्तिपूजा की मुखालिफत की और धार्मिक कर्मकाण्डों की आलोचना की, हमारे समय में जीवित रह रहे होते ! क्या मोटरसाइकिल पर सवार इन अपराधियों ने उनके जैसे सुधारक को भी बख्शा होता।’
आखिर ऐसी क्या बात थी कि साहित्य अकादमी से लेकर तमाम सम्मानों से नवाज़ा गया कन्नड़ भाषा के विद्वान प्रोफेसर कलबुर्गी, जिन्होंने हम्पी विश्वविद्यालय कुलपति पद के दौरान कई नए अनुसंधानों की शुरूआत की थी और प्रकाशन किए थे और जो वचना साहित्य में प्राधिकार समझे जाते थे कट्टरपंथियों के निशाने पर आए थे।
दरअसल पहला विवाद 1980 के दशक में हुआ था जब वह कर्नाटक की प्रभावशाली लिंगायत समुदाय के निशाने पर आए थे, अपनी किताब मार्ग 1 में लिंगायत सम्प्रदाय के संस्थापक बसवेश्वर के बारे में उनके अनुसंधान से उनके निष्कर्षों से लिंगायतों के एक तबके की ‘भावनाएं आहत होने’ की बात की गयी थी, मामला इस कदर बढ़ा था कि किसी लिंगायत पीठ के सामने उन्हें बाकायदा बुलाया गया था और उन्हें अपने नज़रिये के लिए खेद प्रगट करना पड़ा था, जिसे उन्होंने अपनी ‘बौद्धिक आत्महत्या’ घोषित किया था और कहा था कि अपने परिवार को बचाने के लिए उन्होंने यह किया था।
2014 में वह एक बार अन्य विवादों में घेरे गए जब कन्नड़ के चर्चित लेख यू आर अनंतमूर्ति द्वारा मूर्तिपूजा का विरोध किए जाने का उन्होंने भी समर्थन किया था और हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा की आलेाचना की थी। इसके बाद दक्षिणपंथी हिन्दूवादी संगठनों ने उनके घर पर प्रदर्शन भी किए थे और उनके घर पर पत्थर तक फेंके गए थे।
मालूम हो कि प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या के चंद घंटों बाद ही उनकी हत्या को अपने ट्वीट के जरिए औचित्य प्रदान करने तथा हिट लिस्ट पर अगला नाम मैसूर विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर के एस भगवान का है, यह लिखने के लिए एक अतिवादी हिन्दू को गिरफ्तार किया गया है, जो बजरंग दल या ऐसी ही किसी संगठन का कारिन्दा बताया जाता है। तर्कशील स्वतंत्रमना विचारकों – जो हर किस्म की यथास्थिति को चुनौती देते रहते हैं – की हत्या का सिलसिला यहीं नहीं रूकने वाला है यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि उनकी हत्या के एक दिन बाद डा भगवान के अलावा निदुमामीदी मठ के बीरभद्रा चेन्नामल स्वामीजी – को भी हिन्दू कर्मकाण्डों की आलोचना करने के लिए धमकियां मिली हैं।
ख़बर यह भी आयी है कि भगवान को निशाना बनाने की मुहिम में अब भाजपा भी जुड़ गयी है, उसने भी उन अतिवादी तत्वों की इस मांग का समर्थन किया है कि प्रोफेसर भगवान को दिए गए पुरस्कार को राज्य सरकार वापस ले।
यह बात रेखांकित करने वाली है कि प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या एक ऐसे समय में हुई है जब दक्षिण एशिया के इस हिस्से में बहुसंख्यकवादी ताकतें अपने अपने इलाकों में कहीं धर्म तो कही समुदाय के नाम पर स्वतंत्रमना आवाजों को खामोश करने में लगी हैं। कलबुर्गी की हत्या के चन्द रोज पहले ढाका में निलोय चक्रवर्ती नामक ब्लॉगर के घर में घुस कर इस्लामिस्ट अतिवादियों ने उनकी बर्बर ढंग से हत्या की थी। मालूम हो कि विगत दो साल में सेक्युलर मानवतावादी ब्लागरों में शुमार पांचवें ब्लागर की यह हत्या है जिसका सिलसिला फरवरी 2013 में अहमद राजिब हैदर नामक ब्लॉगर की ढाका की सड़कों पर हत्या के साथ शुरू हुआ था। दो साल पहले बांगलादेश में जब युद्ध अपराधियों को सज़ा दिलाने तथा युद्ध अपराधों में शामिल जमाते इस्लामी के कर्णधारों को दंडित करने के लिए जो ऐतिहासिक शाहबाग आन्दोलन खड़ा हुआ था, उसकी लामबन्दी में इन सेक्युलर मानवतावादी ब्लागर्स ने अविस्मरणीय भूमिका अदा की थी, जिसके चलते वह इस्लामिस्टों के निशाने पर लगातार रहे हैं।
अहमद राजिब हैदर के बाद अविजित रॉय, फिर वयासिकुर रहमान, फिर अनंत विजोय दास। यूं तो अविजित रॉय पर हमले में उनकी पत्नी रफीदा अहमद बोन्या भी बुरी तरह घायल हुई थीं।
ध्यान रहे कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी स्वतंत्रमना ताकतें, लोग जो तर्क की बात करते हैं, न्याय, प्रगति एवं समावेशी समाज की बात करते हैं, वे भी कट्टरपंथ के निशाने पर हैं। ईशनिन्दा के नाम पर जेल में बन्द आसियाबी का समर्थन करने पहुंचे पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर – जिन्होंने ईशनिन्दा कानून का विरोध किया था और वहां के मंत्री शाहबाज बट्टी इसी तरह अतिवादी इस्लामिस्टों के हाथों मारे गए थे। इतना ही नहीं वहां शिया मुसलमानों, अहमदी मुसलमानों पर भी हमले हो रहे हैं, इतना ही नहीं कट्टरपंथी तत्व पोलियो का टीका लगाने में मुब्तिला कर्मचारियों को भी अपने हमले का निशाना बना रहे हैं। पाकिस्तान के बदतर होते हालात पर जाने माने भौतिकीविद एवं पाकिस्तान में मानवाधिकार आन्दोलन के कार्यकर्ता प्रोफेसर परवेज हुदभॉय (Professor Pervez Hoodbhoy) की यह टिप्पणी गौरतलब है:
.. दुनिया में किसी भी अन्य इलाके की तुलना में पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में अतार्किकता तेजी से बढ़ी है और ख़तरनाक हो चली है। लड़ाइयों में मारे जाने वाले सिपाहियों की तुलना में यहां पोलियो कर्मचारियों की उम्र कम होती है। और अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि, इस हक़ीकत को देखते हुए स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय युवा मनों का प्रबोधन करने के बजाय उन्हें कुचलने में लगे हैं, अतार्किकता के खिलाफ संघर्ष निश्चित ही यहां अधिक चुनौतीपूर्ण होने वाला है।
अगर हम श्रीलंका को देखें तो वहां भी वातारकिया विजिथा थेरो जैसे विद्रोही बौद्ध भिक्खु, जिन्होंने बोण्डु बाला सेना जैसे बौद्ध उग्रवादी समूहों के निर्देशों को मानने से इन्कार किया, उन पर हमले हुए हैं और उन्हें मरा हुआ मार कर छोड़ा गया है, बर्मा में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने में विराथू जैसे बौद्ध सन्त – जिन्हें बर्मा का ‘बिन लादेन’ कहा जाता है – ही आगे हैं। उधर पंजाब के अन्दर डॉ पशौरा सिंह और डॉ हरजोत ओबेरॉय जैसे सिख विद्वानों को सिख परम्परा के ‘रखवालों’ की तरफ से प्रताड़ित किया जा रहा है।
प्रोफेसर कलबुर्गी और दक्षिण एशिया के इस हिस्से में सक्रिय ऐसे तमाम तर्कशीलों, स्वतंत्रमना, प्रगतिकामी बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं के लिए श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हमें इस बात पर अवश्य सोचना चाहिए कि क्या ऐसा समाज कभी वास्तविक तौर पर तरक्की के रास्ते, प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकता है जहां सन्देह करने की, सवाल उठाने की, तर्क करने की, विचार करने की आज़ादी पर ताले लगे हों।
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सही बात है कि एक अज़ीब से दौर से हम फिलवक्त़ गुजर रहे हैं जब एक अलग तरह की हिट लिस्ट की बातें अधिकाधिक सुनाई दे रही हैं।
पहले ऐसी बातें दूर से सुनाई देती थीं। जब साठ के दशक के उत्तरार्द्ध या सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आन्दोलन अपने उरूज पर था, जब उसने सत्ता को चुनौती दी थी तब बंगाल और आंध्र के रैडिकल छात्रा युवाओं के, या अन्य इन्कलाबियों के नामों की फेहरिस्त लिए पुलिस बल के लोग या उनके पिटठू घूमते रहते थे। जिन लोगों ने महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ पढ़ा होगा या उस पर बनी एक हिन्दी फिल्म देखी होगी, वह उस दौर का बखूबी अनुमान लगा सकते हैं।
उधर जब अस्सी के दशक में खालिस्तानी आन्दोलन का रक्तरंजित सिलसिला चल पड़ा तो फिर एक बार हिट लिस्ट की बातें सुर्खियां बनीं। फरक महज इतना था कि एक तरफ पुलिस-सुरक्षा बलों की हिट लिस्ट होती थी, जिसमें उन लोगों के नाम शामिल रहते थे जो उनके हिसाब से खालिस्तानियों से ताल्लुक रखते थे तो उधर खालिस्तानी उन लोगों को ढूंढते रहते थे जो उनकी खूनी सियासत के मुखालिफ होकर इन्सानियत के हक़ में खड़े होते थे। चाहे कम्युनिस्ट इन्कलाबी आन्दोलन का दौर रहा हो या खालिस्तानी आन्दोलन का रक्तरंजित दौर ऐसे तमाम बेशकीमती लोग मारे गए हैं, जो समाजी बेहतरी एवं बराबरी की लड़ाई में मुब्तिला थे।
आज 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में जबकि आज़ाद भारत की पचहत्तरवीं सालगिरह मनाने की तरफ हम बढ़ रहे हैं, तब इस अलग किस्म की लिस्ट जारी हुई है। दरअसल इस लिस्ट में ऐसे लोगों के नाम शामिल हैं जो कलम चलाने वाले लोग है, भारत के संविधान के दायरे में रह कर अपनी सक्रियताओं के चलते यहां के जनतंत्र को समृद्ध बनाने में मुब्तिला लोग हैं, नफरत एवं अलगाव की राजनीति के खिलाफ अलग जगानेवाले लोग हैं, जो मजलूम हैं जो मुफलिस है उसके हक़ में आवाज़ बुलन्द करने वाले लोग हैं। तमाम बाबाओं, बापूओं और साधुमांओं द्वारा बेवकूफ बनाये जा रही आबादी को सच्चाई बताने में मुब्तिला लोग हैं।
इसी हिट लिस्ट का परिणाम है कि दो साल में अपने में से कम से कम ऐसे तीन अज़ीम शख्सियतों को हमने खोया है, जिनका रहना इस जनतंत्र को और समृद्ध करता और स्पंदित बनाता। चिन्तित करने वाली बात यह भी है कि यह अन्त नहीं है।
इस हिट लिस्ट में और कइयों के नाम शामिल बताए जाते हैं।
कर्नाटक के दो अग्रणी लेखकों के मकानों को ध्वस्त करने की श्रीराम सेने के कार्यकर्ताओं ने बाकायदा प्रेस कान्फ्रेन्स करके धमकी दी है, जिन्होंने कलबुर्गी की हत्या में कथित तौर पर उसके कार्यकर्ताओं की संलिप्तता की बात कही थी।
अभी चन्द रोज पहले दिल्ली के जनाब जान दयाल, जो अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए लगातार संघर्षरत रहते हैं, उन्हें भी धमकी दिए जाने की बात सुनाई दी है।
दाभोलकर पानसरे की शहादत के बाद सूबा महाराष्ट्र के तीन लोगों को – डॉ नरेन्द्र दाभोलकर के भाई दत्तप्रसाद दाभोलकर और श्रमिक मुक्ति दल के नेता एवं वामपंथी विचारक-कार्यकर्ता भारत पाटणकर और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखक भालचंद्र नेमाडे को धमकी मिली है।
दत्तप्रसाद दाभोलकर, दक्षिणपंथियों के निशाने पर इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के जीवन एवं कार्य को अलग ढंग से व्याख्यायित करने की कोशिश की है, जिसका बुनियादी स्वर होता है विवेकानन्द को जिस तरह दक्षिणपंथ द्वारा अपने ‘आयकॉन’ के रूप में में समाहित किया गया है, उनकी खास किस्म की हिन्दूवादी छवि को प्रोजेक्ट किया गया है, उसकी मुखालिफत करना। इस मसले पर वह जगह जगह व्याख्यान भी देते हैं।
मार्क्स एवं फुले अम्बेडकर के विचारों से प्रेरित कामरेड भारत पाटणकर विगत लगभग चार दशक से मेहनतकशों एवं वंचित-दलितों के आन्दोलन से सम्बद्ध हैं और साम्प्रदायिक एवं जातिवादी राजनीति का विरोध करते हैं। जनता की सांस्कृतिक चेतना को जगाने के लिए ‘बलीराजा’ जैसे पुराने प्रतीकों को भी उन्होंने नए सिरेसे उजागर करने का काम किया है।
ताज़ा समाचार यह भी है कि कामरेड गोविन्द पानसरे की हत्या में कथित तौर पर शामिल होने को लेकर जबसे ‘सनातन संस्था’ के कार्यकर्ता पकड़े गए हैं तबसे महाराष्ट्र के वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले, तर्कशील आन्दोलन के श्याम सोनार, मशहूर डाक्युमेंटरी निर्माता आनंद पटवर्धन को भी धमकी मिली है।
अगर ऐसी खुल्लमखुल्ला धमकियां मिलने के बाद भी अगर सरकार एवं पुलिस बल नहीं चेता और इनमें से किसी के जान को कुछ खतरा हुआ तो यह बात पुख्ता हो जाएगी कि हुकूमत में बैठे लोग भले ही दावे जाति एवं साम्प्रदायिक तनाव मुक्त भारत के निर्माण के करते हों, मगर हक़ीकत में उनका आचरण कहीं न कहीं ऐसी ताकतों को शह देना है। और अब यह हुकूमत में बैठे लोगों को तय करना है कि वह इन कातिलों को पकड़ने में पूरी चुस्ती बरतेंगे या बस कदमताल करते रहेंगे।
77 वर्षीय कलबुर्गी ने अपनी लम्बी उम्र में विचारों के जगत में नए दरवाजे खोलने की लगातार कोशिश की थी। यह भी कहा जाता है कि अपने हत्यारे के लिए कलबुर्गीजी ने खुद दरवाज़ा खोला था, जो ‘सर’ से मिलने घर के अन्दर दाखिल हुआ था।
अतिथियों के लिए दरवाज़े खोलना, हर सभ्य समाज की निशानी होती है। कलबुर्गी के इन्सानद्रोही हत्यारों ने उस बुनियादी शिष्टाचार को भी कलंकित कर दिया है। मुझे सुदर्शनजी की कहानी ‘हार की जीत’ याद आ रही है, जब वह डकैत बीमार होने का बहाना बना कर साधु का घोड़ा चुरा कर ले जाता है और साधु उसे जाते हुए कहता है कि किसी को यह न कहना कि तुमने घोड़ा कैसे चुराया क्योंकि आईन्दा कोई व्यक्ति किसी बीमार को सहायता नहीं करेगा। मैं चाहता हूं कि कलबुर्गी के जीवन के इस अन्तिम प्रसंग की भी कम से कम चर्चा हो ताकि ऐसा न हो कि अजनबियों को देख कर हम अपने दरवाजे खोलना बन्द कर दें।
हम यहां जुटे इसलिए हैं क्योंकि विचारों के जगत में नए-नए दरवाजे खोलने, नयी जमीन तोड़ने की जो रवायत सदियों से चली आ रही है, जिसके सच्चे वाहक कलबुर्गी थे, वह परम्परा मजबूती के साथ आगे बढ़े। अंधेरे की वह ताकतें जो इसमें खलल डालना चाहती हैं, वह फिर एक बार शिकस्त पाएं।
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हिटलर एवं मुसोलिनी के बारे में कहा जाता है कि वह विचार में नहीं एक्शन में विश्वास रखते थे।
निश्चित ही उन्हीं की सन्तानों ने – या आप उन्हें नाथूराम गोडसे की औलाद भी कह सकते हैं, जिस आतंकी ने इसी तरह एक निहत्थे बुजुर्ग व्यक्ति की हत्या की थी, जब वह प्रार्थना में जा रहा था, क्योंकि उनके विचारों से वह सहमत नहीं था – इन हत्याओं को अंजाम दिया है।
विचारों के खिलाफ चल रहा यह युद्ध दरअसल कई छटाओं को लिए हुए है। तर्क की मुखालिफ, विचारों की विरोधी ताकतों द्वारा यह जो मुहिम छेड़ी गयी है उसके एक छोर पर अगर हम चलती पिस्तौल की गोलियों को देख सकते हैं जो कभी किसी दाभोलकर, किसी अयासिकुर रहमान तो किसी कलबुर्गी के कपाल को भेदती जाती दिखती है तो उसके दूसरे छोर पर हम कलम या विचार के हिमायतियों, विचार जगत में विचरण करनेवाले बुद्धिजीवियों, विद्वानों को अपमानित करने जैसी स्थितियों को भी देख सकते हैं। इनमें सबसे ताज़ा प्रसंग नेहरू म्युजियम मेमोरियल लाइब्रेरी के निदेशक पद से प्रोफेसर महेश रंगराजन जैसे विद्वान को दबाव डाल कर हटाने से जुड़ा है, जब संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने एक तरह से उनके खिलाफ मुहिम सी छेड़ दी।
और इन दो छोरों के बीच तमिल लेखक पेरूमल मुरूगन जैसों पर पड़े प्रचण्ड दबावों को देख सकते हैं, जिन्होंने हिन्दुत्ववादी संगठनों की पहल एवं जातिवादी संगठनों की हुडदंगई तथा प्रशासन के समझौतापरस्त रवैये से तंग आकर अपने एक उपन्यास को वापस लेने और ‘लेखक की मौत’ की घोषणा की। कांचा इलैया जैसे बहुजन लेखक के खिलाफ दर्ज देशद्रोह के मुकदमे को देख सकते हैं या मलयालम के लेखक एम.एम.बशीर को हिन्दुत्ववादियों द्वारा मिली धमकियों को देख सकते हैं, जिसके चलते उन्हे अपना कॉलम बन्द करना पड़ा। अख़बार में इसके बारे में विवरण छपे हैं कि किस तरह इन चरमपंथियों ने बशीर पर दबाव डाला कि ‘मुसलमान होने के बावजूद राम पर वह क्यों लिख रहे हैं ?’ और जिसकी वजह से बशीर ने अपना कॉलम बन्द कर दिया।
दरअसल हिटलर मुसोलिनी के इन वारिसों को विचारों से इस कदर खौफ है कि वह बेलगाम हो गए हैं और कुछ भी प्रलाप किए जा रहे हैं। यह अकारण नहीं था कि पिछले दिनों उन्होंने विश्व हिन्दी सम्मेलन के बहाने समूचे साहित्यिक बिरादरी को अपमानित करने में संकोच नहीं किया। न केवल देश के अग्रणी साहित्यकारों को उसमें न्यौता दिया गया, वे साहित्यकार भी बुलाए नहीं गए जो संघ परिवार के करीबी माने जाते हैं और सम्मेलन के एक दिन पहले एक काबिना मंत्री – जो खुद जब सेना में उच्चतम पद पर था, तब अपनी उम्र कम दिखा कर एक साल और सर्विस कराने के लिए अदालत पहुंचा था और वहां से लौटा दिया गया था – ने एक वाहियात बयान दिया।
इसकी एक वजह साफ है। दरअसल वह जानते हैं कि हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्थान के नाम से वह जिस तरह संघ के विश्व नज़रिये के तहत हिन्दी की पुनर्रचना करना चाह रहे हैं, उसमें सबसे बड़ा रोड़ा हिन्दी पट्टी के साहित्यकार ही बन सकते हैं। और अपनी असलियत से तो वह अच्छी तरह वाकीफ हैं कि उनकी तमाम कवायदों के बावजूद, पद एवं प्रतिष्ठा के तमाम लालीपॉप दिखाने के बावजूद कोई भी बड़ा साहित्यकार, कलमकार अभी तक उनके खेमे से जुड़ा नहीं है, उनके यहां पैदा होने की बात ही छोड़ दें।
5.
अभी आप के बीच यहां खड़ा हूं और विचारों के जगत पर, तर्कशीलता की रवायत पर जो स्याह छायाएं पड़ती दिख रही हैं, इस पर अपने मन की किवाड़ पर दस्तक दे रही बातें साझा कर रहा हूं और मुझे बरबस मेरे प्रिय कवि राजेश जोशी की वह कविता ‘जो सच सच बोलेंगे मारे जाएंगे’ याद आ रही है जिसमें वह कहते हैं कि
‘जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएंगे / कठघरे मे खड़े कर दिए जाएंगे जो विरोध में बोलेंगे/ जो सच सच बोलेंगे मारे जाएंगे।’
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‘धकेल दिए जाएंगे कला की दुनिया से बाहर/ जो चारण नहीं होंगे / जो गुण नही गाएंगे मारे जाएंगे / धर्म की ध्वजा उठाने जो नहीं जाएंगे जुलूस में /गोलियां भून डालेंगीं उन्हें काफिर करार दिए जाएंगे।’
दो दशक से भी पुरानी यह कविता आज के दौर के लिए भी बहुत मौजूं जान पड़ती है।
यह कविता आप की तरह मैंने उस वक्त सुनी थी जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस की तैयारियां सुर्खियों में थी। संघ परिवारी जमातें पूरे मुल्क के पैमाने पर खूनी उन्माद फैलाने की फिराक़ में थी। यही वह वक्त़ था जब संघ के अनन्य प्रचारक/ स्वयंसेवक आडवाणी ने जापानी कम्पनी टोयोटा से बनी विशेष कार में ‘सोमनाथ से अयोध्या’ तक की अपनी रथयात्रा निकाली थी, जो अपने पीछे मासूमों के खून के निशान छोड़ते आगे बढ़ी थी। उस वक्त़ का दौर मुझे अभी भी भूलता नहीं है जब वाराणसी के दुर्गाकुण्ड में अपने किराये के घर की छत पर बैठ कर चारों तरफ उठी जलती हुई मशालों के बीच मैंने अपने आप को जबरदस्त अकेला महसूस किया था।
आप को याद होगा कि विध्वंस में जुटे इस गिरोह ने लोगों का आवाहन किया था कि राम मंदिर निर्माण के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए वह अपने घर की छत पर खड़े होकर मशालें जलायें।
वह दौर बीत गया। बीच का यह दौर संमिश्र रहा।
आज जब यहां जुटे हैं तो पुरानी तमाम बातें किसी फिल्म के फलेशबैक की तरह याद आ रही हैं।
मित्रों, निश्चित ही हम सभी यहां स्यापा करने के लिए नहीं जुटे हैं और न अपने ग़म को सामूहिक तौर पर भुलने के लिए एकत्रित हुए हैं। दरअसल इन मौतों से उपजे ग़म को नयी संकल्पशक्ति में बदलने के लिए यहां एकत्रित हैं।
कलबुर्गी की शहादत के बाद एक बात देखने को मिली जो बहुत ताकत दे गयी और वह था देश के विभिन्न भागों में, महज कर्नाटक में नहीं बल्कि उत्तर भारत के तमाम शहरों में सामने आयी जनपहलकदमी, जगह जगह हुए प्रदर्शन एवं आयोजित की गयी रैलियां। दिल्ली के जिस कार्यक्रम में मैं शामिल था, जिसमें लगभग पांच सौ लोगों ने शिरकत की थी, उसमें साहित्यकार, कवियों, सांस्कृतिक कर्मियों से लेकर राजनीतिक कर्मी शामिल थे। 30 अगस्त के पहले कलबुर्गी का नाम भले कर्नाटक की सीमाओं तक मुख्यतः सीमित था, मगर आज आलम यह है कि महज भारत ही नहीं दक्षिण एशिया के पड़ोसी मुल्कों में भी यह नाम पहुंचा है। प्रोफेसर कलबुर्गी का नाम इस बात की ताईद करता दिख रहा है कि 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद जब एक प्रगट हिन्दूवादी पार्टी ने हुकूमत सम्भाली है, तबसे कैसी अनुदारवादी आंधी चल पड़ी है।
निश्चित तौर पर हमारी कोशिश रहेगी कि हम इस कदर जनमत का दबाव बनाएं कि महज कलबुर्गीजी के ही नहीं बल्कि डॉ दाभोलकर के, कामरेड पानसरेजी के असली कातिल पकड़े जाएं, मामला यही न रूके, जांच की आंच इन कारिन्दों के मुखिया लोगों तक पहुंचें, तंजीमों के लीडरानों तक पहुंचे।
अपने आप को आध्यात्मिक संस्था कहलाने वाली ‘सनातन संस्था’ – जो दुष्टों के दमन को आध्यात्मिक आचरण घोषित करती है – के कार्यकर्ताओं की इन हत्याओं में कथित संलिप्तता को लेकर कहीं बात भी सुनने को मिली थी, कुछ दिन पहले सनातन के कुछ कारिन्दों की गिरफ्तारी के बाद यह सवाल नए सिरे से मौजूं हो उठा है। मगर हमारा अधिक प्रभावी कदम होगा, विचारों की जो लड़ाई, तर्कशीलता का जो संघर्ष – आहत भावनाओं की ब्रिगेड की खूनी हरकतों के चलते – मद्धिम पड़ने का खतरा है, उसे अधिक उरूज पर ले जाने की तैयारी में जुटना।
6.
दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी
इस त्रिमूर्ति को हम सुकरात की सन्तानें कह सकते हैं, ब्रूनो के वारिस कह सकते हैं। वही सुकरात जिसने विचारों की अहमियत के लिए कुर्बानी कबूल की थी, वही ब्रूनो जिसने गणित के अपने ज्ञान के आधार पर यही कहा था कि पृथ्वी सूर्य के इर्दगिर्द घूमती है, न कि सूर्य पृथ्वी के इर्दगिर्द घूमता है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि तवारीख उन लोगों के नाम नहीं जानती जिन्होंने सुकरात को जहर का प्याला पीने के लिए मजबूर किया था और न ही उन लोगों का नाम इतिहास की यादों में दर्ज है जिन्होंने ब्रूनो को जिन्दा जला दिया था।
सदियां गुजरने के बाद भी अगर हम किसी को सुकरात की सन्तानें कह रहे हैं, ब्रूनो के वारिस कह रहे हैं, आज के दौर के बसवण्णा कह रहे हैं तो यह उसी इतिहास की इस सच्चाई को उजागर करता है कि हर दौर में अंधेरे की ताकतों के खिलाफ, बन्ददिमागी के अलम्बरदारों के खिलाफ, विचार को राज्य, धर्म, अर्थ, श्रद्धा या रूढ़ि के बंधन में जकड़े रखने के खिलाफ संघर्ष होता रहा है, और उसमें हमेशा ही रौशनी के दीवानों को जीत मिली है, विचारों के वाहकों ने फतह हासिल की है।
हम यहां जुटे इसलिए हैं त


