इमर्जेंसी को दोहराने से बचने के लिए उसे याद रखना बहुत जरूरी है
राजेंद्र शर्मा
इकतालीस बरस पूरे होने पर इमर्जेंसी का जिक्र तक मुश्किल से सुनायी दे रहा है। भारतीय जनतंत्र के इतिहास के इस काले अध्याय का इस तरह लगभग भुला दिया जाना बेशक, कोई शुभ लक्षण नहीं है। इमर्जेंसी को दोहराने से बचने के लिए उसे याद रखना बहुत जरूरी है। पुरानी कहावत है कि इतिहास को भूल जाने वाले उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।
बेशक, कांग्रेस का इमर्जेसी के जिक्र से भागना स्वाभाविक है।
खुद इंदिरा गांधी से लगाकर, कांग्रेस के विभिन्न नेताओं द्वारा और बार-बार, इमर्जेंसी लगाने को गलती मान लेने के बावजूद, उसका स्मरण कांग्रेस को बचाव पर ही डाल सकता है। इतना ही स्वाभाविक, खुद को सीधे जयप्रकाश नारायण की इमर्जेंसीविरोधी परंपरा से जोड़ने वालों का, अपने पुनर्जीवन लिए टॉनिक की तरह इसे याद करना है।
जदयू नेता तथा बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार ने इमर्जेंसी की सालगिरह की पूर्व-संध्या में तमाम ‘जेपी के लोगों’ के ‘‘आरएसएस-मुक्त भारत’’ के लिए एकजुट होने का जो आह्वान किया है, उसे इसी संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए।
दर्ज करने वाली बात यह है कि सत्ताधारी भाजपा भी, इमर्जेंसी की चर्चा के बहाने अपनी मुख्य विरोधी कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के लालच से बचती ही नजर आ रही है।

बेशक, यह कम से कम भूल में पड़ जाने का मामला नहीं है।
10 मई को ही भाजपा के संसदीय ग्रुप की बैठक में बोलते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ इमर्जेंसी की इकतालीसवीं सालगिरह आ रही होने का जिक्र किया था बल्कि युवा पीढ़ी को इमर्जेंसी की याद दिलाने की जरूरत पर भी जोर दिया था। लेकिन, यह सब वास्तव में मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर, खासतौर पर केंद्र सरकार के मंत्रियों तथा भाजपा सांसदों द्वारा छेड़े जा रहे इस सरकार की उपलब्धियों के प्रचार के पूरे महीने भर के अभियान का हिस्सा भर होना था।
देश के दो सौ महत्वपूर्ण केंद्रों से जनता को उपलब्धियां बताने के इस अभियान के समापन के दिन, 26 जून को ही इमर्जेंसी का जिक्र करने की खाना-पूरी की जानी थी और बेशक की जाएगी। भाजपा के नेताओं के खुद को इमर्जेंसी की ज्यादतियों का भुक्तभोगी बताने के बावजूद, सत्ताधारी पार्टी के व्यावहारिक माने में उसे भुला ही देने का सीधा संबंध, उसके खुद तानाशाही के रास्ते पर बढ़ने से है। कांग्रेस-मुक्त या वामपंथ-मुक्त भारत के उसके नारे, जो वास्तव में ‘विपक्ष-मुक्त शासन’ की सत्ताधारी पार्टी की आकांक्षा को ही दिखाते हैं, उसके तानाशाहाना मिजाज के ही सबूत हैं।

वैसे लालकृष्ण आडवाणी भी इस बार चुप हैं।
पिछले साल, इमर्जेंसी की चालीसवीं सालगिरह की पूर्व-संध्या में उन्होंने यह कहकर सनसनी पैदा कर दी थी कि न सिर्फ इमर्जेंसी के दौरान नागरिक अधिकारों का जिस तरह का दमन हुआ था उसे अब भी दोहराया जा सकता है बल्कि जनतंत्र को दबाने वाली ताकतें पहले से मजबूत ही हुई हैं।
उस समय इसे ज्यादातर लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार के तानाशाहाना मिजाज़ की ओर ही इशारा माना था, हालांकि बाद में आडवाणी ने यह कहकर सफाई भी दी थी कि उनका किसी खास सरकार की ओर इशारा नहीं था।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि बुजुर्ग भाजपा नेता भी अब इस मुद्दे पर चुप हैं, जबकि पिछले एक बरस के घटनाक्रम ने इमर्जेंसी की वापसी उनकी आगही को सच ही साबित किया है। 1975 के 25 जून को इंदिरा गांधी द्वारा जिस रूप में लादा गया था उस रूप में न सही, फिर भी जनतंत्र तथा नागरिक अधिकारों के कतरे जाने के लिहाज से इमर्जेंसी अब भी संभावना है।
इंदिरा गांधी-संजय गांधी के इमर्जेंसी निजाम की पहचान सबसे बढ़कर, राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारियों, प्रेस पर पाबंदियों तथा नागरिक स्वतंत्रताओं के औपचारिक रूप से स्थगित किए जाने से होती है। बेशक, वैसी नाटकीय घोषणाएं आज कहीं नहीं हैं। लेकिन, इस सबके पीछे असली प्रयास तो सत्ता से असहमति तथा विरोध की आवाजों को दबाने का ही था। कार्यपालिका और उसमें भी प्रधानमंत्री कार्यालय को छोड़कर सभी संस्थाओं का बौना किया जाना, इस का महत्वपूर्ण हथियार था। इस प्रयास के लक्षण आज भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं।
हां! विरोध की आवाजों को दबाने के लिए आज सरकार से आगे बढ़कर, उसका संरक्षणप्राप्त हिंदुत्ववादी संगठनों की एक और ही एजेंसी अति-सक्रिय भी है और आक्रामक भी। यह ऐसी एजेंसी है जिसके तार सीधे सत्ताधारी पार्टी और मौजूदा सरकार के साथ जुड़े हुए हैं। एक ओर तर्कवादी और इस लिहाज से हिंदुत्ववादी पोंगापंथ के विरोधी दाभोलकर, पानसरे तथा कलबुर्गी की आतंकवादी शैली की हत्याएं और दूसरी ओर गोमांस खाने के नाम पर अखलाक की भीड़ जुटाकर पीट-पीटकर हत्या, विरोध की आवाजों के कुचले जाने के ही अतिवादी उदाहरण थे।
इसी तरह के वातावरण में एक प्रसिद्ध तमिल लेखक अपनी ‘लेखकीय मौत’ का एलान करने पर मजबूर हो गया। और जब इस बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ देश के जाने-माने लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों ने ‘पुरस्कार वापसी’ के बहुत ही नैतिक तरीके से अपनी आवाज उठायी, इस नैतिक आवाज को दबाने के लिए उस तथाकथित ‘हाशिए’ को लहका दिया गया, जिसके साथ शासन और सत्ताधारी दल जुड़े हुए हैं।

कुछ ऐसा ही उच्च शिक्षा संस्थाओं और खासतौर पर ऐसे विश्वविद्यालयों के मामले में हुआ है, जहां केंद्र में मोदी सरकार आने के बावजूद, हिंदुत्ववाद का बोलबाला कायम नहीं हो सका है।
पुणे फिल्म तथा टेलीविजन इंस्टीट्यूट समेत शासन द्वारा संचालित तमाम उच्च शिक्षा संस्थाओं में मनचाही नियुक्तियों-पदमुक्तियों तथा आइआइटी छात्रावासों के भोजनालयों के शाकाहारीकरण की कोशिश के बाद, आइआइटी चेन्नै के आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल के खिलाफ केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के इशारे पर कार्रवाई से, विरोध के स्वरों के कुचले जाने की मुहिम ही छिड़ गयी।

अगली मंजिल पर हैदाराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आंबेडकरवादी-वामपंथी छात्र आंदोलन को निशाना बनाया गया, जिसकी परिणति दलित शोध छात्र रोहित वेमुला के आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाने में हुई। इसके फौरन बाद घोषित रूप से वामपंथी जेएनयू का नंबर लग गया।
अब इस मुहिम ने बाकायदा सड़कों पर हमलावर हिंदुत्ववादी गोलबंदी और छात्र नेताओं पर शारीरिक हमलों का भी रूप ले लिया। वह सब ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर। स्मृति ईरानी की देख-रेख में तैयार की गयी नयी शिक्षा नीति में तो अब बाकायदा उच्च शिक्षा संस्थाओं को ‘‘राजनीति-मुक्त’’ कराने का ही इंतजाम किया जा रहा है!
किसी से छुपा हुआ नहीं है कि सत्ता किसी की भी हो, आलोचना के स्वर पहले शिक्षा तथा संस्कृति के इन्हीं ठिकानों से उठते हैं और राजनीतिक विरोध तक पहुंचते हैं। मीडिया और खासतौर पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर बढ़ते नियंत्रण के जरिए अब, बिना मीडिया पर पाबंदी लगाए जनता को काफी हद तक मूक बनाया जा सकता है।

बेशक, इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी की तरह तो नहीं, फिर भी संसदीय संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश भी जारी है।
सत्ताधारी भाजपा और उसकी एनडीए सरकार के निशाने पर खासतौर पर राज्यसभा है, जहां भाजपा को लोकसभा की तरह अकेले बहुमत हासिल होना तो दूर, एनडीए भी बहुमत के कहीं आस-पास तक नहीं पहुंचता है। सत्ताधारी पार्टी के नेतागण, जिनमें राज्यसभा के नेता व वित्त मंत्री, अरुण जेटली भी शामिल हैं, बाकायदा राज्यसभा को लोकसभा के सामने खड़ाकर, ‘गैर-प्रतिनिधि’ करार देकर, उसके लोकसभा के निर्णयों व विचार करने की वैधता पर ही सवाल उठाते रहे हैं। इतना ही नहीं, ‘मनी बिल’ घोषित कराने के चोर दरवाजे से, आधार विधेयक जैसे महत्वपूर्ण तथा जनता के लिए दूरगामी अर्थ रखने वाले विधायकों को राज्यसभा के ‘अड़ंगे’ से बाकायदा बचाने का रास्ता भी खोल दिया गया है। लेकिन जिसके ‘प्रतिनिधि सदन’ होने की दलील से राज्यसभा को पीटा जा रहा है, उसकी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
सत्ताधारी गठबंधन के निरंकुश बहुमत का विपक्ष की आवाज को दबाने के लिए तो इस्तेमाल किया ही जा रहा है, इसके अलावा संसदीय कमेटियों आदि विधेयकों पर व्यापक विचार-विमर्ष की संस्थाओं की भूमिका को भी लगभग खत्म ही कर दिया गया है।
दूसरी ओर, ‘सहकारी संघवाद’ का नारा वास्तव में विपक्षी राज्य सरकारों को दलबदल तथा तोड़-फोड़ के जरिए गिराने तक पहुंच गया है, जिस मुहिम को उत्तराखंड के मामले में देश की ऊंची अदालतों ने मजबूती से हस्तक्षेप कर विफल किया है।
अंत में यह कि इमर्जेंसी में कांग्रेसियों ने नारा दिया था: ‘‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा।’’ सत्तासीन नेता की इस पूजा को तब उसके तानाशाह होने का ही लक्षण कहा जाता था। अब मोदी को बार-बार ‘‘भारत के लिए ईश्वर का उपहार’’ बताए जाने को, किस का लक्षण कहा जाएगा! कहीं हम धार्मिक तानाशाही की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं।