वीरेंद्र यादव
आज ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म शताब्दी दिवस है। आज से सौ वर्ष पूर्व 7 जून 1914 को वे पानीपत में पैदा हुए थे। औपनिवेशिक भारत में स्वतंत्रता, समानता ओर प्रगतिशील मूल्य चेतना को लेकर जो युवा पीढ़ी तैयार हुयी थी, अब्बास उन्ही में एक थे। प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन ने उनकी निर्मिति की थी तो उन्होंने भी अपने लेखन और सांस्कृतिक योगदान द्वारा इसे समृद्ध किया था। एक पत्रकार, कथाकार, फिल्मकार और साम्राज्यवाद विरोधी अन्दोलनकर्ता के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। बंगाल के अकाल पर 1946 में 'धरती के लाल' सरीखी फिल्म बनाकर उन्होंने हिन्दी में प्रतिबद्ध सिनेमा के नए कीर्तिमान गढ़े। बाद के दौर में 'शहर और सपना' और 'आसमान महल' और 'सात हिन्दुस्तानी' सरीखी फ़िल्में बनाकर उन्होंने अपनी जनपक्षधरता का जुनून कायम रखा।
अमिताभ बच्चन को अपनी फिल्म 'सात हिन्दुस्तानी' में पहली बार अभिनय का अवसर देने का श्रेय भी उन्हें ही है। 'ब्लिट्ज' साप्ताहिक के उनके स्तम्भ 'लास्ट पेज' को पढ़ते हुए मुझ सहित कई पीढ़ियों ने खुद को समृद्ध किया। वे अंगरेजी, उर्दू और हिन्दी में समान अधिकार के साथ लिखते थे।
समय-समय पर आलोचनात्मक रुख के बावजूद ख्वाजा अहमद अब्बास पक्के नेहरूवादी थे। नेहरु के निधन के बाद जब इंदिरा गांधी नयी भूमिका में राजनीतिक दृश्य पर उभरीं तब उन्होंने उनके प्रधानमंत्री बनने के पूर्व 1965 में ही 'Return of the red rose' शीर्षक से इंदिरा गांधी की जीवनी जिस सरल काव्यात्मक अंगरेजी में लिखी उसने बहुतों को उनकी अंगरेजी लेखन क्षमता का मुरीद बनाया। मैं कह सकता हूँ कि अंगरेजी लेखन के प्रति मेरे आकर्षण का प्रस्थान बिन्दु उनका यह अंगरेजी गद्य ही था। उनकी आत्मकथा 'I am not an island' आज़ादी पूर्व के कई दशकों से लेकर आपातकाल के पूर्व तक के भारतीय समय और समाज का अन्तरंग आख्यान है। इसे ख्वाजा अहमद अब्बास की निर्मिति समझने के साथ साथ प्रगतिशील चेतना की निर्मिति के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। मेरे अवचेतन में ख्वाजा अहमद अब्बास का व्यक्तित्व और कृतित्व शिद्दत के साथ मौजूद रहा है। उनका हार्दिक स्मरण और श्रद्धांजलि।
वीरेंद्र यादव, लेखक प्रख्यात आलोचक हैं।