जगदीश्वर चतुर्वेदी

परवर्ती पूंजीवाद ने एशिया में विकास की नयी राजनीतिक संभावनाओं को खोला है। उसके कारण एशिया इस समय सबसे समर्थ आर्थिक शक्ति बन गया है। शीतयुद्ध की समाप्ति और संचार क्रांति ने विश्व की अर्थनीति में एशिया को ताकतवर बनाया है। एशिया आज जितना ताकतवर है वैसा ताकतवर वह कभी नहीं था। नयी परिस्थितियों में तीन बड़े परिवर्तन हुए हैं पहला परिवर्तन यह हुआ है कि चीन में समूचा वातावरण बदला है। बंदिशें कम हुई हैं। चीन के बदले हुए वातावरण ने एशिया में मासकल्चर को नई बुलंदियों पर पहुँचा दिया है और सामाजिक- आर्थिक विश्व शक्ति संतुलन को भी इसने प्रभावित किया है। मासकल्चर,संचार उद्योग और संस्कृति उद्योग के मालों का चीन आज सबसे बड़ा उत्पादक देश है । चीन में मजदूरों का शोषण बढ़ा है। मालों की खपत बढ़ी है।

एशियाई देशों की साझा समस्या है कारपोरेट लूट, पृथकतावाद और फंडामेंटलिज्म ।इन तीन विराट दैत्यों से कैसे संघर्ष करें ? मजेदार बात यह है कि जिस समय सारी दुनिया में समाजवाद और शीतयुद्ध से मुक्ति का मार्ग खोजा जा रहा था ठीक उसी समय जातीयताओं और अल्पसंख्यकों पर हमले तेज हुए हैं। जातीयसंकट गहरा हुआ है। इससे एशिया में लोकतंत्र का रास्ता क्षतिग्रस्त हुआ है। एशिया में लोकतांत्रिक प्रणाली को सबसे बड़ी चुनौती इसी दौर में दी गई । समाजवाद टूटा।खासकर सोवियत संघ और चीन में गैर समाजवादी मार्ग का अनुसरण किया गया। लंपट लोकतंत्र का उदय हुआ। अबाध कारपोरेट लूट के पूंजीवादी मार्ग का विकास हुआ।

इसके अलावा देशज स्तर पर भाषायी असहिष्णुता कम हुई । दूसरी ओर भाषाओं के भूमंडलीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। संचार क्रांति के अनेक नकारात्मक लक्षण हो सकते हैं लेकिन एक सकारात्मक लक्षण है भाषाओं का भूमंडलीकरण।

भाषा के भूमंडलीकरण ने अस्मिता के समूचे विमर्श को,समाजवाद और शीतयुद्ध के दौर में बनी धारणाओं को गंभीर चुनौती दी और उन्हें नष्ट किया। फलतःआज भाषा विवाद की नहीं संवाद और संपर्क का माध्यम है।

रूस और चीन में घटित परिवर्तनों ने नव्य-उदारतावाद की दिशा ही गड़बड़ा दी है।जिस तरह समाजवादी सोवियत संघ के उदय ने पूंजीवाद के छंद को बेसुरा बनायाथा और उन्हें कल्याणकारी राज्य के निर्माण की दिशा में जाने या समाजवाद अपनाने के लिए मजबूर किया। ठीक वैसे ही चीन ने नव्य उदारतावाद को अपनाकर अमरीकी नव्य उदारतावाद की दिशा ही बदल दी। आज नव्य उदारतावाद से मुक्ति का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा। इस क्रम में संस्कृति हाशिए पर चली गयी है और मासकल्चर ,फंडामेंटलिज्म और शरणार्थी समस्या सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने हैं। हिन्दी के संदर्भ में पहली बात यह कहनी है कि हिन्दी का प्रसार हुआ है लेकिन हिन्दी की शिक्षा का ह्रास हुआ है। हिन्दी या संस्कृति का कोई भी रूप अपनी स्वायत्त स्थिति खो चुका है। हिन्दी का मीडिया बड़ा हुआ है,कारपोरेट हुआ है। हिन्दी कारपोरेट धन उत्पादन का हिस्सा बनी है। संस्कृति उद्योग की ताकतवर भाषा है हिन्दी। हिन्दी का जितना विस्तार हुआ हिन्दी का आलोचनात्मक स्पेस उतना ही कम हो गया है। नयी सांस्कृतिक दुनिया सरकारी विनिमय शर्तों के परे जाकर काम कर रही है। खासकर उपग्रह टेलीविजन,विज्ञापन और इंटरनेट की यूनीकोड भाषा ने हिन्दी को ग्लोबल संचार की भाषा बना दिया है। इससे हिन्दी का आंतरिक संसार बुनियादी तौर पर बदल गया है। संचार क्रांति ने सांस्कृतिक विनिमय को बढ़ाया है। संस्कृति के उपभोग को बढ़ाया है। संस्कृति के ग्लोबल बाजार का निर्माण किया है।

एशियाई देशों में समस्याओं का एक छोर आंतरिक है और दूसरा ग्लोबल है। आंतरिक समस्याएं लोकतंत्र के अभाव और अवरूद्ध विकास से जुड़ी हैं या जातीय और धार्मिक टकरावों से जुड़ी हैं। बाहरी समस्याओं की जड़ें नव्य उदारतावाद और युद्ध से संबंधित हैं। इन दोनों ही किस्म की समस्याओं ने अस्थिरता और विस्थापन और शरणार्थी समस्या को जन्म दिया है। यही वह परिदृश्य है जिसमें एशिया में संचार क्रांति हुई है, ग्लोबल मीडिया उद्योग का विकास हुआ है।