ऐसे ही नहीं जाता दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर
ऐसे ही नहीं जाता दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर
देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिये उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनाना जरूरी है
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत एक अर्से से बहुत खराब है, लेकिन राजनीतिक रूप से राज्य की ताकत कभी कम नहीं हुयी। आजादी के लिये पहली बार जब इस देश की जनता उठ खड़ी हुयी थी तो मई 1857 की मुख्य लड़ाइयाँ उत्तर प्रदेश में ही लड़ी गयी थीं। महात्मा गांधी के नेतृत्व में आधुनिक भारत की स्थापना की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है। आज़ादी की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरी चौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस ले लिया। 1929 और 1930 में जब जवाहरलाल नेहरू को काँग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की काँग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया। उस समय काँग्रेस और स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो फिर कभी नहीं हटा।
गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट 1935 के बाद की अँग्रेजी साजिशों का सारा पर्दाफाश यहीं हुआ। 1937 में लखनऊ में हुये मुस्लिम लीग के सम्मेलन में ही मुहम्मद अली जिन्नाह ने द्विराष्ट्र सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और तुरन्त उनका विरोध भी शुरू हो गया। उस वक्त के मजबूत संगठन हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुये अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धान्त का नारा दे दिया। लेकिन उत्तर प्रदेश में उसी साल हुये चुनावों में इस सिद्धान्त की धज्जियाँ उड़ गयीं क्योंकि यहाँ की जनता ने अपने वोटों के जरिये यह संदेश दे दिया था कि भारत एक है और यहाँ दो राष्ट्र वाले सिद्धान्त के लिये कोई जगह नहीं है।
मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को लोगों ने इन चुनावों में पूरी तरह नकार दिया था। काँग्रेस के अंदर शुरू हुये समाजवादी रुझान और आतंरिक लोकतंत्र को मजबूती देने के लिये गठित काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के दोनों बड़े नेता आचार्य नरेंद्र देव और डॉ. राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के ही थे।
भारतीय राजनीति में काँग्रेस का विकल्प तलाशने की कोशिश भी यहीं शुरू हुयी। डॉ. लोहिया ने जब गैर काँग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया तो तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज, मुरादाबाद और जौनपुर में हुये 1963 के लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया। लोहिया कन्नौज, आचार्य जेबी कृपलानी मुरादाबाद और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर काँग्रेसवाद के उम्मीदवार बने। इसी प्रयोग के बाद गैर काँग्रेसवाद ने एक शक्ल हासिल की और 1967 में हुये आम चुनावों में काँग्रेस अमृतसर से कोलकाता तक अपनी कई अजेय सीटों पर चुनाव हारकर कई राज्य विधानसभाओं में विपक्षी पार्टी बन गयी।
इसके साथ ही शुरू हुये संविद सरकारों के प्रयोग को शासन पद्धति का कोई आदर्श उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह तो है कि इसके बाद से यह बात आम जहनियत का हिस्सा बन गयी कि काँग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है। वैसे इस धारणा का प्रस्थान बिंदु भी यही है कि देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिये उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनाना जरूरी है।
1977 में पहली बार केन्द्र में गैर काँग्रेस सरकार बनी थी। इस सरकार में जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में जीती गयी 85 सीटों का मुख्य योगदान था। उस चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी समेत काँग्रेस पार्टी के सभी उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव हार गये थे। लेकिन जब 1980 में हुये अगले आम चुनाव में काँग्रेस ने लगभग सभी सीटें जीत लीं तो देश में उसकी सरकार बन गयी और इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं।
राजनीतिक पार्टियों के भाग्योदय में भी उत्तर प्रदेश एक मानदण्ड का काम करता है। आज का मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी है। लेकिन 1984 में हुये लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश ने नकार दिया तो पार्टी पूरे देश में केवल दो सीटों पर सिमट गयी थी। लेकिन 1989 में उत्तर प्रदेश में उसे सफलता मिली तो भाजपा एक महत्वपूर्ण पार्टी बनी और उसे केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार बनवाने का मौका मिला।
भाजपा ने उत्तर प्रदेश में ही बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद को राजनीतिक स्वरूप दिया और बाद में उसी के बल पर केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। अयोध्या के विवाद को फिर से मुख्यधारा में लाने की चर्चा आज भी है और जानकार बताते हैं कि 2014 में भाजपा अगर सत्ता में आने में सफल होती है तो इसमें उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा योगदान होगा। शायद इसी लिये फिलहाल भाजपा के सबसे ताकतवर नेता और मुख्य चुनाव प्रचारक नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा ध्यान दिया है। उन्हें मालूम है कि अगर दिल्ली में राज करना है तो उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ आना होगा।
अपने सबसे भरोसेमंद साथी अमित शाह को पार्टी का उत्तर प्रदेश प्रभारी नरेंद्र मोदी ने इसी लिये बनवाया है। बताते हैं कि गुजरात में नरेंद्र मोदी के चुनाव का सारा प्रबंध अमित शाह ही करते हैं।
केन्द्र की मौजूदा सरकार हो या अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार, उसे जीवनदायिनी शक्ति उत्तर प्रदेश के नेताओं ने ही बख्शी है। अभी संप्रग सरकार का अस्तित्व केवल इसलिये बचा है कि उसे मुलायम सिंह यादव और मायावती का समर्थन हर बुरे वक्त में मिल जाता है। मायावती ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बचा रखा था और जब उनकी सरकार के मंत्री जगमोहन ने ताज कॉरिडोर मामला शुरू किया तो मायावती की धमकी के बाद भाजपा के राजनीतिक प्रबन्धकों को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था। इसलिये उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व को कभी भी कम करके नहीं आँका जा सकता।
दिल्ली की हर सरकार का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुजरता है। शायद इसी लिये 2014 के लोकसभा चुनाव के लिये भी दोनों मुख्य पार्टियाँ उत्तर प्रदेश को बहुत गम्भीरता से ले रही हैं। मुलायम सिंह यादव और मायावती भी सारी ताकत के साथ जुटे हैं कि अगर केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बने रहना है तो अपने राज्य में उन्हें मजबूती से जीतना पड़ेगा।


