ओबामा की भारत यात्रा : एक हंगामा बेसबब
ओबामा की भारत यात्रा : एक हंगामा बेसबब
राष्ट्रपति ओबामा इस बार गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि बनकर भारत आए। अमरीकी राष्ट्रपति की इस भारत यात्रा पर अभूतपूर्व हंगामा देखने को मिला है। लेकिन, इसमें अचरज की कोई बात भी नहीं है। आखिरकार, यहां दो तत्वों का योग हो रहा था। पहली बात तो यह कि दुनिया के सबसे ताकतवर राज नेता के दौरे का मामला था। अमरीका के राष्ट्रपति की हैसियत से ओबामा निस्संदेह इस समय के सबसे ताकतवर राज नेता हैं। इसके अलावा पहली बार है कि किसी अमरीकी राष्ट्रपति को भारत के गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि बनने के लिए आमंत्रित किया गया था। उसके ऊपर से यह भी पहली बार ही हो रहा है कि कोई अमरीकी राष्ट्रपति अपने कार्यकाल में, दूसरी बार भारत के दौरे पर आ रहा था। दूसरी बात यह है कि हाइप, ओबामा के मेजबान नरेंद्र मोदी की कार्यशैली की जान ही है। बुजुर्ग भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसमें मोदी की महारत को देखकर उन्हें एक सफल ईवेंट मैनेजर कहा था। इन दोनों तत्वों के योग ने ओबामा के तीन दिन के दौरे को ऐसी जबर्दस्त हाइप दे दी, जहां यह भी भुला दिया गया है कि गणतंत्र दिवस में मुख्य मेहमान बनने का नियंत्रण देकर, भारत ने ओबामा को सम्मान दिया है, न कि यह आमंत्रण स्वीकार कर ओबामा ने भारत पर कोई एहसान किया है।
याद रहे कि ओबामा सिर्फ भारत के गणतंत्र दिवस में आने वाले पहले अमरीकी राष्ट्रपति ही नहीं थे, इसके लिए आमंत्रित किए जाने वाले पहले राष्ट्रपति भी थे। इसीलिए, अचरज नहीं कि ओबामा का यह दौरा अमरीका से नजदीकियां बढ़ाने की मोदी सरकार की उत्सुकता को ही ज्यादा दिखाता है, न कि दोनों देशों के रिश्तों में आ रही वास्तविक गर्मी को। यह इसके बावजूद है कि राष्ट्रपति ओबामा ने भी अपने कार्यकाल के आखिर में हो रही इस यात्रा के महत्व को रेखांकित करने की अपनी ओर से पूरी कोशिश की है। इसी क्रम मेंं एक भारतीय समाचार चैनल को दिए अपने खास साक्षात्कार में उन्होंने भारत की संभावनाओं की ही नहीं, मोदी के नेतृत्व की भी जमकर तारीफें की हैं। लेकिन, यह संयोग ही नहीं है कि इस साक्षात्कार की खबरों के साथ ही हमारे देश को एक और खबर सुनने को मिल रही थी। ओबामा की भारत यात्रा के मौके पर, अमरीका के साथ नाभिकीय सहयोग का रास्ता खोलने के लिए, दोनों देशों के अधिकारियों के बीच वाशिंगटन में हो रही बातचीत फिर अटक गयी थी।
दिलचस्प बात यह है कि इस बातचीत को भारत के नाभिकीय जवाबदारी कानून ने नहीं अटकाया था, जिसके दुर्घटना की सूरत में भरपाई की जिम्मेदारी के प्रावधानों को बदलवाने के लिए अमरीका के दबाव में, नरेंद्र मोदी की सरकार तरह-तरह की रियायतें देने के लिए तैयार भी हो गयी थी। बातचीत अटकी थी अमरीका की ओर से यह नयी शर्त जोड़े जाने के चलते कि उसे नाभिकीय सामग्री के मामले में भारतीय छोर पर निगरानी रख्रने की इजाजत होनी चाहिए। याद रहे कि उच्च सैन्य प्रौद्योगिकी की आपूर्तियों के मामले में भी अमरीका की ऐसी ही ‘‘अंतिम उपयोग’’ की निगरानी की शर्त खींचतान का मुद्दा बनी रही है। यह इसके बावजूद है कि अब से तीन वर्ष पहले ही अमरीका ने रूस को पछाडक़र भारत के लिए हथियारों के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता के दर्जे पर कब्जा कर लिया था। जाहिर है कि कोई भी संप्रभु देश, इस तरह की निगरानी की इजाजत नहीं दे सकता है। आखिरकार, हुआ यह कि ओबामा प्रशासन उक्त नयी शर्त के दबाव के सहारे मोदी सरकार से, भारतीय असैन्य नाभिकीय जवाबदारी कानून को धता बताकर नाभिकीय आपूर्ति सौदे किए जाने का आश्वासन हासिल करने में कामयाब हुआ और इस यात्रा के दौरान नाभिकीय समझौते को ठोस आपूर्ति समझौतों के रूप में अमल में उतारे जाने के समझौते पर दस्तखत कर दिए गए। जैसी कि उम्मीद की जा सकती थी, मोदी सरकार देश कानून से इस समर्पण को और वह भी ऐसे कानून से समर्पण को जिसके लिए विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने भी वामपंथ की तरह ही जोर लगाया था, अपनी बड़ी कूटनीतिक कामयाबी के तौर पर पेश कर रही है।
बेशक, ओबामा की इस दूसरी भारत यात्रा के मौके पर आर्थिक व सैन्य सहयोग के अनेक कदमों की भी घोषणा की गयी है। भारत और अमरीका के बीच सैन्य सहयोग रूपरेखा समझौते का अगले दस साल के लिए नवीकरण, इन कदमों में खास है। वास्तव में नरेंद्र मोदी की पिछली अमरीका यात्रा के दौरान ही, 2005 में यूपीए सरकार द्वारा किए गए उस समझौते की अवधि पूरी होने के बाद, अगले दस साल के लिए नवीकरण के निर्णय की घोषणा कर दी गयी थी। जैसाकि अनेक टिप्पणीकारों ने दर्ज किया है, यह सिर्फ एक पहले से चले आते समझौते की अवधि बढ़ाए जाने का ही मामला नहीं है। यह भारत को रणनीतिक-सैन्य पहलू से अमरीका के साथ और भी ज्यादा मजबूती से तथा गहराई से बांधे जाने का भी मामला है। जैसाकि ओबामा की यात्रा की पूर्व-संध्या में प्रकाशित, भारत में अमरीका के पिछले राजदूत फ्रैंक वाइजनर के लेख से स्पष्टï है, अमरीका की नजर में इस रणनीतिक रिश्ते का एक महत्वपूर्ण मकसद, चीन की घेराबंदी करना है। यह दूसरी बात है कि अमरीकी इसे ‘चीनी महत्वाकांक्षाओं से, उसके पड़ोसियों तथा अमरीका के लिए पैदा होने वाले खतरे’ की रोक-थाम की व्यवस्था के तौर पर ही पेश करना चाहते हैं। जाहिर है कि यह रिश्ता, अफगानिस्तान से लेकर खाड़ी क्षेत्र तक, सभी मामलों में अमरीकी रणनीतिक मंतव्यों के साथ ही भारत को बांधने की कोशिश करता है। गुटनिरपेक्षता के आदर्श को ही नहीं, एक स्वतंत्र विदेश नीति के लक्ष्य को भी भारत सरकार ने बाकायदा त्याग ही दिया लगता है। यह न सिर्फ भारत के दूरगामी हितों के खिलाफ है बल्कि तत्काल उसकी प्रतिष्ठïा भी घटाता है। अमरीका तथा पश्चिम के पुचकारने को ही प्रतिष्ठा का पर्याय मान लिया जाए तो दूसरी बात है।
अमरीका के राष्ट्रपति के साथ आए उद्यमियों का लंबा-चौड़ा काफिला, भारत के साथ आर्थिक सहयोग में अमरीका की दिलचस्पी का ही सबूत है। यह दिलचस्पी स्वाभाविक भी है। छ: साल से जारी विश्व आर्थिक मंदी की मार से अमरीका भी अछूता नहीं रहा है और अब भी पूरी तरह से उबर नहीं पाया है। अमरीका में बेरोजगारी अब भी संकट के दौर के ऊंचे स्तर पर ही बनी हुई है। ऐसे में अमरीकी उद्यमी बाहर निवेश के मौकों की तलाश में उतने नहीं हैं, जितने अपने मालों के लिए नये बाजारों की तलाश में हैं। इसलिए, उत्पादन में निवेश के लिए उनके किसी उल्लेखनीय पैमाने पर भारत की ओर रुख करने की संभावना कम ही है। यह इसके बावजूद है कि नरेंद्र मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ के अपने नारे के जरिए, अमरीका समेत पश्चिमी उद्योग जगत के लिए लाल कालीन बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पिछले ही दिनों गुजरात में हुए प्रवासी दिवस और फिर ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के आयोजनों का यही सार था।
मोदी सरकार ने बीमा, बैंक, प्रतिरक्षा उत्पादन आदि क्षेत्रों के दरवाजे विदेशी निवेश के लिए और ज्यादा खोलने के साथ ही, विदेशी पूंजी का रास्ता साफ करने के लिए धड़ाधड़ कदम उठाए हैं। इसके बावजूद, जैसाकि पिछले दिनों रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी याद दिलाया था, जब तक भारत में आम जनता के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने के जरिए घरेलू बाजार का विस्तार नहीं होता है, वित्त बाजार में आवारा पूंजी के आने के अलावा, उत्पादक आधार को बढ़ाने वाला निवेश किसी बड़े पैमाने पर नहीं आने जा रहा है। उत्पादक निवेश को अंतत: बाजार चाहिए। ऐसे निवेश से उत्पादित माल के खरीदने वाले भी तो होने चाहिए। जब निर्यात बाजार भी नहीं है और घरेलू बाजार भी नहीं है, निवेशकर्ता क्यों आने लगे? लेकिन, नरेंद्र मोदी को इसके सिवा विकास का और कोई रास्ता दिखाई ही नहीं देता है। इसीलिए, मोदी सरकार ने ओबामा की यात्रा को असाधारण हाइप दी है ताकि रिश्तों की घनिष्ठता की आड़ में अमरीकी पूंजी के लिए और ज्यादा रास्ता खोल सके तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों में उसके रणनीतिक स्वार्थो के साथ खुद को और कस कर बांध सके। लेकिन, बदले में अमरीका से कोरे आश्वासनों और झूठी तारीफों के सिवा और कुछ मिलने नहीं जा रहा है। क्या भारत के हित इससे बेहतर सलूक के हकदार नहीं हैं!
राजेंद्र शर्मा


