शम्स तमन्ना
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने भारतीय राजनीति के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा हमला अंजाम दिया है जिसमें राज्य के दिग्गज नेताओं का एक साथ नरसंहार किया गया है। इस हमले में राज्य काँग्रेस के बड़े नेताओं को जिस प्रकार से मौत के घाट उतारा गया उससे राज्य की खुफियातन्त्र की नाकामी उजागर हुयी है। हमले के पूरे परिदृश्य और चश्मदीदों की बातों को जोड़कर देखें तो साफ ज़ाहिर होता है कि निशाने पर प्रदेश काँग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और महेंद्र कर्मा थे। यह वही महेंद्र कर्मा हैं जिनकी अगुवाई में राज्य में नक्सलियों के सफाये के लिये सलवा-जुड़ूम शुरू किया गया था। महेंद्र कर्मा विपक्षी काँग्रेस के लीडर थे, परन्तु उनके इस अभियान को राज्य की भाजपा सरकार का भरपूर समर्थन प्राप्त था। सलवा जुड़ूम के नाम पर गाँव-गाँव में नौजवानों के हाथों में बन्दूक थमा दी गयी। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने शुरू से ही इसका विरोध किया था। उनका आरोप था कि सलवा जुड़ूम के कारण नक्सली से अधिक बेकसूर आदिवासियों का खून बह रहा है। निजी दुशमनी की आड़ में किये जा रहे हत्या को नक्सली अभियान का नाम दिया जा रहा है। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणियों और आदेश के बाद इसे बन्द किया गया। उस वक्त से ही महेंद्र कर्मा नक्सलियों की हिट लिस्ट में आ चुके थे। कई बार उनपर जानलेवा हमला भी हुआ लेकिन भाग्य उनका साथ देता रहा। उनकी जान का खतरा देखते हुये उन्हें उच्च श्रेणी की सुरक्षा मुहैया भी करायी गयी थी। लेकिन दरभा के जीरम घाट में जो कुछ हुआ वह खुफिया सूचना की नाकामी का ही परिणाम है। इस वर्श के अन्त में राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र मुख्यमन्त्री रमन सिंह के कार्यकाल के खिलाफ काँग्रेस ज़ोरदार अभियान चला रही है। जिसके तहत राज्य भर में परिवर्तन यात्रा निकालकर जनता के बीच सरकार की नाकामियों को बताया जा रहा था। खास बात यह है कि इसमें पूर्व मुख्यमन्त्री अजित जोगी और विद्याचरण शुक्ल अपने अपने मतभेद भुलाकर एक मंच पर आ गये थे। जो राज्य में काँग्रेस के लिये एक अच्छा संकेत माना जा रहा था। लेकिन इस हादसे में राज्य के बड़े नेताओं की हत्या से पार्टी को जबरदस्त झटका लगेगा।

नेताओं के काफिले पर हुये हमले के बाद एक बात स्पष्ट हो गयी है कि नक्सली अब भी मज़बूत हैं और जब भी उन्हें मौका मिलता है वह अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हैं। हालाँकि उनके खिलाफ समय समय पर सुरक्षा बलों को भी कामयाबी मिलती रही है और कई बड़े स्तर के नक्सली कमाण्डरों को गिरफ्तार अथवा मुठभेड़ में मार गिराने में सफलता मिली है जिससे माओवादियों की कमर भी टूटी है। लेकिन हर बार वह किसी न किसी रूप में इसका बदला लेते रहे हैं। जीरम घाट में हुआ हमला भी इसी बदले का एक हिस्सा है। सूत्रों की मानें तो पिछले दिनों सुरक्षा बलों ने जिन माओवादियों को मुठभेड़ में मार गिराने में सफलता पायी थी दरअसल वह सेन्ट्रल कमेटी के कोर ग्रुप के मेम्बर थे जो किसी महत्वपूर्ण रणनीति

को तैयार करने के लिये जुटे थे। लेकिन इसकी खबर सुरक्षा बलों को लग गयी और अलग अलग कैम्पों से सीआरपीएफ की टुकडि़यों ने उन्हें घेरकर मार गिराया। इतनी बड़ी सफलता को मीडिया से छिपाकर रखा गया था। वैसे नक्सली काँग्रेस और भाजपा दोनों की ही यात्रा का विरोध कर रहे थे और उन्हें अपने इलाके से गुजरने पर गम्भीर परिणाम की चेतावनी दे रहे थे। जिसे चुनाव की आहट में दोनों ही पार्टियाँ नजरअंदाज़ करती आ रही थीं।

बहरहाल इस घटना का राजनीतिक रूप से किस पार्टी को फायदा मिलेगा इसका आंकलन करना अभी मुश्किल होगा। लेकिन इसके परिणामस्वरूप निहत्थे और बेकसूर आदिवासियों पर क्या गुजरेगी, यह चिन्ता का विषय है जिसकी ओर शायद ही किसी का ध्यान गया है। कई बार सुरक्षा बलों पर नक्सली के नाम पर स्थानीय आदिवासियों को मारने के संगीन आरोप लगते रहे हैं। हालाँकि यह अब तक पूरी तरह से साबित नहीं हो पाया है लेकिन कहते हैं कि बिना बात के धुँआ नहीं उठता है। पिछले वर्ष नवंबर में छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के बासागुड़ा में सीआरपीएफ की ओर से कहा गया था कि उनके साथ मुठभेड़ में नक्सली मारे गये हैं जो बाद में स्थानीय आदिवासी निकले। इस घटना से दिल्ली तक हड़कम्प मच गया था। यह पहला मौका नहीं था जब माओवादी के शक में स्थानीय आदिवासियों को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित होना पड़ा था। इस तरह के बढ़ते हादसों के बाद नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के आदिवासी युवा पलायन को मजबूर हो रहे हैं। जो बच गये हैं वह कभी पुलिस के मुखबिर की शक़ में नक्सलियों की गोली का निशाना बन रहे हैं तो कभी बन्दूक की नोंक पर जबरन घर में घुसने वाले नक्सलियों का हिमायती होने के नाम पर पुलिस की गोली का शिकार हो रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नक्सली इसी देश के नागरिक हैं जिन्होंने चारू मजुमदार और कानू सान्याल के नेतृत्व में 60 के दशक में सिस्टम के खिलाफ हथियार उठाया था जो आज तक बदस्तूर जारी है। आज यह पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से निकलकर देश के 40 प्रतिशत भू-भाग पर रेड कॉरिडोर के रूप में स्थापित हो चुका है। आज इसका प्रभुत्व छत्तीसगढ़ में स्थापित हो चुका है जहाँ उनकी सरकार चलती है। वर्तमान में नक्सलियों का मुख्य उद्देश्य जनता के हक़ में काम करने से अधिक लेवी वसूलने से लेकर हत्याएं करना तक शामिल है। यह सत्य है कि इनके ग्रुप में स्थानीय आदिवासी भी हैं जो किसी न किसी रूप में भ्रष्ट राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था से प्रताड़ित हुये हैं जिसका फायदा माओवादी उठाते हैं और उनका ब्रेन वॉश करके उन्हें अपने ग्रुप में शामिल कर लेते हैं। लेकिन चन्द नौजवानों के बन्दूक उठाने की सज़ा बस्तर के पूरे आदिवासी समाज को भुगतनी पड़ती है। एक बार फिर नक्सलियों की खोज में कोबरा कमांडो और सुरक्षा बलों का दस्ता निकल पड़ा है।