अगर बाबासाहेब संघ परिवार में शामिल हो जाते तो अंबेडकरी आंदोलन का क्या होता आखिर.....

क्या यह कहने का वक्त नहीं आ गया है कि बस बहुत हो चुका? या बास्तांते!
पलाश विश्वास
सबसे पहले हमारी अत्यंत आदरणीया लेखिका अनिता भारती जी की अपील, जिसका हम तहे दिल से समर्थन करते हैं-
सभी साथियों से अपील है कि इस बार 14 अप्रैल को बाबा साहेब के जन्मदिन पर "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" को एक बार फिर, दुबारा से खुद पढ़ें, दूसरों को भी पढ़ने के लिये प्रेरित करें। और सबसे अच्छा तो यह रहेगा कि इस बार 14 अप्रैल को हम इस किताब को एक दूसरे को गिफ्ट दें और बाबासाहेब के जन्मदिन को सेलिब्रेट करें।
हमारे हिसाब से हर भारतीय के लिये इस देश के ज्वलंत सामाजिक यथार्थ को जानने समझने महसूस करने और उसका मुकाबला करने के लिये यह अध्ययन अनिवार्य है। जो अंबेडकर के अनुयायी हैं, उनके कहीं ज्यादा उन लोगों के लिये जिन्हंने अभी अंबेडकर को पढ़ा ही नहीं है और जो अंबेडकरी आंदोलन के शायद विरोधी भी हों।
भारतीय लोकगणराज्य की मुख्य समस्या वर्णवर्चस्वी नस्ली जाति व्यवस्था है, जिसकी अभिव्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में होती है।
भारतीय लोकतंत्र, राष्ट्र, राजकाज, शिक्षा, राजनीति, कानून व्यवस्था, अर्थशास्त्र कुछ भी जाति के गणित के बाहर नहीं है।
बाबासाहेब अंबेडकर ने इस महापहेली को सुलझाने की अपनी ओर से भरसक कोशिश की और उसका एजंडा भी दिया। जिसे अंबेडकरी आंदोलन भुला चुका है। लेकिन अतीत और वर्तमान के दायरे से बाहर भारत को भविष्य की ओर ले जाना है तो इस परिकल्पना की समझ विकसित करना हर भारतीय नागरिक के लिये अनिवार्य है।
जातिभेद के उच्छेद बिना हम न भारत के संविधान को समझ सकते हैं और न संसाधनों और अवसरो के न्यायपूर्ण बंटवारे का तर्क, न समता और सामाजिक न्याय का मूल्य और न भारतीयता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति धम्म।
गौरतलब है कि कोई एक प्रकाशक नहीं है इस कालजयी रचना का। हर भाषा में यह रचना उपलब्ध है।
नेट पर अंबेडकर डाट आर्ग खोलकर अंग्रेजी के पाठक तुरंत इसे और अंबेडकर के दूसरे तमाम अति महत्वपूर्ण ग्रंथ बांच सकते हैं।
अंबेडकरी संगठनों ने अपने प्रकाशनों से जाति उच्छेद विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किया हुआ है तो नवायना जैसे प्रकाशन ने हाल में मशहूर लेखिका अरुंधति राय की प्रस्तावना के साथ भी "जातिभेद का उच्छेद यानि ANNIHILATION OF CASTE" को नये सिरे से प्रकाशित किया है।
अरुंधति की प्रस्तावना पर जिन्हें आपत्ति है,वे इसके बिना भी जाति उच्छेद का पाठ ले सकते हैं।
यकीन मानिये कि हर भारतीय अगर कम से कम एकबार जाति उच्छेद पढ़ लें और गंभीरता के साथ उस पर विवेचन करें तो हमें तमाम समस्याओं को नये सिरे से समझने और सुलझाने में मदद मिलेगी।
आखिर हम कितना गहरा खोदेंगे?
कल ही फेसबुक पर भाजपाई केसरिया रामराज उर्फ उदित राज का पोस्टर लगा वोट के लिये। इन रामराज को मैं जानता रहा हूं। दलित मुद्दों पर लंबे अरसे से उनकी सक्रियता और खासकर धर्मांतरण के जरिये बाबा साहेब के बाद देश भर में हिंदुत्व के खिलाफ सबसे ज्यादा हलचल मचाने वाले उदित राज को बिना संवाद पूर नवउदारवादी दो दशकों से देखता रहा हूं।
रामदास अठावले और राम विलास पासवान अपने ही खेल में जहां हैं, वहीं सत्ता से बाहर उनका कोई वजूद है ही नहीं।
उनके उलट, उदित राज कहीं सीमित लक्ष्य के साथ एक निश्चित रणनीति के साथ मोर्चा बांधे हुए थे। इधर उनसे थोड़ी बहुत बात हुई भी।
इस फेसबुकिया पोस्टर पर बेहद शर्मिंदगी इस परिचय के कारण महसूस हुई, जो राम विलास और रामदास के खुल्ले खेल से कभी हुई नहीं। मेरे दिलोदिमाग में वही इलाहाबाद के मेजा के युवा साथी रामराज हैं, जिनसे ऐसी उम्मीद तो नहीं ही थी।
मैंने शर्म शर्म लिखा तो पोस्टर दागने वाले सज्जन ने सीधे मुझे पंडित जी संबोधित करते हुए पूछ डाला कि शर्मिंदगी क्यों।
मैंने जवाब भी दे दिया कि जिस हिंदुत्व को खारिज करके बौद्धमय जाति उच्छेदित भारत के बाबासाहेब के सपने को पुनर्जीवित करने की आस जगायी उदितराज ने, अब वे उसी फासिस्ट हिंदुत्व के सिपाहसालार बन गये।
हालांकि यह सिरे से बता दूं कि निजी बातचीत में उदित राज मानते रहे हैं कि जाति उन्मूलन असंभव है। धर्मांतरण का उनका तर्क भी बाबासाहब का अनुकरण है।
उदितराज मानते रहे हैं कि अंबेडकरी आंदोलन को हिंदुत्व को खारिज करके बौद्धमय होना चाहिए। अब भी अंबेडकर के अनेक अनुयायी हैं जो बुद्धम् शरणम् गच्छामि के प्रस्थानबिंदू से बात शुरु और वह अंत करते हैं।
उदितराज सामाजिक सांस्कृतिक अंबेडकरी आंदोलन मसलन बामसेफ के सख्त खिलाफ रहे हैं तो बहन मायावती के सर्वजनहिताय सोशल इंजीनियरिंग का भी वे लगातार विरोध करते रहे हैं। वे अंबेडकरी आंदोलन को शुरू से विशुद्ध राजनीति मानते रहे हैं।
धर्म, राजनीति और पहचान के सवाल पर उनके मतामत सीधे हिंदुत्व के विरुद्ध रहे हैं।
इसे इस तरह समझिये कि अगर बाबासाहेब संघ परिवार में शामिल हो जाते तो अंबेडकरी आंदोलन का क्या होता आखिर।
बाबासाहेब ने संविधान रचना के बाद देश का कानून मंत्री होते हुए वर्णवर्चस्वी नस्ली वंशवादी कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और अपनी अलग पार्टी बनायी।
तो बाबासाहेब के नाम जापते हुए जो लोग संघ परिवार में शामिल हो रहे हैं और अपने अपने हिसाब से वे हमें अंबेडकरी मिशन में होने का यकीन दिलाते रहे हैं तो उनके एकमुश्त केशरिया होने पर अपनी समझ पर हमें शर्म तो आनी ही चाहिए।
यहीं नहीं, हमने तीन राम संघ के हनुमान वाले आनंद तेलतुंबड़े के आलेख का लिंक देते हुए अपील की दलितों को कम से कम ऐसे लोगों को वोट देना नहीं चाहिए जो अंबेडकरी आंदोलन से विश्वासघात कर चुके हैं।
इस पर प्रतिक्रिया आयी कि आप न पंडित जी हैं और न इमाम। आप फतवा जारी नहीं कर सकते।
फिर पूछा गया कि आप कौन होते हैं, ऐसी अपील जारी करने वाले।
हम भारत के आम नागरिकों में से एक हैं, जाहिर है। हम उस मूक बहिष्कृत भारत की भी धूल हैं, जिनके लिये बाबासाहेब अंबेडकर मर मिटे।
अब जब जनादेश कुरुक्षेत्रे उनकी जयंती के ढोल ताशे फिर मुखर हैं लेकिन बाबासाहेब का भारत अब भी मूक है।
तीनों अंबेडकरी रामों के अलावा राजनीतिक यथास्थिति बनाने के जिम्मेदार तमाम मौकापरस्त दलबदलुओं, चुनाव मैदान में खड़े विज्ञापनी मॉडलों, घोटालों के रथी महारथी, मानवाधिकार के युद्धअपराधी, दागी हत्यारों और बलात्कारियों और कॉरपोरेट तत्वों को बाहुबलियों और धनपशुओं के साथ खारिज करने की भी अपील जरूरी है।
हम चाहे नोटा का इस्तेमाल करें या वोट ही न दें, जनादेश पर फर्क तो पड़ेगा नहीं।
तो सचेत जनता अगर इन तत्वों को पहले ही खारिज कर दें दल मत निरपेक्ष होकर तो चाहे सरकार जिसकी बनें, लोकतंत्र फिर भी बहाल रहेगा और उस लोकतंत्र में हक हकूक की लड़ाई जारी रहेगी।
अन्यथा उपरोक्त श्रेणियों के राजनेता भारतीय लोकतंत्र और भारतीय जनगण दोनों को बाट लगाकर अपने हिस्से का भारत बनायेंगे और हमारा भारत कौड़ी के मोल बेच देंगे।
अरुंधति ने 2004 साल में ऱाजग के भारत उदय के नारे पर जो मुद्दे उठाये थे, आज रामावली के नीचे छुपाये खूनी आर्थिक एजंडे के धर्मोन्मादी ब्रांड इंडिया समय के भी संजोगवश मुद्दे वहीं हैं। इस पूरे आलेख पर संवाद की गुंजाइश है। इसीलिये यह आलेख।
इसीलिये यह आलेख क्योंकि चुनाव मैदान में आमने सामने डटे कौरवी वंश के कुरु पांडवों के जनसंहारी एजंडा में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।
दोनों पक्ष बाशौक एक दूसरे पर अपना अपना एजंडा चुराने का आरोप लगा सकते हैं, जो इस महासमर का एकमात्र सच है।
वह सच यह है कि जनादेश का अनुमोदन जो हो रहा है, उसका असली मकसद देहाती कृषि भारत का सफाया है।
उत्पादन प्रणाली का ध्वंस है।
जल जंगल जमीन आजीविका नागरिक और मानवाधिकारों से बेइंतहा बेदखली है।
प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधनों की खुली लूट खसोट है।
भारत बेचो अभियान है।
अबाध कालाधन, अबाध भ्रष्टाचार और अबाध विदेशी पूंजी है।
लोक गणराज्य और लोककल्याणकारी राज्य का संविधान समेत विसर्जन है।
आरक्षण समेत सरकारी क्षेत्र और सरकारी नौकरी का पटाक्षेप है।
निरंकुश खुल्ला बाजार है और निरंकुश कैसिनो कार्निवाल छिनाल वित्तीय पूंजी का बार डांस आइटम थीमसांग है।
चुनाव घोषणापत्र तो ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी है।
दोनों हमशक्ली डुप्लीकेट हैं। चाहे राम चुने श्याम, अंजामे गुलिस्तान कब्रिस्तान से बेहतर न होगा।
अरुंधति ने यूपीए के उत्थान के ब्रह्म मुहूर्त पर जो लिखा था, आज उसके अवसान अवसाद समय में भी सच किंतु वही है।
भारत में एक नये तरह का अलगाववादी आन्दोलन चल रहा है। क्या इसे हम 'नव–अलगाववाद' कहें? यह 'पुराने अलगाववाद' का विलोम है। इसमें वे लोग जो वास्तव में एक बिलकुल दूसरी अर्थ–व्यवस्था, बिलकुल दूसरे देश, बिलकुल दूसरे ग्रह के वासी हैं, यह दिखावा करते हैं कि वे इस दुनिया का हिस्सा हैं। यह ऐसा अलगाव है जिसमें लोगों का अपेक्षाकृत छोटा तबका लोगों के एक बड़े समुदाय से सब कुछ– जमीन, नदियाँ, पानी, स्वाधीनता, सुरक्षा, गरिमा, विरोध के अधिकार समेत बुनियादी अधिकार–छीन कर अत्यन्त समृद्ध हो जाता है। यह रेखीय, क्षेत्रीय अलगाव नहीं है, बल्कि ऊपर को उन्मुख अलगाव है। असली ढाँचागत समायोजन जो 'इंडिया शाइनिंग' को, 'भारत उदय' को भारत से अलग कर देता है। यह इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को सार्वजनिक उद्यम वाले भारत से अलग कर देता है।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।