और बहा ले जाए बुरे वक्तों को बुरे वक्तों की कविता
और बहा ले जाए बुरे वक्तों को बुरे वक्तों की कविता
कथा के मुकाबले कविता ज्यादा वैश्विक होती है
मुद्दों को समझने और संप्रेषित करने के लिए राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमण अनिवार्य है
पलाश विश्वास
दृश्यांतर के ताजा अंक में प्रकाशित हिंदी के शीर्षस्थ कवि कुंवर नारायण की यह कविता हमारी मौजूदा चिंताओं को कहीं बेहतर अभिव्यक्त करती है। आज संवाद का आरंभ उनकी दो निहायत प्रासंगिक कविताओं से-
विश्वबोध की सुबह
इतनी बेचैन क्यों है सुबह?
क्या हुआ रातभर …
हत्याएं...बलात्कार लूचपाट…
यह कैसा शोर?
क्यों बाग रही बदहवास हवाएं
जंगलों की ओर?
डर लगता किसी से पूछते
क्या हुआ सारी रात?
लोग कुछ कह रहे दबी जुबान से
शायद कभी नहीं बीतेगा बुरा वक्त!
मैं ऊंचा सुनने लगा हूँ
बदल गया दूसरों से
मेरी बातचीत का अंदाज
बाहर कुछ होता रहता हर वक्त
मैं छिपकर जीता हूँ अपने अंदर के वक्त में भी
एक अजीब तरह की प्रतीक्षा में
कोई आने वाला है
कुछ होने वाला है जल्दी ही..
ऐसा कुछ जैसा कुछ
कभी नहीं हुआ इससे पहले
मेरी अपेक्षा स्थापित
यह कैसा विकल विश्वबोध!
कैसी हो बुरे वक्तों
की कविता
कैसी हो बुरे वक्तों की कविता?
कवि बदलते
कविताएं बदलतीं
पर बदलते नहीं बुरे वक्त!
बहुत-सी मुश्किलें शब्द ढूंढती
बिल्कुल आसान भाषा में बूंद-बूंद
चाहती कि वे उठें भाप की तरह
अथाह गहरे समुद्रों से
पहाड़ों से टकराएं बादलों की तरह
घेर कर बरसें पृथ्वी को
जैसे आंधी, पानी, बिजली..
और बहा ले जाए बुरे वक्तों को
बुरे वक्तों की कविता!
साभारः दृश्यांतर
संपादक अजित राय को धन्यवाद इन कविताओं के लिए। वे हमारे पूर्व परिचित हैं। अब संपादक भी हैं और शायद उन्हें मित्र कहने की भी हमारी औकात नहीं है। जब हमारे पुरातन विख्यात मित्र हमारी मित्रता को अवांछित अपमानजनक मानते हों, तो हमारे सहकर्मी संपादक कवि शैलेंद्र शायद सही कहते हैं, तुम स्साले चिरकुट हो। हर किसी को दोस्त मान लेते हो। हर कोई दोस्त होता नहीं है,समझा करो।
शैलेंद्र. इलाहाबाद से हमारे मित्र हैं और हम लोग खुलकर बोलते हैं। गाली गलौज करने वाले मित्रों का मैं बुरा नहीं मानता इसलिए कि पुख्ता दस्ती शायद गाली गलौज की भाषा मांगती है। हमने मित्रों से निवेदन किया है कि खामोशी की बजाय गाली गलौज की सौगात हमारी पहली पसंद है। वे अहमत हों और अपनी असहमति के हक में उनकी कोई दलील न हो तो वे बाशौक गाली गलौज मार्फत अपनी असहमति दर्ज करा सकते हैं जो महान भारतीय संस्कृति और लोक परंपरा दोनों हैं।
बहरहाल इस कविता का विश्वबोध हैरतअंगेज है और नहीं भी। समकालीन कविता परिदृश्य में वैश्विक वर्चस्ववाद के खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें चुनिंदा हैं,इसलिए हैरत अंगेज। खासकर दूरदर्शन ठिकाने से प्रकाशित भव्य पत्रिका में। हैरतअंगेज इसलिए नहीं क्योंकि आखिरकार कुंवर नारायण बड़े कवि हैं।
आलोचक और अति उदार समीक्षाएं, पुरस्कार और प्रतिष्ठा से कोई बड़ा कवि बनता नहीं है। वरना वाल्तेयर आज भी प्रासंगिक नहीं होते जिन्हें लिखने के एवज में हमेशा निर्वासन, कैद की सजा और यंत्रणा मिलती रहीं और आग में जलने के बावजूद अग्निपाखी की तरह उनकी कविताएं आज भी जिंदा है।
विश्वबोध ही कविता और कवि को महान और प्रासंगिक बनाता है। इसे यूँ समझिये कि अगर शेयर बाजार में आपका दांव है और आपको वैश्विक इशारों को समझने की तहजीब और तमीज न हो तो गयी भैंस पानी में।
इस सिलसिले में यह कहना शायद मुनासिब ही होगा कि शायद यह पहली बार है कि मैं कुंवर नारायण जी की किसी कविता की चर्चा कर रहा हूँ। उनकी कविताओं को न समज पाने का डर लगता है। जैसे हमारे तीन अत्यंत प्रिय अग्रजों मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल और नीलाभ की दृष्टि में अस्सी के दशक में शमशेर सबसे बड़े कवि थे। मार्कंडेयजी को इससे बड़ी शिकायत थी। कहते थे, मंगलेश बहुत बदमाश है। शमशेर की कुछ पंक्तियों के लिए पांच सौ रुपये देता है और हम जो लिखे, उसके लिए फकत सौ रुपये।
मगर हमें फिल्म ओमकारा की बोली की तरह शमशेर हमेशा दुर्बोध्य लगते रहे। उनके कविता संग्रह और कुंवर नारायण के भी, हमारे पास हैं, लेकिन हमने कभी इन दो बड़े कवियों को समझने की हिम्मत नहीं कर पाये।
बाबा नागार्जुन बड़े मस्त थे। शलभ को वे लंबी कविताओं का मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़े कवि मानते थे, लेकिन राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन और नागार्जुन की इस औघड़ तिकड़ी के बाबा त्रिलोचन जी को आधुनिक केशवदास कहने से परहेज नहीं करते थे।
लोक और शास्त्रीय दोनों विधाओं में समान दखल और चकित कर देनी वाली विद्वता और उसे सटीक अभिव्यक्ति देने वाले त्रिलोचन हमेशा हमारे आकर्षण के केंद्र रहे तो बाबा का आसन हमेशा हमारे दिल में रहा है। मुक्तिबोध और निराला की तत्सम बहुल कविताओं को हमने अबोध्य नहीं समझा तो इसकी खास वजह उनका विश्वबोध है।
भारत भर में सबसे ज्यादा बाजारू लेखन बंगाल में होता है। सुनील गंगोपाध्याय प्रभाव से बंगाल का समूचा साहित्य कला संस्कृति भाषा परिवेश देहमय आदिम घनघोर है। इस जंगल में अब भी माणिक बंदोपाध्याय का सामाजिक यथार्थबोध और उनकी वैश्विक दृष्टि हमें हमेशा राह दिखाती है। मजे की बात है कि पश्चिम बंगाल तो क्या भारत भर में कोई उनके अनुयायी खोजें तो मुश्किल हो जायेगी। लेकिन बांग्लादेश के तमाम आधुनिक बड़े और युवा संस्कृतिकर्मी अख्तराज्जुमान इलियास की दृष्टि मुताबिक मामिक के ही अनुयायी हैं। इसलिए भारत जैसे इतने बड़े गणतांत्रिक देस के पड़ोसी धार्मिक कट्टरपंथ से लहूलुहान बांग्लादेश में प्रतिरोध का हीरावल दस्ता वहीं संस्कृति प्रदेश है।
इसे हालिया एक किस्से के जरिये बताऊँ। फरवरी में नागपुर में अंबेडकरी उन चुनिंदा डेलीगेट सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक बैठक में शामिल होने का मौका मिला, जिसमें बाबासाहेब और कांशीराम जी के वे साथी भी शामिल थे, जो आंनंद तेलतुंबड़े के मुताबिक हार्डकोर हैं और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। अस्मिता राजनीति के दायरे तोड़कर अंबेडकरी आंदोलन को पुनरुज्जीवित करने के तौर तरीकों पर गर्मागर्म बहसें चल रही थी। पूरा युवा ब्रिगेड था। जिसमें आदिवासी युवाजन भी थे और दक्षिण भारत के लोग भी।
बीच बहस में जब फैसले बहुत विवादित होने लगे तो कश्मीर के हंगामाखेज युवा अधिवक्ता कम सामाजिक कार्यकर्ता ज्यादा, ऐसे अशोक बसोत्तरा ने अचानक बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि आप सारे लोग बातें बड़ी-बड़ी करते हों लेकिन आपकी दृष्टि का दायरा घर, आंगन, गली-मोहल्ले में ही कैद है। अगर बदलाव चाहिए तो इंडिया विजन दिमाग में रखकर तब मुंह खोलि्ये।
इस वक्तव्य का चामत्कारिक असर हुआ और हम लोगों ने सर्वसहमति से तमाम फैसले किये।
विनम्रता पूर्वक आपको बताऊँ कि जब अमेरिका से सावधान लिखा जा रहा था, पूरे एक दशक तक हमारे कथा लेखक इसे नजरअंदाज करते रहे, लेकिन लगभग देश भर के दो चार अपवादों को छोड़कर सभी शीर्षस्थ और युवा कवियों तक ने इस इंटरएक्टिव साम्राज्यवादी अभियान में सहयोग जारी रखा लगातार।
शायद कथा के मुकाबले कविता ज्यादा वैश्विक होती है। कथा का चरित्र आंचलिक होता है।आंचलिकता के बिना कथा की बाषा नहीं बनती और उसमें कालजयी तेवर नहीं आ पाते।
इसके उलट कविता में वैश्विक दृष्टि न होने से कविता कविता नहीं होती। इसी निकष पर आज भी भारतभर में गजानन माधव मुक्तिबोध से बड़ा कोई कवि हुआ नहीं है।
यहां तक कि नोबेल विजेता रवींद्र नाथ टैगोर भी, जिनकी नब्वे फीसद कविताएं निहायत सौंदर्यगंधी प्रेमरसीय रोमांस के अलावा कुछ भी नहीं है। बल्कि रवींद्र ने सामाजिक सरोकारों पर जो गद्य लिखा है, वह अनमोल है।
आपको शायद इस सिलसिले में हमारे प्रयोगों में कुछ दिलचस्पी हों। उदारीकऱण का दशक पूरा होते न होते हम तो साहित्य और पत्रकारिता में कबाड़ हो गये। नेट तभी हमारा विकल्प बना। लेकिन नेट पर हिंदी लिखी नहीं जा रही थी और नेट पर हिंदी के पाठक थे। हमें मजबूरन अंग्रेजी को विकल्प चुनना पड़ा।
हमने भारत देश को ईकाई न मानकर इस समूचे दक्षिण एशिया के जिओ पालिटिकल ईकाई को अपनी अंग्रेजी लेखन की धुरी बनायी। नतीजतन बांग्लादेश और पाकिस्तान की पत्र पत्रिकाओं में मैं खूब छपा। यहां तक कि क्यूबा, चीन और म्यांमार में भी।
दरअसल मुद्दों को समझने और संप्रेषित करने के लिए राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमण अनिवार्य है। कालिदास और अमीर खुसरों की रचनाएं ऐसा आज भी करती हैं और इसीलिए शेक्सपीअर आज भी समान रुप से प्रासंगिक है।
कविता पर यह बात मौजूदा परिदृश्य को समझने और मुद्दों से कारगर तरीके से निपटने के लिए बेहद जरूरी है।
भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में असली मुद्दे एकदम हाशिये पर है। भारतीय साहित्य, संस्कृति और राजनीति में आखिरी बार शायद सत्तर के दशक में मुद्दों को बहाल करने की गंभीर चेष्टा हुई थी। तबसे दूर तक चुप्पी है। जो सबसे खतरनाक है, ख्वाबों के मर जाने से ज्यादा खतरनाक।
कविता को इस यथास्थिति को तोड़ने में पहल करनी चाहिए तभी बुरे वक्त की कविताएं बुरे वक्तों को बहा सकती हैं, अन्यथा नहीं।
हमारा सवाल है कि कुंवर नारायण जी जैसे बुजुर्ग कवि अगर समय की नब्ज को कविता में दर्ज करने में समर्थ हैं तो हमारे युवा कवि क्या कर रहे हैं। यह हमारी चिंता का सबब है। सरदर्द का भी।
क्या समकालीन कवियों और रचनाकरों की कलम और उंगलियों में टोपी या टोंट लगी है?


