कथनी और करनी का विभेद नवारुण दा का जीवनदर्शन नहीं रहा
कथनी और करनी का विभेद नवारुण दा का जीवनदर्शन नहीं रहा
हमारे नवारुण दा और उन्हें हम जैसे जानते हैं
पलाश विश्वास
शुरू में ही यह साफ कर दिया जाये कि नवारुण भट्टाचार्य का रचनाकर्म सिर्फ जनप्रतिबद्ध साहित्य नहीं है, वह बुनियादी तौर पर प्रतिरोध का साहित्य है और वंचितों का साहित्य भी। मंगलेश डबराल के सौजन्य से यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं है, के बागी कवि जिस नवारुण को हम जानते हैं, अपने उपन्यासों, असंख्य छोटी कहानियों और कविताओं के मार्फत शब्द शब्द जनमोर्चे पर गुरिल्ला युद्ध दरअसल उन्हीं नवारुण दा का साहित्य है।
हमारे हिसाब से कविताओं की तुलना में गद्य में नवारुणदा मृत्युउपत्का की घनघोर प्रासंगिकता के बावजूद कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं। लेकिन उनकी हर्बर्ट को छोड़कर बाकी गद्य रचनाओं खासकर फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मालसाट की ज्यादा चर्चा भारतीय भाषाओं में नहीं हो पायी है।
नवारुण दा और महाश्वेता दी दोनों हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का बाकी भाषाओं के रचनाकर्मियों से ज्यादा सम्मान करते रहे हैं और मानते रहे हैं कि हिंदी जनता को संबोधित किये बिना और हिंदी के मार्फत जनमोर्चे की गतिविधियों चलाये बिना हालात बदलने वाले नहीं हैं।
इसके अलावा नवारुणदा खास तौर पर भारतीय भाषाओं के सेतुबंधन के प्रचंड पक्षधर थे और चाहते थे कि समूची रचनात्मकता को समग्रता में जनयुद्ध में त्बदील किया जाये जो दरअसल उनकी बुनियादी रचनाकर्म है।
भारतीय गणनाट्य आंदोलन, भारतीय सिनेमा, भारतीय साहित्य, भारतीय कला समेत तमाम विधाओं में निकट परिजनों की अविराम सक्रियता ने उनकी दृष्टि को प्रखर बनाया है और उनके रचनाकर्म को धारदार।
नवारुण दा ब्यौरे और किस्सों में, बिंब संयोजन और भाषिक कला कौशल, देहवाद, मिथक और विचारधारा की जुगाली में अपनी रचना ऊर्जा का अपचय नहीं किया करते थे।
उनके रचनाक्रम में अरबन इलिमेंट प्रबल होने के कारण अंत्यज समूहों के हाशिये पर रखे बहिष्कृत अस्पृश्य जीवन का अनंत कैनवास है लेकिन वे जैसे शास्त्रीयता का परहेज करते रहे हैं, वैसे ही जनपदी भाषा और लोक का प्रयोग भी करके अपने को देहात से जोड़ने का प्रयास भी उन्होंने नहीं किया।
वर्गीय ध्रूवीकरण मार्फते राज्यतंत्र को सिरे से उखाड़कर जनवादी शोषन विहीन वर्गविहीन समता और न्याय के लिए उनकी जो विलक्षण रचना प्रक्रिया है, वहां आप जनपदों को पल पल हर कदम पर मौजूद पायेंगे, भाषा और आचरण के स्तर पर, जबकि वे लोक मुहावरों के बजाय भदेश शहरी भाषा का ही इस्तेमाल करते रहे हैं और उनकी यह भाषा भद्रलोक की आभिजात भाषा भी नहीं है। लेकिन उनके लिखे शब्दों को आप गाली गलौच के स्तर पर किसी भी हालत में नहीं देख सकते।
भाषा बंधन की शुरुआती टीम में शामिल होने की वजह से बहुत संक्षिप्त दौर के लिए नवारुणदा को बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला तो उन्हें अपने लेखन की तरह हमेशा अनौपचारिक और स्ट्रेट फारवर्ड पाया। लैंग्वेज वर्क से उन्हें सख्त नफरत थी और वे न जीवन में और न साहित्य में लफ्फाजी करते रहे। उनका आब्जर्वेशन सरिजकल आपरेशन की तरह परफेक्ट है और वहां वे कोई चूक या गुंजाइश नहीं रखते। उनके लिखे में वहीं किसी शब्द को एडिट करने की भी कोई संभावना नहीं थी।
हम उनसे सीख नहीं पाये ज्यादा कुछ, खासकर उनके सटीक आक्रामक लेखन का तौर तरीका हमारे अभ्यास में नहीं जमा। लेकिन बहुत कम समय के सम्बंध के बावजूद वे हमारे वजूद का हिस्सा जरूर बन गये।
गौरतलब है कि महाश्वेतादी के लेखन में डॉक्युमेंटेशन प्रबल है, नवारुण दा का लिखा लेकिन हर मायने में साहित्य है विधाओं के आरपार। किसी भी सूरत में डॉक्युमेंटेशन का कोई प्रयास वहां नहीं है। विधाओं के व्याकरण को उन्होंने उसी तरीके से तहस-नहस किया जैसे भाषा के प्रचलित सौंदर्यशास्त्र को लेकिन क्या मजाल जिस अर्थ में वे लिखते रहे हैं, वहां वर्तनी में कोई चूक हो जाये। बहुआयामी अभिव्यक्ति के जरिये उनका साहित्य दृश्य माध्यम की तरह पूरी संवेदनाओं के साथ संप्रेषणीय है। इसमें उनकी विशेषज्ञता के आस-पास भी नहीं है दूसरे साहित्यकर्मी, ऐसा हमारा मानना है।
जाहिर है कि आभिजात भाषा, सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण के भद्र संस्कृकर्म से एकदम अलहदा हैं नवारुण दा। विचारधारा और प्रतिबद्धता के झंडवरदारों के झुंड में भी वे नजर नहीं आते। फिर भी आज के हालात में भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा प्रासंगिक रचनाकार भी वहीं हैं क्योंकि जनविरोधी अलोकतांत्रिक मानवाधिकार हननकारी मुक्तबाजारी राज्यतंत्र के विरुद्ध सतह से उठते आदमी के लिए नवारुण दो शब्द दर शब्द अविराम हथियार गढ़ते रहे हैं।
उनके हथियार अस्मिताओं के आर पार, उन्हें तहस-नहस करके वर्गीय ध्रुवीकरण के तहत फैताड़ु फौज का निर्माण करने में सक्षम हैं। जहां अंत्यज जमीन से बेदखल विस्थापित भूगोल के मानगर में स्थानातंरित आबादी के अंधकार कोनों में हीनता बोध के बजाय उनके तमाम पात्र जीते हैं तो हर वक्त उनकी राउंड दि क्लॉक अविराम अक्लांत युद्ध प्रस्तुतियों के लिए, जहां गद्य पद्य एकाकार है। फैताड़ु बोम्बाचाक और कंगाल मालसाट में गद्य पद्य के बीच कोई घोषित नियंत्रण रेखा नहीं है और मारक अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के अचूक लोक भदेस शब्दों से लैस उनके तमाम पात्र जहां आटोरिक्शा चलाने वाले आटो के नायक की भाषा आटो की आवाज में तब्दील है तो दंडवायस त्रिकालदर्शी सूत्रधार।
जैसे कैंसर के खिलाफ उन्होंने आत्म समर्पण नहीं किया वैसे ही व्यवस्था के साथ समझौता करने से भी आमृत्यु घृणा करते रहे नवारुणदा। प्रतिष्ठित प्रकाशनों और पत्रिकाओं के विज्ञापनी तामझाम के जरिये नहीं, बल्कि लघुपत्रिकाओं के मोर्चे से युद्धरत रहे नवारुण दा।
इस पर विवाद की गुंजाइश जरूर हो सकती है कि भारतीय भाषाओं में सत्तर दशक के सबसे बड़े प्रतिनिधि भी नवारुण दा हैं, जिसका मकसद शाकाहारी विरोध दर्ज कराकर क्रातिकारियों की पात में शामिल होकर व्यवस्था का अंग बन जाना नहीं है। उनके आकस्मिक निधन के बाद हमने लिखा भी कि हमारे लिए तो यह सत्तर दशक का अवसान है।
माफ करना दोस्तों, अंत्यज हूँ और फैताड़ू भी। लेकिन हर्बर्ट नहीं हूँ एकदम। दढ़ियल दंडवायस हूँ तो फेलकवि गर्भपाती विद्रोही पुरंदर भट या मालखोर मदन जैसा कोई डीएनए मेरा भी होगा।
इसलिए नवारुणदा के बारे में मेरा लिखा कोई शास्त्रीय आलोचना भी नहीं है, वैसे ही जैसे उनका खुद का लिखा किसी भी मायने में न शास्त्रीय है और न वैदिकी।
मेरे लिए आवाज ही अभिव्यक्ति का मूलाधार है, शब्द संस्कृति का ब्राह्मणवाद नहीं। व्याकरण नहीं और न ही अभिधान और न सौंदर्यशास्त्र का अभिजन दुराग्रह। इसलिए नवारुण दा के लिखे को आत्मसत करने में मुझे कोई दिक्कत कभी नहीं हुई। मंचीय प्रस्तुति और गायकी में भी आवाज के प्रयोग के भिन्न तरीके हैं। किशोर कुमार के खेल को समझ लें। आवाज मार्फत ही अभिव्यक्ति का हुनर नवारुण दा का ट्रेडमार्क है।
मेरे लिए भी भाषा ध्वनि की कोख से जनमती है और आंखर पढ़े लिख्खे लोगों के वर्ण नस्ली धार्मिक सत्ता वर्चस्व का फंडा है, ज्ञान का अंतिम सीमा क्षेत्र नहीं आंखर। वह ध्वनि के उलझे तारों की कठपुतली ही है।
इसलिए ध्वनि ही मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है।
ध्वनि ही मेरी अभिव्यक्ति है।
ध्वनि ही अभिधान।ध्वनि ही व्याकरण और ध्वनि ही सौंदर्यशास्त्र।
नवारुण दा कैसे सोचते होंगे, हमें नहीं मालूम लेकिन उनके शब्द-शब्द का अभ्यास धव्नि प्रतिध्वनि का सार्थक समावेश है। जहां शब्दों के भाषांतर से अभिव्यक्ति बदल जाने की संभावना कम से कम है।
अरस्तू से लेकर पतंजलि तक और उनके परवर्ती तमाम पिद्दी भाषाविदों, संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों और विद्वतजनों को मैं इसीलिए बंगाल की खाड़ी में या अरब सागर में विसर्जित करता हूँ समुचित तिलांजलि के साथ। ऐसा नवारुण दा ने करके दिखाया है।
दरअसल जिस आंखर में ध्वनि की गूंज नहीं, जो आंखर रक्त मांस के लोक का वाहक नहीं, जो कोई बैरिकेड खड़ा करने लायक नहीं है, उस आंखर से घृणा है मुझे। दरअसल यह घृणा की विरासत हमें नवारुण दा से ही मिली है, हालांकि उनके हमारे बीच कोई रक्त सम्बंध नहीं है, लेकिन वंश धारा को तोड़ते हुए शायद हमारा डीएनए एकाकार हैं।
दरअसल यह घृणा लेकिन नवारुणदा की मृत्युउपत्यका मौलिक और वाया मंगलेशदा अनूदित हिंदी घृणा के सिलसिले में भी है। जाहिर है कि यह घृणा मौलिकता में नवारुणदा की पैतृक विरासत है, जिसको मात्र स्पर्श करने की हिम्मत कर रहा हूँ उन्हीं की जलायी मोमबत्तियों के जुलूस में स्तब्ध वाक खड़ा हुआ।
हम बाबुलंद कहना चाहेंगे कि हम इस मृत आंखर उपनिवेश का बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिक होने से साफ इंकार करते हैं और यह इंकार गिरदा से लेकर मंटो, इलियस, मुक्तिबोध, दस्तावस्की, काफ्का, कामू, डिकेंस. उगो, मार्क्वेज, मायाकोवस्की, पुश्किन, शा, होकर माणिक, ऋत्विक घटक, सोमनाथ होड़, लालन फकीर, कबीर दास से लेकर नवारुण दा की मौलिक विरासत है और हम दरअसल उसी विरासत से नत्थी होने का प्रयत्न ही कर रहे हैं।
यही हमारी संघर्ष गाथा है और प्रतिबद्धता भी है जो संभ्रांत नहीं, अंत्यजलोक है। इसी सूत्र से हम और नवारुण दा एकाकार हैं।
नवारुण दा की तरह हमारे लिए भी गौतम बुद्ध और बौद्धधर्म कोई आस्था नहीं, जीवनपद्धति है और वर्चस्ववादी सत्ता के खिलाफ लोक का बदलाव ख्वाब है, जिसे साधने के लिए ध्यान की विपश्यना तो है लेकिन मूल वही पंचशील।
नवारुण दा स्वभाव से बौद्ध थे और द्विजता का बहिष्कार ही उनकी रचनात्मक ऊर्जा का चरमोत्कर्ष है। ब्राह्मणवादी सत्ता के पक्ष में कभी नहीं रहा है उनका रचनाकर्म और बंगाल के वैज्ञानिक ब्राह्मणवाद पर इतना तीखा प्रहार तो महाराष्ट्र के दलित पैंथर आंदोलन में भी हुआ हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। उनकी रचनाधर्मिता बिना किसी घोषणा, बिना किसी प्रकाशित एजेंडे के सीधे अंत्यज बहिष्कृत अस्पृश्य जीवन को वर्गीय चेतना से लैस करके बदलाव का मोर्चा बनाने की सीधी कार्रवाई, डायरेक्ट एक्शन है।
नवारुण दा घोषित तौर पर वामपक्षधर रहे हैं और वे संसदीय वाम संशोधनवाद के झंडेवरदार, सिपाही या सिपाहसालार नहीं रहे हैं। बदलाव की विचारधारा के लोग अंतिम क्षण तक उनके साथ थे और उनकी शवयात्रा में भी उनके साथ थे।
भाषा बंधन में दलित विमर्श और दलित आंदोलन को उचित स्थान देने के बावजूद न अंबेडकरी आंदोलन और न अंबेडकरी विचारधारा से उनकी कोई सहानुभूति रही है। लेकिन शरणार्थी समस्या पर वाम पक्ष के विश्वासघात से मोहभंग के बाद जो हमने अंबेडकर पढ़ना शुरु किया तो हमारे और उनके रास्ते भी अलग होते चले गये। यहां तक कि उनके कैंसर पीड़ित होने की खबर भी हमें मिली नहीं, मिली तो बहुत बाद। इसके बावजूद आज हमें यह कहने में कोई दुविधा नहीं है कि अंबेडकर पढ़कर हम जितने अंबेडकरी नहीं हुए, वंचित वर्ग से होते हुए, हम जितना वंचितों के नहीं हुए, नवारुण दा उससे कहीं ज्यादा अंबेडकरी थे और वंचितों के पक्षधर किसी भी दलित पिछड़ा आदिवासी सरचनाकर्मी से ज्यादा।
हम जैसे वाम और अंबेडकरी आंदोलन के बुनियादी लक्ष्य न्याय और समता में अंतरविरोध नहीं देखते, वैसा नवारुण दा ने न कभी कहा है और न लिखा है, लेकिन उनका रचनाकर्म फिर वही आनंद पटवर्ध्धन का जय भीम कामरेड है जहां लाल झंडे के साथ नीले रिबन की अनिवार्य मौजूदगी है। इस रहस्य को आत्मसात किये बिना कंगाल मालसाट, फैताड़ु बोम्बाचाक और नवारुण दा की किसी भी गद्य रचना को समझा ही नहीं जा सकता और न मूल्यांकन संभव है।
.............जारी


