कनाडा के 42वें संसदीय चुनाव: कम्युनिस्टों का जमा हासिल
कनाडा में कल 42वें संसदीय चुनाव सम्पन्न हुए। स्टीफन हार्पर की अगुवाई में लगातार तीन बार चुनाव जीत कर शासन कर रही अति दक्षिणपंथी कंज़र्वेटिव पार्टी के राज का अंत हुआ, जिसे 43 वर्षीय लिबरल पार्टी नेता जस्टिन ट्रूडो ने शिकस्त दी। 338 संसदीय सीटों के सदन में लिबरल पार्टी को 39.5 प्रतिशत वोट मिले जो कुल मतदाताओं का 27% है। सदन में 184 सीटें जीतने का मतलब है कि 54% संसदीय सीटों पर लिबरल पार्टी ने झंडा फहराया है। सत्ता खोने वाला दल, कंज़र्वेटिव पार्टी को 31.9 % लोकप्रिय वोट मिले और संसद में उनकी संख्या घट कर 188 से 99 पहुँच गयी. कुल मतदाताओं का 21.8% समर्थन उन्हें मिला जबकि संसद में उनके पास 29.3 % सीटे हैं. तीसरा प्रमुख दल न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को इस चुनाव में मात्र 44 सीटों पर सफलता मिली, उन्हें 19.7 % पोपुलर वोट मिला जो कुल मतदाताओं का करीब 13.5% है, संसद की कुल सदस्य संख्या का उन्हें 13% हिस्सा मिला. कूबेक प्रान्त के क्षेत्रीय दल ब्लाक कुबेकोस को इस चुनाव में 10 सीटे मिली और लगभग 4.7 प्रतिशत पोपुलर वोट मिला, इसके अतिरिक्त ग्रीन पार्टी को संसद में मात्र एक सीट मिली और उसका मत प्रतिशत 3.4 रहा. प्रमुख तीन दलों ( लिबरल, कंज़र्वेटिव, एन डी पी) के बाद ग्रीन पार्टी ही ऐसा दल है जिसने 338 संसदीय सीटों में से 336 पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे.
लगभग 34 मिलियन आबादी वाले देश में 25.68 मिलियन रजिस्टर्ड वोटर हैं, इस चुनाव में 68.49 % मतदाता यानि 17.55 मिलियन वोटर्स अपने घरों से निकल कर मतदान करने गए. 338 संसदीय क्षेत्रों में औसत आबादी लगभग 95,000 है. किसी मतदान केंद्र पर कोई पुलिस तैनात नहीं होती, कोई भीड़ भड़क्का नहीं होता, वोट डालने वालों की उंगलियों पर स्याही का कोई निशान नहीं लगाया जाता. दुनिया के दूसरे सबसे विशाल देश में चुनाव एक ही दिन में कराया जाता है और मतदान ख़त्म होने के तीन-चार घंटों में ही सारे नतीजे सामने आ जाते हैं. मतदान वाले दिन आम जन जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लोग हर दिन की तरह अपने अपने काम पर जाते हैं. मतदान से पूर्व किसी सप्ताहंत पर लगातार चार दिन तक अग्रिम मतदान की सुविधा दी जाती है। इस बार अग्रिम मतदान में वोट देने वालों की तादाद करीब 17% रही. मतदान के लिए पूरे देश में 73,568 मतदान केन्द्रों का जाल बिछा दिया जाता है, इलेक्शन कनाडा नाम की सरकारी संस्था इस पूरे उपक्रम को आयोजित कराने के लिए भारी संख्या में भर्ती अभियान भी चलाती है.
42,610 डालर औसत प्रति व्यक्ति आय वाले इस मुल्क में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन ही अपने आप में एक बड़ी परिघटना है और जब कनाडा जैसे मुल्क में जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी पर तीन बार प्रतिबन्ध लग चुका हो, तब उस पार्टी की उम्र 90 बरस से अधिक हो जाये यह अपने आप में एक बड़ी बात है. सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरी दुनिया में पार्टी के विलोपवाद का झटका समृद्ध देशों को अधिक झेलना पड़ा. यूरोप के कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टीं का नाम और कार्यक्रम बदल दिए गए, जिन्हें अपने आप को कम्युनिस्ट कहने में शर्म आयी, उन्होंने सोशलिस्ट लबादा ओढ़ लिया। बहरहाल इस वैचारिक संघर्ष का सामना कनाडा की कम्युनिस्ट पार्टी को जबरदस्त तरीके से झेलना पड़ा और एक बड़ा हिस्सा पार्टी छोड़ कर इधर-उधर बिखर गया. पार्टी के दफ्तरों पर आधिपत्य की लड़ाई बाकायदा कोर्ट तक पहुँची। इन तमाम झंझावातों का सामना करते हुए पार्टी के भीतर एक तबका मजबूती के साथ पार्टीं में बना रहा।
1990 के विनाशकारी दशक के बाद 2000 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ कनाडा ने दोबारा विकास की साँसे लेना शुरू की और संगठन के स्वरूप में भी इज़ाफा किया. दूसरे कम्युनिस्ट ग्रुपों की मौजूदगी के साथ सी पी सी ही एक मात्र वह कम्युनिस्ट जमात है जिसका पीपुल्स वॉइस मुख्य पत्र बराबर निकल रहा है और जिसकी सांगठनिक गतिविधियाँ, राष्ट्रीय और प्रांतीय अधिवेशन हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त पार्टी की एक वैचारिक पत्रिका ‘स्पार्क’ भी विधिवत रूप से लगातार प्रकाशित की जा रही है. पार्टी नेता मुगेल फिगोरा विधिवत तरीके से पार्टी अधिवेशनों के जरिये चुनकर दिन रात काम में लगे हैं. पार्टीं में लगातार नौजवान तबके का आना इस बात की स्पष्ट पुष्टि करता है कि पूंजीवाद की मांद में कम्युनिस्ट पार्टी को आसानी से पाला पोसा जा सकता है.
जहाँ तक चुनावी राजनीति में कम्युनिस्ट पार्टीं के भाग लेना और चुनावी जीत का प्रश्न है तो इस चुनाव में पार्टीं ने 26 उम्मीदवार खड़े किये जिन्हें कुल 4,382 वोट मिले. मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टीं कनाडा ने पूरे देश में 70 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिन्हें कुल 9026 वोट मिले। जाहिर है इन दोनों वोटों को मिलाकर कर भी 15,000 वोट नहीं होते जो एक सीट जीतने के लिए आवश्यक अंक है, लेकिन इन सभी आंकड़ों में माथापच्ची करने से पहले हमें कनेडियन चुनाव के सिस्टम को समझना जरुरी होगा. यहाँ चुनाव अति सुसंगित मनोवैज्ञानिक रूप से लड़े जाते हैं, जिसमें मीडिया बहुत बड़ा रोल अदा करता है. कहने के लिए हर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवारों की सार्वजनिक बहसें होती हैं, लेकिन उन बहसों में सिर्फ प्रमुख तीन दलों या अधिक से अधिक ग्रीन पार्टी के नेता को शामिल किया जाता है. पूरे समाचार पत्रों में कम्युनिस्टों को जगह ही नहीं मिलती, टेलीवीज़न तो बहुत दूर की कौड़ी रही. किसी लोकल अखबार में कम्युनिस्टों की कोई खबर छप जाए, यह अपने आप में एक बड़ी बात होती है.
पश्चिमी समाज में कम्युनिस्टों के विरोध में एक ऐसा माहौल बनाया गया है कि फैक्ट्री अथवा वेयरहाउस में काम करने वाला भी खुद को वर्किंग क्लास में शामिल नहीं करता, बल्कि मिडिल क्लास कहता है। कम्युनिस्ट लफ्ज़ तो उसके लिए एक गाली समान है. लेकिन बावजूद उसके पढ़े लिखे तबके में पार्टीं के विचार और कार्यक्रम के प्रति एक आवश्यक आकर्षण है, जिसे पूंजीवाद में समाज का भला नहीं दिखाई देता उसे कम्युनिस्ट पार्टी और साम्यवाद में समाज के समग्र विकास का विकल्प नज़र आता है, लेकिन इस नतीजे पर पहुँचने के लिए असाध्य मार्गों से गुजरना होता है। जाहिर है पूंजीवाद की चमक-धमक और उसकी विलासिता से लड़कर इस निष्कर्ष पर पहुंचने वाले विरले ही होते हैं.
पूंजीवादी प्रचार माध्यमों के बीच पूंजीवादी शोषण को समझना और उसके साम्राज्यवादी चरित्र की परतें खोलना साधारण पढ़े लिखे लोगों का काम नहीं, जाहिर है पश्चिमी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में आने वाले लोग उच्च शिक्षा प्राप्त किये होते हैं, अधिकतर विश्वविद्यालयों की डिग्री धारक लोग ही पार्टी सदस्य हैं, जिन्हें विचारधाराओं के इतिहास ही नहीं बल्कि मौजूदा विश्व के वैचारिक संघर्षों का उच्च स्तरीय ज्ञान होता है. चुनाव लड़ना अपने आप में एक महंगा उपक्रम है, जहाँ पर्चा भरने की फीस ही एक हजार डालर होती है, इतनी छोटी पार्टी जो अपने सदस्यों की लेवी पर गुजर बसर करती हो, उसके लिए इतना धन जुटाना एक असंभव काम है. प्रचार माध्यमों में विज्ञापन आदि देने के खर्च पाठक समझ ही सकते होंगे? पर्चा भरने के लिए उसी संसदीय क्षेत्र के 100 मतदाताओं के हस्ताक्षर एक जरूरी प्रक्रिया है, जिसे पर्चे के साथ जमा कराना होता है। स्थापित दल किसी होटल में चाय पानी का कार्यक्रम आयोजित कर 300-400 पार्टी कार्यकर्ताओं को चुटकी बजा कर बुला लेते हैं और दो घंटों में यह काम पूरा कर लेते हैं, जबकि इसी कार्य को करने के लिए कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को घर-घर जाकर 100 दस्तखत लेने में हफ्ते लग जाते हैं. प्रचार सामग्रियों को स्थापित शासक वर्गीय दल या तो एजेंसियों से करवाते हैं या स्वयंसेवकों की भीड़ इस काम को करती है, वहीं कम्युनिस्ट कार्यकर्ता अपने काम धाम को छोड़ अथवा वीकेंड पर खुद घर-घर जाकर हजार दो हजार पर्चे बाँट पाते हैं।
बहरहाल कहने का अर्थ यह है कि मौजूदा ढाँचे में कम्युनिस्टों की बात अथवा उनका कार्यक्रम जनता तक पहुँचाना अपने आप में एक असाध्य और दुर्गम रास्ता है. इतनी विपरीत परिस्थितियों में अगर कम्युनिस्टों को 14000 वोट पड़ रहे हैं, तो यह अचरज की बात है. जाहिर है कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव जीतने के लिए नहीं वरन अपनी प्रचार सामग्री को जनता तक पहुँचाने के लिए चुनाव में हिस्सेदारी करती है. कॉर्पोरेट चंदों पर चलने वाले स्थापित दलों के विपरीत कम्युनिस्टों की ताकत आम जनता से इकठ्ठा की गयी सहयोग राशि और उनके सीमित मानव संसाधन कार्पोरेट ताकत के सामने नगण्य है, उनकी जितनी ताकत है वह उन्हें मिले वोटों से साफ़ नज़र आती है. स्थापित बुर्जुआ दलों की ताकत जो उन्हें मिली वोटों के जरिये दिखाई जाती है इसे गौर से देखने में साफ़ पता चलता है कि यह दर असल कॉर्पोरेट पूंजी की ताकत है, ठीक उसी तरह जैसे प्रोफेशनल धावकों के साथ किसी अनाडी को दौड़ा दिए जाने पर जो नतीजा सामने आयेगा वही नतीजा इन चुनावों में किसी कम्युनिस्ट पार्टी को मिले वोटों के जरिये देखा जा सकता है. शासक वर्ग ने जो नियम बनाये हैं वह खुद अपना निजाम चलाने के लिए बनाये हैं उसमें भीतरघात करना और जीत हासिल करना आसान काम नहीं. कम्युनिस्ट पार्टियाँ जनता के संघर्षो को संसद से बाहर सड़क पर लड़ने के लिए ही प्रतिबद्ध हैं, वही अंतिम रास्ता है. चुनाव लड़ना भी उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा मात्र है.
टोरंटो से शमशाद इलाही शम्स
शमशाद इलाही शम्स