कब तक लुटते रहेंगे मेरे गांव के लोग
कब तक लुटते रहेंगे मेरे गांव के लोग
लुट रहा किसान, व्यवस्था मस्त है
1757 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज स्थापित होने के बाद से कम्पनी की टैक्स उगाही व राजस्व प्राप्ति का सबसे बड़ा जरिया कृषि भूमि पर लगान का था। उसके लिए कम्पनी और उसके रेवेन्यु कलेक्टर जैसे अधिकारियों के साथ ही गुमाश्तो द्वारा किसान व रियाया से लगान की अधिकाधिक मात्र में वसूली की जाती रही। इसके चलते किसान व रियाया के पास जीने–खाने के लिए बमुश्किल कुछ बच पाता।
फिर कम्पनी राज की यह उगाही पहले के राजाओं-बादशाहों की तरह किसानों को कोई ढील नहीं देती थी। कम बारिश हो या सूखा पड़ा हो, उनका लगान जारी रहता और बढ़ता रहता। एक कारण और भी था कि उस समय पड़ने वाले भयंकर सूखे व अकाल महामारी में बदल जाते। 1757 से 1758 तक के कम्पनी राज के दौरान अकालों के पड़ने का यह सिलसिला कुछ वर्षो के अंतराल के साथ जारी रहा जो 1858 के बाद भी कम नहीं हुआ।
इसके अलावा कम्पनी के शासन में जमीनों का बन्दोबस्त करके गाँव के जमीनों के निजी मालिक जमीदारों की ऐसी श्रेणी खड़ी कर दी गई, जो किसान व रियाया से अधिकाधिक लगान वसूलने का काम करते थे।
लगान का एक हिस्सा स्वयं रखकर बाकी हिस्सा कम्पनी की हुकूमत को दे देते थे।
लगान देने की मज़बूरी में खेती करने वाले किसानों को अक्सर गाँव के महाजनों से कर्ज लेना पड़ता था। कर्ज के जाल में फंसने के बाद किसान को लगान के अलावा अपने उपज का एक भाग उसे सूद मूल की अदायगी के रूप में महाजन को भी देना पड़ता था। कर्ज की अदायगी तक किसानों की जमीनें इन्हीं महाजनों के पास बंधक रहती थीं। लगान के साथ महाजनी लूट का और कर्ज ब्याज की अदायगी न करने पर बंधक जमीनों का मालिकाना जमीदारों एवं महाजनों के हाथ में चले जाने का सिलसिला भी लगातार चल रहा था।
बाद के तौर में खासकर 1850 के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने खेती की इन्ही स्थितियों में ही व्यावसायिक खेती की शुरुआत करवा कर परम्परागत खेती की जगह इंग्लैण्ड के खड़े होते कल कारखाने के लिए कच्चे माल के लिए तथा वहां के आम उपभोग की आवश्यकताओं के लिए कपास, जूट, गन्ना गेंहू ( खासकर पंजाब का गेंहू ) नील, अफीम, चाय मसाले आदि की खेती को बढ़ावा देना शुरू किया। बाजार के लिए कृषि उत्पादन की यह नयी प्रणाली अंग्रेजों के आगमन से पहले देश की प्रचलित प्रणाली से अर्थात मुख्यत: उपभोग के लिए कृषि उत्पादन की प्रणाली से एकदम अलग थी।
नई उत्पादन प्रणाली ने न केवल बिचौलियों एवं व्यापारियों के जरिये कृषि उत्पादों की लूट को बढ़ावा दिया, बल्कि देश में खाद्यान्न उत्पादन पर भी नकारत्मक असर डाल दिया। बाजार के लिए उत्पादन वाली इस नयी खेती ने किसान व रियाया के बाजारवादी शोषण लूट का तीसरा रास्ता भी खोल दिया, इसके अलावा लगान की अदायगी और महाजनी शोषण लूट को और बढ़ावा दिया।
अंग्रेजी राज के दौरान किसानों एवं रियाया तबकों की इस तरह लूट के साथ ही उन पर अंग्रेजी राज तथा उनके जमीदारों की गुलामी का यह दौर 1947- 50 तक चलता रहा। 1920 – 30 के बाद अगर जमीदारों द्वारा रियाया को जमीन से बेदखल करने पर कुछ रोक लगी और लगान बढ़ाने तथा उसकी निर्दयतापूर्वक उगाही की तीव्रता में कुछ कमी आई तो दूसरी तरफ खेती के बढ़ते बाजारीकरण से किसान एव रियाया हिस्से की शोषण लूट कही ज्यादा बढ़ गई।
1947 – 50 के बाद हुए जमींदारी उन्मूलन को लागू किये जाने तथा किसानों से लगान और उसकी वसूली में देश की सरकारों द्वारा निरंतर कमी किये जाने के चलते किसानों की इस लूट में तेजी से कमी आई। 1960 – 65 के तुरन्त बाद के दौर में आधुनिक खेती तथा उसके लिए नहरों सरकारी ट्यूबवैल आदि के रूप में बढ़ाई जाती रही सिंचाई व्यवस्था के फलस्वरूप किसानों के बेहतर उत्पादन से उसकी महाजनों पर निर्भरता तथा उनके कर्ज ब्याज के लूट में भी कमी आई। पर आधुनिक खेती और उसके बढ़ते बाजारीकरण के साथ अब किसानों की अपने बीज खाद पर निर्भरता टूटने लग गई। नए बीजों एवं रासायानिक खादों-दवाओं-ट्रैक्टर -पम्पसेटों आदि के साथ कृषि के अन्य आधुनिक यंत्रों के लिए बाजार पर उद्योग व्यापार के मालिकों पर उसकी निर्भरता बढ़ने लगी। आधुनिक खेती के साधनों के बढ़ते मूल्यों को चुका कर ही खेती कर पाने की बाध्यता ने बढती लागत के रूप में किसानों के शोषण लूट का नया एवं व्यापक आधार खड़ा कर दिया। पहले के लगान के लूट की जगह लागत की लूट ने ले लिया। फिर बाजार के लिए उत्पादन की इस प्रणाली के जरिये किसानों को आजार में अपना उत्पादन बेचने लागत के हिसाब से उसका मूल्य न पाने के रूप में भी उसके शोषण लूट का दायरा भी व्यापक होने लगा। बढ़ती लागत तथा उसके अनुपात में कृषि उत्पादन के मूल्य भाव में कम बढ़ोत्तरी ने किसानों को सरकारी व गैर सरकारी कर्जे में फंसने और अपना सब कुछ गँवा देने यहाँ तक कि आत्महत्या तक के लिए मजबूर कर दिया।
सन् 1965 से लेकर 1985 तक आधुनिक खेती के लिए बीज-खाद-दवाओं पर तथा सिंचाई बिजली आदि पर मिलती रही छूटों-अनुदानों कृषि में सरकारी धन के बढ़ते निवेश के चलते संसाधनों के बदौलत किसानों पर आधुनिक खेती की लूट का असर थोड़ा कम पड़ा। हालांकि बीतते सालों के साथ यह बढ़ता जरूर रहा। साथ ही पुरानी खेती की आत्मनिर्भरता अब अधिकाधिक परनिर्भरता में बदलता रहा। विदेशी ताकतों पर देश की बढ़ती परनिर्भरता के साथ विदेशी बीजों एवं उसके शोधन एवं विकास की नयी तकनीकों के साथ रासायनिक खादों-दवाओं-कृषि यंत्रों के लिए किसानों की उद्योग व्यापार मालिकों तथा विकसित साम्राज्यी देशों पर निर्भरता बढती रही क्योंकि आधुनिक खेती के बीजों खादों एवं अन्य ससाधनों की तकनीक विदेशों की ही थी। कृषि क्षेत्र की बढती यह परनिर्भरता न केवल उसके आत्मनिर्भरता एवं स्वतत्रता की विरोधी थी, बल्कि उस विदेशी ताकतों के पूंजी व तकनीक की पराधीनता में लाए जाने की द्योतक भी थी।
आधुनिक खेती के जरिये किसानों एवं कृषि क्षेत्र की बढ़ती परनिर्भरता एवं पराधीनता का सबसे बड़ा सबूत तो डंकल प्रस्ताव की ट्रिप्स नाम की धारा ही है। 90 के दशक में पेश किये गए इस प्रस्ताव की धारा में यह कहा गया कि आधुनिक बीजों - खादों - दवाओं की विदेशी तकनीक के इस्तेमाल से इस देश के किसान सालों से लाभ कमाते रहे हैं। दशकों पहले की उनकी गरीबी व पिछड़ेपन के चलते ही मानवीय आधार पर विदेशी बीज - खाद - दवा कम्पनियां इस पर अपना पेटेंटी अधिकार छोड़े रखी। पर अब किसानों को अपने लाभ का एक अंश पेटेंटी फीस के रूप में चुकाना होगा। इनके मूल्यों की अदायगी के साथ पेटेंटी फीस को भी नियमित रूप से चुकाना होगा। साथ ही उन्हें इन बीजों - खादों दवाओं आदि पर विदेशी कम्पनियों का पेटेंटी अधिकार (सर्वाधिकार ) भी मानना होगा। उन्हीं के शर्तो सहमतियों के अनुसार इन बीजों - खादों - दवाओं वाली खेती करना या रोकना होगा। 1995 में केन्द्रीय सरकार द्वारा डंकल प्रस्ताव को इन शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया गया।
डंकल — प्रस्ताव के ट्रिप्स की धारा इस बात की प्रमाण है कि देश में कृषि के आधुनिक विकास के नाम पर साम्राज्यी देशों के तकनीकी विकास पर उनकी बीज - खाद आदि की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भरता को बढाया जाता रहा। कृषि क्षेत्र को उनकी सलाहों निर्देशों प्रस्तावों के अधीनता में लाया जाता रहा। आधुनिक बीजों - खादों दवाओं के एकाधिकार को स्वीकार करते हुए देश की कृषि क्षेत्र की बची - खुची स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता को समाप्त किया जाता रहा। वस्तुत: उन्ही की वैश्विक रणनीतियों तथा देश की धनाढ्य कम्पनियों के सुझाव अनुसार खेती किसानी के छूटों अधिकारों को काटते घटाते हुए किसानों की लागत से लेकर कृषि उत्पादों के बिक्री बाजारों तक के शोषण लूट को बढ़ाया जाता रहा है।
आधुनिक विकास के नाम पर किसानों की जमीनो का अधिग्रहण कर उसे प्रत्यक्ष व परोक्ष रुप में इन्ही धनाढ्य कम्पनियों को सौपा जा रहा है। यह भूमि अधिग्रहण भी देश में लागू की जाती रही विदेशी वैश्वीकरणवादी नीतियों एवं डंकल - प्रस्ताव के जरिये लागू किये जा रहे धनाढ्य वर्गीय आर्थिक नीतियों का हिस्सा है। आधुनिक खेती के जरिये किसानों का यह चौतरफा बढ़ता शोषण लूट ब्रिटिश राज और जमीदारो के दिनों के शोषण लूट से ज्यादा खतरनाक है। साथ ही विदेशी ताकतों के साथ खेती को परनिर्भरता के सम्बन्धो में बांधे जाना वाला भी है। यह कुछ किसानों को ही नहीं बल्कि गाँव के गाँव को लील जाने वाला है।
अगर आप देखें तो इस प्रक्रिया में पूरा का पूरा गाँव लीला जा रहा है।
देश की सरकारे देश की परनिर्भरता एवं नए रूपों में पराधीनता को बढ़ाने के साथ कृषि क्षेत्र को काटने - घटाने के साथ किसानों की संख्या भी घटाती जा रही है। किसानों को आत्महत्या करने के लिए बाध्य कर रही है।
ऐसी स्थिति में किसानों की विदेशी एवं देशी औद्योगिक – व्यापारिक अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय तथा सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा की जाती रही मुनाफाखोरी व सूदखोरी की लूट कही से कम होती नजर नहीं आ रही है। देश के सरकारों के जरिये कृषि व किसान की बढ़ाई जाती परनिर्भरता एवं परतंत्रता भी रुकने वाली नहीं है। फलत: किसानों के लिए 1947 की स्वतंत्रता व इंडिपेंडेंन्स को मनाने की कोई जगह नहीं बचती। पर उस समय सत्ता हस्तांतरण के रूप में मिली कम्पनी राज तथा धनाढ्य एवं उच्च वर्गीय स्वतंत्रता के साथ बढ़ती रही विदेशी परनिर्भरता से देश को तथा खेती किसानी को मुक्त कराने की जगह जरूर बचती है।
आज फिर एक बार किसान, बुनकर, व आम आदमी को इस गुलामी के विरुद्ध राष्ट्र – मुक्ति एवं जन - मुक्ति के लिए संघर्षरत होना पड़ेगा।
सुनील दत्ता


