कल फिर जनपद को छू लिया!
कल फिर जनपद को छू लिया!
खोये हुए जनपदों को छूने की ही कोशिश में हूं क्योंकि जीने के लिए मुहब्बत काफी है, बाकी चीजें दो कौड़ी की!
पलाश विश्वास
मैं अपने गुरुजी जयनारायण की तरह अविवाहित रहना चाहता था। क्योंकि गृहस्थी मेरे समझ में नहीं आती और संपत्ति के झमेले में, लेन देन के रिश्ते नाते में मुझे यकीन नहीं था।
संजोगवश पढ़ाई के चक्कर में, डीएसबी से लगी लत की वजह से इलाहाबाद होकर जेएनयू और फिर मिशन समझकर पत्रकारिता में जुत गया, हालांकि मैं तो खेतों में जुता बैल बनकर ज्यादा खुश रहता।
मुझे बड़ी कोफ्त होती है कि बसंतीपुर छोड़कर मैं यूं भटकते हुए कहां कहां न चला आया कि अब बसंतीपुर को छू नहीं सकता।
मैं अब बिना जड़ों वाला वृक्ष हूं जो हरा भी नहीं है, भीतर से खोखला घुनधरा है और किसी भी दिन भरभराकर इस सीमेंट के जंगल में दफन हो जायेगा। किसी भी पल, किसी भी दिन बिना किसी गूंज।
पिता ने जिद करके अपने मित्र की बेटी से मेरी शादी तय कर दी थी, जो अर्थशास्त्र से एमए हैं और अपने जमाने में खूबसूरत भी थीं और आज भी हैं।
मुझे अफसोस है कि दो दोस्तों ने मिलकर उसकी जिंदगी तबाह कर दी। मेरे बजाय किसी और से उसकी शादी होती तो वह बेहद बेहतर जिंदगी जी रही होती।
चूंकि उसी गांव में मेरी बहन की शादी तय कर दी गयी थी, तो मेरे लिए अड़ने की सूरत न थी वरना मेरी बहन की बारात रुक जाती।
सविता बाबू भी ऐसी हुई कि शादी के बाद वह अलग नहीं हुई कभी और न मायके और न ससुराल कभी रहीं क्योंकि पता नहीं क्यों उसे भी अपनी तबाही से मुहब्बत हो गयी।
जिस चीज को हम टाल रहे थे इतने बरसों से, वह संकट अब सर मत्थे है। मैंने अपने भाइयों से कभी नहीं पूछा कि जमीन का किसा क्या है। मेरी एक ही फिक्र रही है कि मेरे परिवार की क्या, बसंतीपुर की कोई जमीन इधर उधर न हो और इसी फिक्र की वजह से हमने बुजुर्गों के निधन के बावजूद इतने अरसे तक न घर का बंटवारा किया और न जमीन का।
यूं कहे कि मेरे हिस्से न कोई जमीन है और न घर। गांव लौटूं तो मुझे घर बनाने की जरूरत होगी क्योंकि बुजुर्गों की झोपड़ियों की छांव कहीं नहीं है, जहां आखिरी सांसों का आसरा होता। फिर जमीन का किस्सा भी जानना लाजिमी है।
बहुत इच्छा होती कि मैं गांव छोड़कर कहीं न गया होता। बहुत बेहतर होता कि मेरे भाई मेरी जगह होते और मैं गांव में होता।
महानगर में लंबी रिहाइश से अब किसी सूरत में रिहाई की गुंजाइश लगती नहीं है। इस महानगर में न सही किसी और महानगर की शरण में जाकर जीने की मजबूरी है।
मुझमें जंगल की वह आदिम गंध नहीं है।
कीचड़ गोबर में भीतर ही भीतर धंसा होता हूं लेकिन मेरे भीतर कोई जनपद जिंदा नहीं है।
यही सच है। निर्मम सच है कि महानगरों की दुनिया में शरणार्थी बनकर जीते हुए कोई जनपद का कुछ होता नहीं है और जनपद को छूने का पुण्य उसे मिलता भी नहीं है।
चार्ली चैपलिन जितने बड़े कलाकार थे, उससे कहीं ज्यादा वे दार्शनिक थे। बिना जीवन दर्शन और बिना वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक दृष्टि कोई कलाकार कलाकार होता भी नहीं है और हुआ तो अपनी मौत के साथ ही राख में खाक हो जाता है।
चार्ल चैपलिन के ग्रेटडिक्टेटर को देखे समझे बिना हम अपने समय को ठीक से बूझ नहीं सकते, यही उनकी प्रासंगिकता है।
दुनिया उन्हें मसखरा समझती है और उस मसखरे का कहना है कि जिंदगी जीने के लिए मुहब्बत काफी होती है और बाकी चीजें दो कौड़ी की है।
चार्ली का कहना है कि ताकत उसी को चाहिए, जो दूसरो को सताना चाहता है और दूसरो पर राज अपना कायम करना चाहता है।
इन्हीं जनपदों का एक खास आदमी फिलहाल कोलकाता में हैं और कल उन्हें छूकर आया हूं तो लग रहा है कि अरसे बाद बसंतीपुर नैनीताल या बरेली होकर आया हूं।
सुधीर विद्यार्थी हमसे कमसकम दस बरस बड़े होंगे। नौकरी से रिटायर उनने खुद अपने को किया और जनपदों के किस्से लिखने को अपनी जिंदगी बनाने में कामयाब भी हुए।
बरेली, बीसलपुर, शाहजहांपुर और फतेहपुर के किस्से उनने फिलाहाल बहुत खूबी से खोले हैं।
हमने चूंकि ताराचंद्र त्रिपाठी से हाईस्कूल पास करते न करते इतिहास का पहला सबक यही पढ़ा है कि इतिहास दरअसल राजधानियों और राजकाज का होता नहीं है, इतिहास जनपदों और जनता का होता है, तो हम शुरु से जान ही रहे हैं कि भारत का सही मायने में कोई इतिहास लिखा ही नहीं गया है। वे तो अखबारी कतरनों का कोलाज है, जिसमें जिंदगी की धड़कनें हैं ही नहीं।
मैं अमेरिका से सावधान के बाद प्रिंट में मर ही गया हूं और शायद अमेरिका से सावधान के बुरी तरह फेल हो जाने के बाद मुझे प्रिंट में होना ही नहीं चाहिए था।
कमसकम दस साल से मैं आनलाइन हूं और सिर्फ ब्लाग ही लिखा है। जिसे पढ़ना हो पढ़े तत्काल बाकी गुगल की प्रापर्टी है जब चाहे डिलीट कर दें।
सविता भी इन दिनों खूब कहती है कि दिन रात लिखते हो। कुछ तो बचेगा नहीं। गुगल किसी भी दिन सबकुछ मिटा देगा।
हम तो अपने समय को संबोधित कर रहे हैं और समय ठिठककर सुनने की तकलीफ भी नहीं उठा रहा है तो मेरी चीखों में कोई खामी जरुर होगी। कलाकार हूं नहीं कि तराश कर चला जाउं समय को कि फिर लोग देखते ही रहें। हमारे पास यथार्थ के सिवा कुछ भी नहीं है।
सुधीर विद्यार्थी इस मायने में भी हमसे बड़े हैं कि वे एकमुश्त भूत भविष्य वर्तमान को साध रहे हैं। वे जनपद बांच रहे हैं।
कल भी मैंने उनसे कहा कि काश, हर जनपद में कोई सुधीर विद्यार्थी होता तो जनपद महानगरों में तब्दील न हो रहे होते और हम तमाम लोग बिना जड़ खोखला पेड़ बनकर जी नहीं रहे होते।
मैं किसी साहित्य सभा सेमिनार में नहीं जाता। कलाकारों और साहित्यकारों से मिलता भी नहीं हूं। पुस्तक मेले में भी नहीं जाता।
भारतीय भाषा परिषद जाने का रास्ता इन दस बारह बरसों में इतना बदला है कि बस रूट से भटककर पैदल वहां पहुंचते न पहुंचते शाम के पांच बज गये और छह बजे दफ्तर रवानगी लाजिमी है क्योंकि सात बजे से एक मिनट भी लेट हो गये तो लेट मार्क लग जाना है। कल दस मिनट लेट पहुंचे दफ्तर, नोटिस भी मिल जायेगा।
जब राजहंस का दुर्घटना में निधन हुआ था और सरला भाभी ने इस सदमे से खुदकशी कर ली थी, सविता बाबू भीतर से हिल गयी थीं और हम दोनों जब बसंतीपुर चलें तो रास्ते में शाहजहांपुर उतरकर सीधे संदर्श के दफ्तर किसी मेडिकल स्टोर पहुंचे, तो वहां सुधीर न थे। उस बेइंतहा दर्द का तूफां जीतकर दोनो बेटियों और छोटे बेटे को अकेले बड़े करते हुए वे थमे भी नहीं कभी।
दोनों बेटियां अपने अपने ससुराल चली गयीं और बिट्टू कोलकाता में वीडियोकॉन में लग गया। उसे यहां रहने को कोई घर चाहिए।
हमारे पास कोई घर भी नहीं हुआ कि हम बिट्टु को अपने यहां ले आते या सुधीरजी को कह पाते कि चले भी जाओ अपने जनपद, बिट्टु की परवाह न करो, हम हैं।
हम किसी दोस्त को अपने यहां ठहरा नहीं पाये क्योंकि हम सिर्फ किरायेदार हैं और हमारा कोई घर नहीं है।
जनपद से बिछुड़कर घर बनाने का जतन कभी किया नहीं है।
बेटा अभी कहीं लगा नहीं है और डर है कि पहले मर गया तो सविता को बहुत तबाही देखनी पड़ जायेगी और मुहब्बत बेमानी हो जायेगी।
न जाने कैसे सधीर विद्यार्थी अकेले बरेली में अपने घर में रहते होंगे, यह हमारे सोचना को तौर तरीका है। बाकी जनपदों मे कोई कहीं अकेला होता नहीं है। यह तन्हाई महानगर की सौगात है।
अफसोस की दफ्तर पहुंचने की हड़बड़ी में करीब दस साल पहले देखे बिट्टू से मुलाकात किये बिना लौट आया और पता नहीं कि कब उससे फिर मिल पाउंगा। जनपदों से वह भी बिछुड़ा है नया नया।
कल रात के बारह बजे अमलेंदु को कहा था कि बाबुओं की छुट्टी का वक्त आ गया है सातवें वेतन मान के साथ। अंग्रेजी में लिखा है। लगा देना। वह तब तक दुकान समेट चुका था।
लगता है कि फेसबुक ने मुझपर कोई स्थाई प्रतिबंध लगा दिया है और तीन दिनों के बाद भी स्टेटस अपडेट नहीं कर पा रहा हूं और लिंक भी कुछ शेअर हो नहीं रहा है।
फेसबुक का हम का उखाड़ सकै हैं।
इसी तरह एकदिन सारे ब्लाग डिलीट हो जायेंगे कि हुकूमत आमादा है कि हम कुछ भी न लिखें, कुछ भी न बोलें।
अमलेंदु की मेहरबानी न हुई तो हमारी आवाज अब कहीं पहुंचनी वाली नहीं है।
अब जो जनपद वाले हैं, जो शायद पढ़ भी रहे हैं जनपदों का यह किस्सा, उनके मत्थ कलका लिखा भी फेंक रहा हूं साथ साथ।
अभी अभी निकलना है आधे घंटे में सविता बाबू ने वार्निंग दे दी है। वर्तनी उरतनी तुमि सुधार कर पढ़ लेना।
साहित्य वाहित्य पादने की हमारी औकात नहीं है भइया, भटकी हुई चिठ्ठी समझकर मर्जी हुई तो वरतनी सुधारकर पढ़ लेना। दनाक से दाग रहा हूं यह पोस्ट।


