कश्मीर में फिजां बदलने की उम्मीद

कश्मीर में चुनाव नतीजे (Election results in Kashmir) चाहे कुछ हों, वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया की वापसी (Return of democratic process) का स्वागत किया ही जाना चाहिए।

इधर जिस अकेले शख्स के कारण पत्रकारिता से नत्थी हो जाने के हादसे ने हमारी जिंदगी को बदल दिया और वह अब हिंदी का सबसे बड़ा स्टार पत्रकार है, वह उर्मिलेश हमारे अखबार जनसत्ता के लिए लगातार कश्मीर से चुनाव कवरेज कर रहा है।

वे अब भी मेरे दोस्त बने हुए हैं और कब तक बने रहेंगे, कहना मुश्किल है।

उर्मिलेश हमसे बूढ़ा हो गया है।

मित्रों में अकेले मदन कश्यप ही अब भी जवान बने हुए हैं और अब भी दंतेवाड़ा पर कविता लिख रहे हैं। 16 मई के बाद कविता में उनकी हिस्सेदारी के इंतजार में हूं।

कश्मीर में पहली बार बेहतर मतदान प्रतिशत है जो फिजां बदलने की उम्मीद भी है, भले ही इसका श्रेय मोदी लूट लेने के फिराक में हैं।

बाकी देश की तरह फिर कश्मीर पर कश्मीरी पंडितों का वर्चस्व बहाल करना नेपाल में हिंदू राष्ट्र के संघी खेल से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है, इसे मोदी महाराज जितनी जल्दी समझें उतना ही बेहतर है।

इधर मुफ्ती मोहम्मद के साथ उनकी प्राम पींगें सर्वविदित हैं।

ये मुफ्ती साहेब जब भारत के गृहमंत्री बने, तभी से कश्मीर के हालात लगातार बिगड़ते चले गये।

उनकी बेटी के अपहरण से लेकर आतंकवादियों की रिहाई का किस्सा कश्मीर मसला उलझते जाने की दास्तां है।

रघुकुल रीति अगर जारी रहे

मुफ्ती के साथ हिंदुत्व का रसायन कश्मीर के हाजमे के लिए कितना मापिक होगा देखना अभी बाकी है। लेकिन तय है कि कश्मीर में मानवाधिकार नागरिक अधिकार हनन का सिलसिला और अफ्सपा की निरंतरता जब तक तोड़ने का राजनीतिक साहस नई दिल्ली न करें और सैन्य हुकूमत के जरिये अंध राष्ट्रवाद का धर्मोन्माद के जरिये जनता के बदले सिर्फ भूगोल को भारत में बांधे रखने की रघुकुल रीति अगर जारी रहे, तो बदलती हुई फिजां में भी कब दहकने लगे चिनार और कब डल लेक में आगजनी हो जाये और कश्मीर की घाटी मौत की घाटी में तब्दील हो जाये, कहना मुश्किल ही है।

उर्मिलेश ने बेबाक लेखन के जरिये कश्मीर के धारा 370 (Article 370 of kashmir) से लेकर बुनियादी मुद्दों को स्पर्श करते हुए घाटी से ताजा हालात की खबरे देते रहे हैं, जो पठनीय हैं।

गौरतलब है कि सुपरिचित पत्रकार और लेखक उर्मिलेश की नई पुस्तक "कश्मीर : विरासत और सियासत" भी कश्मीर को समझने के लिए अनिवार्य पाठ है।

बशर्ते कि वे मेरी मित्रता मान लें तो मुझे कश्मीर पर उनकी ताजा पत्रकारिता के लिए गर्व ही होना चाहिए। वे पत्रकारिता को आजीविका बनाना नहीं चाहते थे और मैं मास्टर बनना चाहता था।

उनने मुझे पत्रकारिता में धकेल दिया और खुद भी बच नहीं सके पत्रकारिता से, मजा यह है।

O- पलाश विश्वास