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इफ्तेखार गिलानी

 

ऐसे समय में जब कि जम्मू-कश्मीर में हिंसा और उग्रवादी घटनाओं में काफी कमी आई है, वहां व्यवस्था का दृष्टिकोण जस का तस है। अभी भी सामान्य आपराधिक कानूनों की जगह अत्याधिक अत्याचार के अधिकार वाले जन सुरक्षा कानून का इस्तेमाल निरंतर जारी है।

गृह मंत्री पी. चिदम्बर ने अपने हालिया श्रीनगर दौरे के दौरान कहा कि पत्थर फेंकने के जुर्म में केवल 123 नौजवान कैद में हैं, जिनमें से केवल 45 पर जन सुरक्षा कानून लगाया गया है। उनके इस बयान की श्रीनगर से निकलने वाले अखबारों ने अगले ही दिन धज्जियां उड़ा दी। इन अखबारों ने जेलवार ऐसे कैदियों की सूची प्रकाशित कर दी, जिसमें विभिन्न जेलों में 1465 कैदी बताए गए। इसमें उन युवकों का नाम नहीं है, जिन पर हाल ही में इस कानून के तहत विभिन्न थानों में पकड़ा गया है।

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने पिछले साल अपनी रिपोर्ट में जन सुरक्षा कानून को ‘‘कानूनविहीन कानून’’ कहा था। दण्ड-न्याय व्यवस्था एक पूरी प्रक्रिया है, जो साक्ष्यों पर आधारित होती है ताकि निर्दोषों को सजा जैसी गलती कम से कम हो और दोषियों को सजा की गारण्टी हो सके। ‘सुरक्षात्मकता’ के नाम पर किसी को अपराधी होने के शक के में बिना किसी आरोप या सुनवाई के दंडित करना किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक है।

घाटी में गैरकानूनी हथियार रखने का आरोप उग्रवादियों या उनके समर्थकों के लिए एक सामान्य आरोप है। ऐसे आरोपों की दर प्रति 100 मामलों में 0.5 है। इसकी तुलना अन्य भारत में ऐसे आरोपों से करें तो यह राष्ट्रीय औसत से यह 130 गुना कम है। इसी तरह से हत्या के प्रयासे के मामलों को देंखे तो ऐसे मामले जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय औसत से 8 गुना कम हैं, दंगें 7 गुना और आगजनी की घटनाएं 5 गुना कम हैं। लेकिन ठीक इसके उलट जन सुरक्षा कानून के तहत कैद में

रखे गए लोगों की संख्या राष्ट्रीय औसत से 14 गुना ज्यादा है।

जन सुरक्षा कानून के तहत बहुत से ऐसे लोगों को दो सालों से भी ज्यादा समय से कैद में रखा गया है, जिन पर न तो कोई आरोप तय है या न ही कोई सुनवाई चल रही है। कईयों पर तो कोई आपराधिक मामला भी नहीं बनता। ‘राज्य की सुरक्षा को हानि’ जैसे अपरिभाषिक और ‘पब्लिक आर्डर बनाए रखने’ सरीखे विस्तृत रूप से परिभाषित कृत्यों को जन सुरक्षा कानून के तहत न्यायोचित ठहराया जा सकता है। इस कानून के तहत कैदी उसे कैद रखने के निर्णय को भी चुनौती नहीं दे सकता, न ही न्यायिक समीक्षा की मांग कर सकता और न ही उसे कैद में रखने का आदेश देने वाली सलाहकार समिति से पहले किसी तरह के कानूनी प्रतिनिधि या वकील रख सकता है।

ऐसे में जब कि अन्य भारत स्वतंत्र, निष्पक्ष और मजबूत न्यायिक प्रणाली का अधिकार रखता है, जम्मू-कश्मीर में यह न्यायिक प्रणाली भी न्याय देने में असफल है। काठमाण्डू के दक्षिण एशियाई फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स संगठन ने अपने अध्ययन में नागरिक अधिकारों की रक्षा में असफल न्यायपालिका पर सवाल उठाए हैं। अध्ययन के मुताबिक बंदी प्रत्यक्षीकरण जैसे उपाय तो कश्मीर में पूरी तरह से फेल हो चुके हैं। न्यायपालिका जीवन के अधिकार की रक्षा करने में और इसका हनन करने वालों को दंडित करने में अक्षम है।

सुप्रीम कोर्ट के वकील अशोक अग्रवाल ने 200 पेज की न्यायिक रिपोर्ट के आधार पर कहा कि कश्मीर में न्यायिक प्रक्रिया नाम मात्र की हैं। खासकर गायब हुए लोगों और हिरासत में हुई मौत पर की जाने वाली न्यायिक प्रक्रिया। 57 प्रतिशत मामलों में जहां सुरक्षा बल या उसके किसी इकाई की भूमिका होती है, कोर्ट सिर्फ एफआईआर रजिस्टर करने का आदेश देने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाती। 43 प्रतिशत मामलों में कोर्ट एफआईआर रजिस्टर करने का आदेश भी नहीं देती और 10 प्रतिश मामले ऐसे हैं, जहां एफआईआर रजिस्टर होने में भी 5 से 12 साल का वक्त बीत जाता है।

किसी मामले की न्यायिक जांच में भी यदि इकाई विशेष ( सुरक्षा बल) के तहत मामला जुड़ा हो तब भी कोर्ट अपराधियों को सामने लाने में सफल नहीं हो पाती। सालों से हाईकोर्ट की न्याय प्रक्रिया की गति काफी धीमी है, जिससे मामले बढ़ते जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ सुरक्षा बलों की न्यायिक प्रक्रिया पर अधिकार में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है।

जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट का अपनी कार्यप्रणाली पर भी नियंत्रण नहीं है। जिस कारण कोर्ट के स्टाफ के बीच लापरवाही है और इसके दुष्परिणाम का भय बिल्कुल नहीं है। उच्च न्यायलय के निचले स्तर पर जिला के प्रमुख जज और मजिस्ट्रेट कई मामलों में जांच अधिकारी नियुक्त किये जाते हैं लेकिन ये भी सिर्फ अपने कार्यालय के लिए उत्तरदायी होते हैं।

करीब-करीब 200 मामले ऐसे हैं जो गायब हो चुके लोगों के हैं और सुरक्षा बलों के पास हिरासत में  लिये गये लोगों के रिकॉर्ड भी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 1990 से कई ऐसे मामले न्यायालय में पड़े हैं जिनकी याचिकाओं पर धूल की परत जम गई है। कहा जाता है कि कश्मीर में जीवन जीने के अधिकार का कानूनी निराकरण का रास्ता सशस्त्र सुरक्षाबल विशेष अधिकार अधिनियम, 1990 से होकर जाता है। कई सारे अध्ययन इस पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं कि ‘न्यायिक राष्ट्र’ की अवधारणा की दवा जो न्यायपालिका द्वारा तैयार की जाती है, वो राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता और संप्रभुता से बुरी तरह प्रभावित होती है। यह कहा जा सकता है कि कश्मीर में कानून की भूमिका सुरक्षा बलों को वैधता दिलाने और ऐसा वातावरण बनाने वाली प्रतीत होती है।

बंदी प्रत्यक्षीकरण कार्यवाई की एक मात्र प्रमुख ख़ासियत है कि यह हाईकोर्ट को शक्तिविहीन बना देती है। याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट के संबंधित एजेंसी को नोटिस जारी करने के बाद से कोर्ट का उस मामले पर से नियंत्रण समाप्त हो जाती है। जैसे-जैसे मामले की कार्यवाई आगे बढ़ेती है, पूरे मामले पर केन्द्र, राज्य और संबंधित एजेंसी का नियंत्रण कायम हो जाता है।

लगभग 62 मामले, जिसमें हाईकोर्ट ने जांच के आदेश दिए थे, जांच प्रक्रिया में आरोपी संस्था ने भाग नहीं लिया। यहां तक की कुछ मामलों में जांच करने वाले न्यायाधीश ने आरोपी संस्था के खिलाफ टिप्पणी भी की, लेकिन सुरक्षा बलों ने सेना की कार्रवाई से संबंधित कोई रिकार्ड पेश करने या मामले को सुलझाने की जहमत नहीं उठाई। न तो उन संदेहपूर्ण घटनाओं के लिए जिम्मेदार सैनिकों या अधिकारियों को कोर्ट के पेश किया।

पिछले 20 वर्षों में जब से कश्मीर में उग्रवाद का उदय हुआ और सेना की चहलकदमी बढ़ी है, नई दिल्ली ने ऐसे सैकड़ों मामलों में से अभी तक केवल दो मामलों में मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है।

कश्मीर, सामान्य रूप से चले इसके लिए जरूरी है कि वहां आपात प्रशासनिक कानूनों की बजाय सामान्य दण्ड-न्यायिक व्यवस्था को लागू किया जाए और गिरफ्तार किए गए लोग और उनके परिवार वालों के खिलाफ लगे सभी आरोपों की स्वतंत्र, निष्पक्ष और सही जांच की व्यवस्था की जाए।

घाटी में कानून-व्यवस्था की सर्वोच्चता बनाए रखने लिए यह भी जरूरी है कि मानवाधिकार का उल्लघंन करने वाले सभी अधिकारियों के लिए दण्डात्मक और प्रशासनिक कार्रवाई की जाए। कश्मीर को कश्मीर बनाए रखने का यही एक मात्र रास्ता है। इससे जम्मू-कश्मीर के राजनैतिक हल की दिशा में बढ़ने के लिए बेहतर माहौल भी बनाने में मदद मिलेगी।

इफ्तेखार गिलानी
मशहूर पत्रकार और स्तम्भकार। राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित दस्तावेज रखने के एक झूठे मामले में उन्होंने कई साल जेल में बिताए हैं। इनसे iftikhar.gilani@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है.

मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद – पूर्णिमा उरांव

साभार -मीडिया चार्जशीट

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