बातचीत से ही निकलेगा रास्ता
अंबरीश कुमार
श्रीनगर और आसपास के इलाके में पिछले एक महीने से सुरक्षा बल के जवानों और स्थानीय लोगों के बीच जो टकराव चल रहा है वह जल्दी शांत होता नहीं दिखता. घाटी में खत्म होते अलगाववाद का अचानक फिर से उभर आना दुर्भाग्यपूर्ण है. यह स्थिति सरकार और सुरक्षा बलों की चूक और लापरवाही का भी नतीजा मानी जा रही है.
आतंकवादी बुरहान वानी स्थानीय नागरिक था और वह सोशल मीडिया के चलते युवाओं में लोकप्रिय भी था. ऐसे में मुठभेड़ में मारे जाने के बाद पुलिस और सरकार ने बिना हालात का अंदाजा लगाये जिस तरह उसकी तस्वीर सोशल मीडिया पर डाली उससे घाटी में आक्रोश की लहर फैल गयी. इसी वजह से बड़ी संख्या में लोग उसकी अंतिम यात्रा में जुटे और सुरक्षा बलों पर हमला भी किया. पाकिस्तान के समर्थन में नारे भी लगे और पुलिस भी निशाने पर आयी.
श्रीनगर से मिली जानकारी के मुताबिक सुरक्षा बल के अफसरों को इस तरह की प्रतिक्रिया की आशंका नहीं थी और यही बड़ी चूक भी हुई.

इसी मई में घाटी में हमने देखा था कि माहौल काफी बदल चुका था.
पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों की संख्या कम हो चुकी थी. जुमे के दिन नौहट्टा की जामा मस्जिद में नमाज के बाद होने वाली भारत विरोधी नारेबाजी और पथराव को छोड़ दें तो कश्मीर में माहौल बदल रहा था. सैलानियों से श्रीनगर के होटल भरे हुए थे और व्यापारी से लेकर छोटे मोटे काम करने वालों का कारोबार बढ़ गया था.

कश्मीर में अधिकांश लोग पर्यटन उद्योग पर ही निर्भर रहते हैं. आतंकवाद का दौर चलता है तो सबसे पहले यही लोग संकट में आते हैं. ये लोग नहीं चाहते हैं कि माहौल बिगड़े और सैलानियों की आवाजाही बंद हो जाये. पर कश्मीर में एक तबका है जो लगातार आजादी की बात कर रहा है. इसमें आतंकवाद समर्थक भी हैं और आम लोग भी. इन आम लोगों की राय ढाई तीन दशक में बदली है.
नब्बे के दशक में जो अलगाववाद का दौर शुरू हुआ उसके पीछे कई कारण थे. वर्ष 1987 के चुनाव में हुई धांधली और फिर उसकी प्रतिक्रिया को जिस ढंग से दबाया गया था, उससे लोकतंत्र से वहां के नौजवानों का मोहभंग होना शुरू हुआ और उन्होंने रास्ता बदला.

केंद्र की कांग्रेस सरकार ने कश्मीर में कभी निष्पक्ष चुनाव नहीं होने दिया यह आम धारणा है.
इसका जब नौजवानों ने विरोध किया तो उनका उत्पीड़न किया गया. रही सही कसर राज्यपाल बनाकर भेजे गये जगमोहन ने पूरी कर दी. उनके एजेंडा पर कश्मीरी पंडित थे बाकी कश्मीरी नहीं. वे कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर कर अलगाववादियों और उनके समर्थकों से दो-दो हाथ करना चाहते थे.

हुआ यह कि कश्मीरी पंडित तो बेदखल हो ही गये लेकिन अलगाववाद कम नहीं हुआ.
पाकिस्तान ने इसे और हवा दी. पर बाद में खुद संकट से जूझ रहे पाकिस्तान ने भी आर्थिक मदद से हाथ खींच लिया और माहौल बदलने लगा. पर राज्य या केंद्र ने कश्मीर के विकास या रोजगार का कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं दिया जिससे आधे से ज्यादा बेरोजगार नौजवानों को कोई उम्मीद नजर आये.
आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर उद्योग धंधों के मामले में कश्मीर बहुत पीछे है.

कश्मीर घाटी का दौरा करने पर वहां की गरीबी को देखा जा सकता है.
देश के अन्य राज्यों की राजधानियों के मुकाबले श्रीनगर आज भी बदहाल नजर आता है.
इस सबके बीच अलगाववाद के दौर की नयी पीढ़ी भी जवान हो चुकी है. यह पीढ़ी आजादी के नारे के बीच जवान हुई है. पत्थरबाजी और गोलीबारी के बीच यह पीढ़ी बड़ी हुई. दूसरे यह दौर सोशल मीडिया का भी है. यही वजह है कि रातोंरात एक आतंकवादी नौजवान युवाओं के बीच लोकप्रिय बन जाता है. ऐसे में पुलिस प्रशासन और सरकार को जो सावधानी बरतनी चाहिये थी वह नहीं बरती गयी जिससे तनाव बढ़ा और हिंसा का नया दौर शुरू हो गया.

पर इसका समाधान सिर्फ और सिर्फ बातचीत से संभव है.
केंद्र को सभी दलों को साथ लेकर कश्मीर के लिये एक कमेटी बनानी चाहिये जो बातचीत करे और कश्मीर के नौजवानों को मुख्यधारा से जोडऩे का रास्ता बताये. विकास और रोजगार का खाका भी बनाये.
कश्मीर के लोगों को भी सोचना चाहिये कि वे चार ताकतवर देशों के बीच कौन सी आजादी लेकर रह सकते है. पाकिस्तान के कब्जे वाले आजाद कश्मीर के भी हालत देख लें और पाकिस्तान के भी.
(शुक्रवार)