कहीं आसमान न निगल जाये हमारी सारी जमीन!
कहीं आसमान न निगल जाये हमारी सारी जमीन!
सीने में खून रिस रहा है लेकिन खून की नदियां दीख नहीं रही हैं किसी को भी।
अभी बचा हुआ है बसंतीपुर, कब तक बचा रहेगा बसंतीपुर?
पलाश विश्वास
पिछली दफा जब घर आया था, शहरीकरण की लपलपाती जीभ को दावानल की तरह सारी तराई में खेतों और गांवों को निगलते जाने का अहसास लेकर वापस लौटा था।
अबकी बार बरसों बाद घर लौटा हूं।
घर इसीलिए नहीं आ रहा था कि बंटवारे के किस्से में शामिल होने का दर्द झेलने को तैयार न था। मेरे भीतर भी कोई टोबा टेकसिंह है।
मैं जीते जी अपनी जमीन के टुकड़े करना नहीं चाहता और न अपने घर के।
इस बार लौटा तो चारों तरफ से शहरीकरण के दावानल से घिरा हुआ महसूस कर रहा हूं।
हमारे खेतों के बन रहे कब्रिस्तान पर बेइंतहा सीमेंट का जंगल तामीर होते देख रहा हूं और लोग इसे विकास कह रहे हैं।
आदतन सुबह सात बजे बाघ एक्सप्रेस से उतरकर घंटे भर में घर पहुंचकर गांव चक्कर लगाने निकल ही रहा था तो भाई पद्दो ने खबर दी कि कल ही कैशियर की पहली पत्नी का निधन हो गया।
वहां पहुंचा तो उनकी दूसरी पत्नी ने कहा, बहुत देर से आये हो कल दोपहर तक आते तो मुलाकात हो जाती।
हरिमोहन दा का पोता साफ्टवेयर इंजीनियर है।
वहां प्रेमनगर में राजमंगल पांडेय के घर के सामने के घर का एक लड़का मिला। प्रेमनगर के वे लोग भी नहीं बचे, जो मेरे बेहद अपने थे। ऐसे गांव तराई में या पहाड़ में कुल कितने होंगे, हिसाब दे नहीं सकता।
हरिमोहन दा से पिछली बार मिल गया था, वह शुगर की बीमारी से दो साल पहले गुजर गये। भाभी पहले ही जा चुकी थी वैसे ही हमसे हुई आखिरी किश्त की मुलाकात के बाद।
गोपाल मामा दरअसल गांव के रिश्ते से हमारे भांजे थे। चूंकि उम्र में बड़े थे, हम उन्हें मामा कहते थे। वे भी नहीं रहे। वे बाउल थे।
प्रकाश झा ने गोविंद बल्लभ पंत पर जो फिल्म बनायी, उसकी शूटिंग बसंतीपुर में हुई थी और उस फिल्म में बाउल गाना गाने वाले गोपाल मामा थे।
हजारी बुआ के वहां हर बार पान खाता था, हर किसी का मुस्कान के साथ स्वागत करने वाली हजारी बुआ भी नहीं रही। उनकी पोती ने पान खिलाय़ा। उनका पोता मैथेमेटिक्स पढ़ रहा है। लेकिन पोती ने स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी है।
हमने उससे कहा कि रसोई घर में जिंदगी गुजारनी न हो तो फिर पढ़ाई शुरू कर दो। पढ़ी लिखी बहुओं और बेटियों से यही कहता रहा।
गांव में कारें बहुत हैं। हर दो घर में से एक घर में कार खड़ी है।
झोपड़ीवाला कोई मकान अब गांव में है नहीं।
घर के बीतर घर, और घरों में चहारदीवारी है।
अस्पताल और स्कूल पक्के हैं।
चारों तरफ निकलने को पक्की सड़कें भी हैं।
कंप्यूटर है और फेसबुक भी है।
लोगों ने भव्य मंदिर भी बना लिय़े हैं।
ज्यादातर गांव वाले अब केसरिया हैं।
उन घरों को कूदते-फांदते छूना और उलमें बसी दिवंगत आत्माओं से संवाद में बीत गया पूरा दिन। हरिमाहन दा के नाती लालू और श्यामधारी भाई के बेटे गोवर्द्धन ने नेट से जोड़ने की कोशिश की, संभव नहीं हुआ।
अपने घर का भी कायाकल्प हो गया है।
पद्दो ने दो मंजिला मकान बना लिया है। वहीं ठहरा हूं।
दो भांजे शक्ति फार्म से राकेश और प्रसेनजीत इस घर में ठहर कर पढ़ रहे हैं।
छोटा भाई पंचानन और उसकी पत्नी शिवानी नौकरी पर चले जाते हैं। भतीजा टुटुल कामकाज पर निकल जाता है तो पद्दो के पांव में भी सरसों हैं। घर में रहता बहुत कम है। पंचानन ने भी पक्का घर बना लिया है।
घर की निशानी दोनों आम के पेड़ दिवंगत हैं। जामुन कटहल अमरुद आड़ू नीम बबुल वगैरह पेड़ कहीं नहीं है। कहीं नहीं है घर के पिछवाड़े का लंबा चौड़ा बगीचा।
ताऊजी के बसेरे पर पहरे के लिए एक अजनबी दंपत्ति अपने बच्चे के साथ है। अरुण ने अपना पक्का डेरा बांध रखा है। रहता वह दिल्ली में है।
दशकों से ताई का घर माटी का जस का तस पड़ा है। सांप जितने थे जहां-जहां, शीत निद्रा में हैं। अकेली मंझली बहू घर में रहती है।
इस घर में मन रमाना मन साधना बहुत मुश्किल है। खेतों की तरफ गया तो वहां भी सीमेंट का जंगल पसर रहा है। लोगों ने दुकानें सजा ली हैं।
फेसबुक पर मेरे गांव के बच्चे मुझे पढ़ भी लेते हैं। साइट पर भी चले आते हैं। कोई बेरोजगार नहीं है। कोई भूखा नहीं है। सभी लड़के लड़कियां पढ़ाई कर रहे हैं या फिर नौकरी।
लेकिन जैसे हर घर हमारा रहा है वैसे घर के भीतर भी कोई घर अभी बचा नहीं है।
जैसे हर बात के लिए सलाह मशविरा संवाद आदान प्रदान की लोकरीति थी, उसकी कोई गुंजाइश नहीं है।
गरीबी खोजे नहीं मिलेगी, संपन्न हो गया है बसंतीपुर और लोगों के खोत खलिहान भी बचे हुए हैं लेकिन साझा चूल्हा कहीं बचा नहीं है।
मुझे नहीं मालूम कि मैं हसूं कि रोउं।
मुझे नहीं मालूम कि इस गांव में मैं फिर कभी लौट सकता हूं या नहीं।
जिसने पद्दो का घर बनाया, वह आकर बोला तीन लाख में आपके लिए ऐसा घर बन जायेगा और पांच लाख में हवेली बन जायेगी। मैंने कहा कि कोलकाता में तो दो कमरे के फ्लैट ही पचास लाख का है और एक कट्ठा जमीन दस से लेकर तीस लाख तक का उपनगरों में तो महानगर में तो करोड़ों का खेल है।
इस पर सविता बोली कि गांव आकर करोगे क्या, जायज बात है। लेकिन मन है कि मानता नहीं।
दिनेशपुर के 36 बंगाल गांवों में साठ के दशक में, संविद राज में भूमिधारी हक मिलने पर लोगों ने दो दो हजार रुपये में आठ-आठ एकड़ जमीन बेच दिये।
बसंतीपुर वालों ने जमीन बेची नहीं। जिसने बोची वह भी अपने ही लोगों को। जो लोग जैसे थे, बने रहे।
पिछली बार आय़ा था तो रुद्रपुर, गदरपुर होकर काशीपुर, जसपुर और दूसरी तरफ किछा होकर शक्तिफार्म और सितारगंज तक तो रुंद्रपुर से हल्द्वानी तक शहरीकरण का उत्सव था। बड़ी सड़कों के किनारे काऱखाने, शापिंग माल, कालेज, आवासीय कालोनी महानगरीय बन रहे थे।
अब बसंतीपुर के चारों तरफ शहरीकरण का उत्सव है।
साठ के दशक के भूमिधार हक मिलने के बाद से जो गांव और जो खेत बचे हुए थे, वे शहरों में खपते जा रहें हैं। दिनेशपुर के आस-पास के सारे गांव दिनेशपुर में समाहित है।
दिनेशपुर रुद्रपुर सड़क के किनारे के तमाम गांवों के खेत अब सिडकुल के बाहर के कारखाने हैं, शापिंग माल है। शिक्षा दुकानें हैं, महंगे सुविधासंपन्न आवासीय परिसर हैं।
आज सुबह भी जब कनेक्टिविटी के लिए गोवर्द्धने के साथ जूझ रहा था, बचपन के तमाम बचे हुए मित्र गोलक, टेक्का, विवेक आंगन में कुर्सी डाले इंतजार कर रहे थे।
मेरे घर के पिछवाड़े एक नई बहू आयी है। वह चंडीपुर की है और उसने बताया कि उसके गांव से लेकर उदय नगर, कालीनगर, पंचाननपुर, नेताजी नगर, दुर्गापुर तो क्या बसंतीपरु के उत्तर में चित्तरंजन तक की जमीनें बिक गयी हैं और तमाम किसान अब मजदूर हो गये हैं लाखों खेत के बदले मिलने के बावजूद।
गोलक को बताया तो बोला, बसंतीपुर के रंजीत ने भी एक एकड़ जमीन बेच दी है।
बसंतीपुर बनने से पहले बसंतीपुर के लोग विजयनगर के टेंट में जंगल के बीच रहते थे। वहां कमलादी, विशाखादी और रंजीत ने जन्म लिया था।
कमलादी ने दुरारोग्य बीमारी से हताश होकर करीब छह साल पहले खुदकशी कर ली। विशाखादी को सांस की तकलीफ थी और दो तीन साल पहले उसने दम तोड़ दिया। उसका परिवार पीलीभीत से उजड़कर बसंतीपुर आ बसा था। उसके पति भी नहीं रहे। विशाखा दी विवेक की बड़ी बहन है। उनकी मां ने पुरा किस्सा सुनाया।
बगल के घर में भाभी लिहाफ सिल रही थी।
कहा, इतना काम क्यों करती हो भाभी।
जवाब नहीं दिया, बोली बैठो।
फिर मैंने पूछा, दादा कहां हैं।
बोले, ऊपर।
मैंने कहा, बुलाओ।
बोले, ऊपर आकर ही बुला सकती हूं।
उनको भी मधुमेह की बीमारी थी। गांव के घर घर में अब संपन्नता के साथ मधुमेह महामारी है।
रंजीत को भी मधुमेह है। गांव का जब चक्कर लगा रहा था तो वह दो तीन बार मिला। चश्मुद्दीन है। दुबला गया है। मैंने कहा कि बूढ़ा तो मैं भी रहा हूं, मरियल क्यों हो इस तरह। बोला,शुगर है।
मैंने इस पर कहा, शुगर तो मुझे भी है।
उसने कहा जोड़ों में दर्द बहुत है।
अकेला भाई है। बंटवारे का सवाल नहीं उठता। फिर भी उसने जमीन बेच दी।
मुझसे कहा भी नहीं।
कार्तिक काका और विधूदा पचहत्तर पार हैं। दोनों सक्रिय हैं।
दोनो बसंतीपुर जात्रा पार्टी के कलाकार। कार्तिक काका तो इस बुढ़ापे में अब भी हीरो का पार्ट अदा करते हैं। बोले, आज का जमाना होता तो अवनी, हाजू और मैं बालीवुड में होते। कितने रास्ते खुले हैं।
मैंने देखा कि कार्तिक काका के घुटनों तक कीचड़ से लथपथ। वही फसल की खुशबू महमहाती सी। अगली बार आउंगा तो क्या पता कार्तिक काका या विधूदा से मुलाकात हो पायेगी या नहीं।
उनके पांव खेतों और खलिहानों पर हैं, मजबूती से। राहत की बात यही है।
बचे हुए लोग अब भी किसान होने का गर्व करते हैं, राहत की बात यह है।
शायद पुरखों के बेमिसाल संघर्ष की बदौलत मिली जमीन की असली कीमत वे जान रहे होंगे, इसीलिए अब भी बचा हुआ है बसंतीपुर।
कब तक बचा रहेगा बसंतीपुर।
कब तक बची रहेगी तराई की हरियाली।
कब तक बचे रहेंगे पहाड़।
विकास सूत्र और मुक्त बाजार के चंगुल में फंसी छटफटा रही धरती पर माटी को कोई महक बची भी रहेगी या नहीं, नहीं, नहीं जानता। सीने में खून रिस रहा है लेकिन खून की नदियां दीख नहीं रही हैं किसी को भी।


