काँग्रेस से मुहब्बत, धर्मनिरपेक्ष राजनीति और नीतीश कुमार का नया पैंतरा
काँग्रेस से मुहब्बत, धर्मनिरपेक्ष राजनीति और नीतीश कुमार का नया पैंतरा
भाजपा पहले भी एक साम्प्रदायिक जमात थी और आज भी साम्प्रदायिक जमात है
शेष नारायण सिंह
बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने एक बहुत ही दिलचस्प बयान दिया है। उन्होंने कहा है कि फेडरल फ्रन्ट कोई राजनीतिक गठबँधन नहीं बनेगा, वह तो केवल आर्थिक मुद्दों तक केन्द्रित रहेगा यानी अगर ममता बनर्जी, नवीन पटनायक या अन्य कुछ नेताओं के सुझाव पर आधारित किसी फ्रन्ट का गठन होता है तो वह शुद्ध रूप से राज्यों के हितों को आर्थिक रूप से मज़बूत करने के लिये ही इस्तेमाल किया जायेगा। अपने इस बयान से नीतीश कुमार यह सन्देश देना चाह रहे थे कि वे यूपीए या काँग्रेस के खिलाफ या उससे हटकर किसी राजनीतिक मुहिम का हिस्सा बनने के लिये तैयार नहीं है। सत्रह साल तक भाजपा के साथ रहने के बाद राजनीतिक अस्तित्व की रक्षा के लिये नीतीश कुमार अपने आपको सेक्युलर साबित करने के प्रोजेक्ट में पूरी तरह से जुटे हुये हैं। यह बिलकुल सच है कि आज की राजनीतिक जमातों को अपने आपको सेक्युलर सिद्ध करने के लिये या तो वामपंथी पार्टियों के मित्र के रूप में अपनी छवि को पेश करना पड़ता है या फिर उन्हें यह बताना पड़ता है कि वे काँग्रेस के विरोधी नहीं हैं।
जहाँ तक वामपंथी पार्टियों की बात है उनको मालूम है कि नीतीश कुमार सेक्युलर नहीं हैं। वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टियों के बड़े नेताओं को मालूम है कि नीतीश कुमार के मन में सेक्युलर राजनीति के प्रति जो मोह उमड़ा है उसके पीछे नरेंद्र मोदी और भाजपा के सहयोगी होने का जो तमगा लग गया है उस से जान बचाना है। इसलिये उनको वामपंथी पार्टियाँ सेक्युलर होने का सर्टिफिकेट देने के लिये राजी होती नहीं नज़र आतीं। देश में जिस दूसरी जमात के साथ खड़े होने के बाद राजनीतिक दल अपने आपको सेक्युलर कहने लगते हैं, उसका नाम काँग्रेस है। काँग्रेस ने देश की आज़ादी की लड़ाई की अगुवाई की थी, महात्मा गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेसियों ने जेलों की हवा खायी थी और 1920 से 1947 तक की मेहनत के बाद आज़ादी हासिल की थी। इस बीच साम्प्रदायिक जमातों के नेता मौज कर रहे थे। मुसलमानों और हिन्दुओं में फर्क करने वाली जमातों के सबसे बड़े नेता, मुहम्मद अली जिन्ना एक दिन के लिये भी जेल नहीं गये। उसी तरह से आधुनिक भारत की कुछ ऐसी जमातों के नेता भी अँग्रेजों की वफादारी की राजनीति में शामिल थे जिनके अनुयायी आजकल कुछ राज्यों में सरकारों में हैं या रह चुके हैं। आज़ादी की लड़ाई में अपनी इस धर्मनिरपेक्ष भूमिका के लिये ही काँग्रेस को हमेशा से ही सेक्युलर माना जाता रहा है। इसलिये अपने आपको सेक्युलर साबित करने के लिये नीतीश कुमार अपनी पार्टी को काँग्रेस विरोधी के रूप में नहीं पेश कर सकते। काँग्रेस के खिलाफ जो राजनीतिक गठबंधन स्वरूप ले रहा है, उससे अपने आपको केवल आर्थिक मुद्दों पर साझी करके नीतीश कुमार एक खास सन्देश देना चाह रहे हैं।
यह अपने देश की राजनीतिक सच्चाई है कि काँग्रेस को आम तौर पर सेक्युलर माना जाता है। शायद इसीलिये नीतीश कुमार जैसा राजनीति का जानकार नेता सेक्युलर बनने के लिये एक तरफ तो अपने आपको भाजपा और उसके सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी से दूर करता है और दूसरी तरफ यह सन्देश भी देता है कि वह काँग्रेस के खिलाफ बन रहे किसी फोरम के में राजनीतिक रूप से शामिल नहीं है, वह तो उसकी आर्थिक विकास और हक की लड़ाई का एक तरीका मात्र है।
भारत में राजनीतिक अस्तित्व की रक्षा के लिये ज़रूरी है कि राजनीतिक पार्टियाँ अपने आपको सेक्युलर बनाये रखें। मुस्लिम लीग के बाद सबसे ज़्यादा साम्प्रदायिक मानी जाने वाली पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भी जब सरकार बनाने का मौक़ा मिला तो उन्होंने भी अपनी पार्टी के उन कार्यक्रमों को सरकार के कार्यक्रमों से अलग कर दिया जिनके कारण उनकी पहचान एक साम्प्रदायिक पार्टी की बनी थी। राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिये साम्प्रदायिक एजेण्डा को भुला देने की कोशिश कर रही भाजपा को कभी भी सेक्युलर राजनीति के वाहक के रूप में नहीं पहचाना गया। वह पहले भी एक साम्प्रदायिक जमात थी और आज भी साम्प्रदायिक जमात है। दूसरी तरफ काँग्रेस की पहचान हमेशा ही एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी के रूप में होती रही है। हालाँकि यह भी सच है कि काँग्रेस में बीच बीच में ऐसे दौर बार बार आये जब वह साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर के रूप में देखी गयी। आज़ादी के बाद भी एक समय आया था जब काँग्रेस के अन्दर मौजूद हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियाँ भारी पड़ने की कोशिश में लगी रहीं लेकिन जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक हैसियत के सामने आजादी के आन्दोलन की मूल भावना और महात्मा गाँधी की विरासत को कोई चुनौती नहीं दे सका और काँग्रेस अपने धर्मनिरपेक्ष आधार से अलग नहीं हुयी। यह भी सच है कि जब भी काँग्रेस पार्टी के नेताओं ने धार्मिकता को बढ़ावा देने की कोशिश की वे सत्ता से बेदखल ज़रूर हुये। काँग्रेस के इंदिरा युग में जब उनके छोटे पुत्र संजय गाँधी ने पार्टी और सरकार के फैसले लेने शुरू किये तो आरएसएस के उस वक़्त के सबसे बड़े नेता ने उनसे सम्पर्क किया था और उनको यह बताने की कोशिश की थी कि आरएसएस संजय गाँधी में विश्वास करता है और उनको राजनीतिक समर्थन दिया जा सकता है। ऐसा करने के लिये उस वक़्त की अपनी पार्टी जनसंघ को भुलाया भी जा सकता है। बाद में पता चला था कि संजय गाँधी ने उस प्रस्ताव को बहुत गम्भीरता से लिया और उस पर काम करना भी शुरू कर दिया था। संजय गाँधी की उसी सोच का नतीजा है कि दिल्ली के तुर्कमान गेट सहित बहुत सारे इलाकों में मुसलमानों पर अत्याचार किये गये। इमरजेंसी का आतंक झेलने वालों में मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी। हालाँकि उस दौर में जो लोग भी संजय गाँधी और इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी के खिलाफ थे सबको जेलों में ठूंस दिया गया था लेकिन मुसलमानों को तो पूरे उत्तर भारत में बहुत परेशान किया गया। अमेठी के रनके डीह जैसे इलाकों में तो मुसलमानों को टारगेट करके गोलियाँ भी चलायी गयीं और मुसलमानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
जब भी काँग्रेस पार्टी ने साम्प्रदायिक राजनीति की है उसे सत्ता से हटना पड़ा है। समकालीन राजनीति और इतिहास का कोई भी जानकार बता देगा कि 1977 में जब इंदिरा गाँधी की सत्ता गयी तो उनके खिलाफ वे सभी जमातें थीं जो साम्प्रदायिकता के खिलाफ थीं। 1989 में भी जब काँग्रेस की सत्ता छिनी तो राजीव गाँधी के युग में सॉफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति पर काम चल रहा था। राजीव गाँधी के सलाहकार अरुण नेहरू और बूटा सिंह कहीं बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा रहे थे तो दूसरी तरफ राम मन्दिर का शिलान्यास करवा रहे थे। 1991 में गठबंधन के ज़रिये काँग्रेस सत्ता में आ तो गयी लेकिन 1992 में बाबरी मसजिद के ढहाने में शामिल होकर एक बार फिर अपने आपको कहीं का नहीं छोड़ा, सत्ता तो गयी ही देश की आबादी के एक बड़े हिस्से का विश्वास हमेशा के लिये खो दिया। शायद इसीलिये जब 1996 में चुनाव हुआ तो मुस्लिम बहुल इलाकों में काँग्रेस एक राजनीतिक पार्टी के रूप में बहुत कमज़ोर हो गयी। लेकिन यह भी सच है सेक्युलर जमातों और सभी धर्मों के अनुयायियों के समर्थन के बिना काँग्रेस को सत्ता कभी नहीं मिली। इमरजेंसी में संजय गाँधी और उनके साथियों की कृपा से जो साम्प्रदायिकता का तमगा मिला था उसको इंदिरा गाँधी ने 1978 से धर्मनिरपेक्ष राजनीति की अलम्बरदार बनकर दूर किया। जब उन्होंने कहा कि वे धर्म निरपेक्ष राजनीति के बाहर कभी नहीं जायेगीं तो जनता ने उनका विश्वास किया। जब उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बात करना शुरू कर दिया तो जनता पार्टी में मौजूद समाजवादियों ने मधु लिमये के नेतृत्व में जनता पार्टी के जनसंघ घटक के नेताओं पर दबाव बनाना शुरू कर दिया और माँग की कि जनता पार्टी के सदस्य किसी अन्य पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते। उन्होंने साबित कर दिया कि आरएसएस भी एक राजनीतिक पार्टी है हालाँकि वह चुनाव में डायरेक्ट हिस्सा नहीं लेता। इस दबाव का नतीजा था कि जनता पार्टी टूट गयी और धर्मनिरपेक्ष राजनीति की विचारधारा के बल पर इंदिरा गाँधी दोबारा सत्ता में आयीं। यह अलग बात है 1980 के बाद भी इंदिरा गाँधी की काँग्रेस ने अपने इतिहास की सबसे कारगर विचारधारा, धर्मनिरपेक्षता, को सही अर्थों में पालन नहीं किया। आरएसएस और उसकी मातहत पार्टियों को कमज़ोर करने के उद्देश्य से उन्होंने भी हिन्दू आधिपत्य की राजनीति शुरू कर दी। इसी राजनीतिक सोच का नतीजा था कि सिखों और तमिलों के प्रति उनकी राजनीति में बहुत भारी खामियाँ आयीं। हालाँकि 1984 में उनकी हत्या के बाद उनकी पार्टी को भारी बहुमत मिला लेकिन विचारधारा के स्तर पर काँग्रेस ढलान पर ही रही। धर्मनिरपेक्ष राजनीति को तिलाञ्जलि देने के कारण ही काँग्रेस को बाद के चुनावों में वह दर्ज़ा कभी नहीं मिल सका जो पहले हुआ करता था। 1997 तक काँग्रेस एक दिशाहीन राजनीतिक जमात बन चुकी थी। पार्टी के सबसे कमज़ोर नेता, सीताराम केसरी को काँग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया था और साफ़ नज़र आ रहा था कि अब काँग्रेस एक ऐतिहासिक धरोहर बन जायेगी। जब लगभग तय हो चुका था कि उसके बाद के चुनावों में काँग्रेस हाशिए की पार्टी के रूप में ही काम करेगी तो काँग्रेस के बड़े नेताओं को पता नहीं कहाँ से इलहाम हुआ कि पार्टी को बचाने के लिये सोनिया गाँधी को पार्टी की कमान देना चाहिये और उन्होने सोनिया गाँधी को पार्टी का काम सम्भालने के लिये राजी कर लिया।
सोनिया गाँधी को मामूली साबित करने के प्रयास हर स्तर पर हुये। उनकी पार्टी के लोगों ने उनके विदेशी मूल को मुद्दा बनाकर पार्टी पर कब्जा करने की कोशिश की। भाजपा के नेताओं ने यह साबित करने की कोशिश की कि वे उसी स्तर की नेता हैं जैसी उमा भारती या सुषमा स्वराज हैं। लेकिन सारे अभियान खत्म हो गये क्योंकि सोनिया गाँधी ने धर्मनिरपेक्ष राजनीति को अपनी सोच का स्थायी भाव बना दिया था। सबको मालूम है कि 2004 का चुनाव साम्प्रदायिक राजनीतिक पार्टियों की राजनीतिक पराजय का वर्ष है जब इस देश की जनता ने उस पार्टी को हरा दिया था जिसने 2002 में नरसंहार करवाया था। उसके बाद भी काँग्रेस पार्टी में साम्प्रदायिक शक्तियों ने बार-बार मुँह उठाया है। जब काँग्रेस में मौजूद बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के समर्थकों ने राजनीति को हाइजैक करने की कोशिश की तो सोनिया गाँधी ने उसे पसन्द नहीं किया।
जानकार बताते हैं कि दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी ने बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की आरएसएस के समर्थन से की जा रही राजनीति को जिस तरह से बेनकाब किया उस योजना को काँग्रेस अध्यक्ष की धर्मनिरपेक्ष सोच का समर्थन मिला हुआ था। आज यह साबित हो चुका है कि बाबा रामदेव, अन्ना हजारे और उनके साथी आरएसएस के लिये काम कर रहे थे। शायद इसीलिये भाजपा के नेता आजकल अरविन्द केजरीवाल का विरोध बहुत ज्यादा कर रहे हैं क्योंकि वे भी अब आरएसएस और भाजपा के मित्र अन्ना हजारे को गच्चा देकर अपनी नई पार्टी बना चुके हैं। अरविन्द केजरीवाल को भी मालूम है कि अगर इस देश में सत्ता की राजनीति करनी है तो उनको भाजपा से दूर रहकर सेक्युलर राजनीति करनी पड़ेगी। अरविन्द केजरीवाल भाग्यशाली हैं क्योंकि वे कभी भी ऐलानियाँ भाजपा के साथ कभी नहीं थे लेकिन नीतीश कुमार को 17 साल तक साथ रहने के अपराधबोध से मुक्त होने के लिये काँग्रेस के पास जाना पड़ रहा है।


