कांग्रेस भी आरएसएस से कम नहीं, न अकाली कम है, मुफ्ती में भी दम कम नहीं है
कांग्रेस भी आरएसएस से कम नहीं, न अकाली कम है, मुफ्ती में भी दम कम नहीं है
और भी आरएसएस हैं बहुतेरे रंग बिरंगे इस जहां में आरएसएस के सिवाय
मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी मनुस्मृति को जलाने के लिए फिर कोई बाबा साहेब चाहिए
सूरत बदलना उतना आसां भी नहीं, मुकाबले की मंशा है तो जमीन पर आइये
जल्द से जल्द जनता के बीच जाइये, जनता से सीखकर फिर कोई दांव आजमाइये
रब को मानने वालों, जागो
वतन पर मरने वालों, जागो
जो मजहब फरोश हैं तमाम
वे ही वतन फरोश हैं तमाम
जरायमपेशा गिरहकटों के
खिलाफ हांकों जाग जाग
चिल्लपों मचाने से हालात नहीं बदलने वाले हैं यकीनन और हालात बदलने के लिए हालात बदलने के करतब भी दिखाने होंगे।
हालाते नजारा ये खतरे के दस्तक हैं वतन के लोगों कि अस्सी के दशक में पीछे लौट रहे बुलेट गति से हम स्मार्ट बायोमैट्रिक डीएऩए एनालिसिस वाले आधार कार्ड गले में टांगे कि वतन फिर आग के हवाले है और हम सिरे से बेखबर हैं क्योंकि कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़ के हकहकूक पर बोलना खुद अपने सर कलम कराने के बराबर है और सूरत यह कि मंकी बातें करने का हक सिर्फ महाजिन्न को है, बाकी जो भी जुबान खोलें, हो वे चाहे सबकी जान, बजरंगी भाई जान समझ लीजिये कि जान मुश्किल में है।
बहरहाल खबर यह कि मसलन
गुरदासपुर (पंजाब) में सोमवार को हुए आतंकी हमले के बाद पूरे पंजाब में हाईअलर्ट ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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जारी कर दिया गया है। यह खबर का सिलसिला है और जो कतई खबर नहीं है, वह यह है मसलन
83 year-old on hunger strike for 190 Days And Govt Doesn't Want You To Know
Since January 16, 2015, Surat Singh Khalsa, an 83-year-old activist, has been on a fast-unto-death seeking release of Sikh political prisoners who have completed their full jail terms and are legitimately due for release. What he got in return is a forced confinement at a hospital in Ludhiana where he is being force-fed and subjected to dubious medical procedures – a conduct that is being called inhuman by many.
मेरे पिता पुलिन बाबू सर से पांव तक जमीन के अंदर दबे किसान थे इस वतन के। मैं हालांकि सफेदपोश बंदर हूं हालांकि पूंछ हमारी है नहीं है कोई दीख रही। जैसे कोई खास ओ आम पूछ भी नहीं है हमारी। हम महानगर के वाशिंदे हैं चौथाई सदी से लेकिन सूंघ नहीं सकते हमें आप कहीं से कि हममें अब भी वहीं कीचड़, वही गोबर और वहीं फसलों की सड़ांध महमहाती है।
मैं पेशे से अखबार मालिक का कारिंदा हूं। अखबार नवीस खुद को हर्गिज नहीं कह सकता हालांकि पेशे में करीब चार दशक यूं कि जिंदगी बिता दी है। मेरी कोई मर्जी नहीं, न मेरा कोई दिलोदिमाग है और हम कंप्यूटर की स्मृतियों में दाखिल पुर्जा भर लोग हैं, जिन्हें दुनिया अखबारनवीस समझती होगी, जो हम नहीं हैं कतई।
पिता किसान आंदोलनों के, शरणार्थी आंदोलनों के नेता थे। भारत की क्या कहिये, बेदखल नदियों को तलाशने बिन वीसा पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश जाकर वहां के जनांदोलनों में जेल जाने का भी उनका शौक रहा है।
पुलिस ने उनके हाथ तोड़ दिये थे और बचपन में ही हमारे घर की कई दफा कुर्की जब्ती हो गयी थी। दबिशें हमने भी खूब देखी हैं।
मुकदमों के सिलसिले में जो उनके खिलाफ थे, जमीन के हकहकूक के लिए लड़ रहे उनके तमाम साथियों के खिलाफ भी थे, कचहरियों में उनने जिंदगी बिता दी तो उनका ख्वाब था कि वकील बनकर मैं उनके हक हकूक की लड़ाई में शामिल हो जाऊं। मैं वह न बन सका।
हांलांकि उसका मलाल मुझे अब नहीं होता। उनके खास दोस्त, उनके आंदोलनों के साथी मांदार मंडल की नतबहू और मेरे दोस्त कृष्ण की पतोहू, प्रदीप की पत्नी लक्ष्मी मंडल एलएलएम पीएचडी हैं जो बसंतीपुर की बहू है और मेरे पिता के ख्वाबों को वह पूरा करेंगी, मुझे पक्का यकीन है।
मेरे पिता को मुझे डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस पीसीएस बनाने की कोई गरज थी नहीं। वे चाहते थे कि हम उनकी जमीन पर मजबूती से जमे रहे, यह भी मैं नहीं कर सका। हम वहां थमे नहीं हरगिज।
लेकिन मेरे पिता मेरे पेशे और मेरी मामूली हैसियत से कभी शर्मिंदा नहीं हुए और ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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मेरी पूरी कोशिश होती है कि मेरी वजह से बसंतीपुर में या नैनीताल में किसी को शर्मिंदा कभी न होना पड़े। मिशन यही है।
शुक्र है कि वे सिर्फ तभी तक जिंदा रहे, जब तक पत्रकारिता का मतलब मिशन था और अब जब वह मिशन नहीं है, मेरे पिता, जनता के पुलिनबाबू जो अब महज एक बूत में तब्दील है, जिंदा नहीं हैं। मेरी पत्रकारिता के लिए उनके शर्मिंदा होने की शर्म नहीं है।
बहरहाल
कांग्रेस भी आरएसएस से कम नहीं, न अकाली कम है, मुफ्ती में भी दम कम नहीं है
और भी आरएसएस हैं बहुतेरे रंग बिरंगे इस जहां में आरएसएस के सिवाय
मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी मनुस्मृति को जलाने के लिए फिर कोई बाबा साहेब चाहिए
सूरत बदलना उतना आसां भी नहीं, मुकाबले की मंशा है तो जमीन पर आइये
जल्द से जल्द जनता के बीच जाइये, जनता से सीखकर फिर कोई दांव आजमाइये
कि जल रहा है कश्मीर अपने हिस्से का
तो पंजाब में हो रही है जो आगजनी रोज रोज
जो घात लगाये बैठे हैं तमाम हत्यारे इंच इंच
हमें हरगिज खबर नहीं है कि सेंसरशिप से वारदातें
इस दुनिया में कहीं रुकी नहीं है और
ट्विन टावर भी गिरे हैं इसी खुशफहमी में
व्हाइट हाउस और पेंटागन के जरखरीद
गुलामों की समझ की बात यह नहीं
देश जो बेच रहे हैं रोज रोज
मसला उनका यह हरगिज नहीं
इस वतन से मुहब्बत हैं जिन्हें
कारोबार नफरत का जिनका नहीं
कारोबार अंधियारा का जिनका नहीं
वे जो बाकी वतन के लोग हैं हमारे
उनसे गुजारिश है हमारी जागो
जाग सको तो जाग जाओ रब के
बंदे और बंदियों तमाम कि
फरेबी रंग बिरंगे रब तुम्हारा
बेच रहे हैं सरेआम कि फरेबी
बेच रहे हैं मजहब तुम्हारा
सरेआम, सरेआम आगजनी है
आग लगी है घरों में तुम्हारे
और वतन जल रहा है तुम्हारा
जल रहा है कश्मीर और फिर
जलने लगा है पंजाब भी
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जल रहा है आदिवासी भूगोल
जिंदा जल रहे हैं सारे बहुजन
जल रही है इंसानियत कि
कुदरत को आग लगा दी है
उनने जो दुश्मन इंसानियत के
अब कोई इबादत काम की नहीं
न दुआ दवा से बेहतर है
न नमाज काम आयेगा
और न आरती से बचेंगे
रोजा और उपवास नाकाम है
कि रब भी अब किराये पर है
रब को मानने वालों, जागो
वतन पर मरने वालों, जागो
जो मजहब फरोश हैं तमाम
वे ही वतन फरोश हैं तमाम
जरायमपेशा गिरहकटों के
खिलाफ हांकों जाग जाग
दरअसल मैं लंबे अरसे से लिख रहा हूं कि हिंदुत्व की नींव दरअसल बंकिम का वंदे मातरम् है।
दरअसल मैं लंबे अरसे से लिख रहा हूं कि नवजागरण किसी भी सूरत में जागरण नहीं है, वह हिंदुत्व का पुनरूत्थान है क्योंकि ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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नवजागरण के मसीहा लोग जमींदार थे और अपनी दलित और मुसलमान प्रजा की चमड़ी उधेड़ने में बेहद उस्ताद थे।
कि कवि रवींद्र के पिता देवर्षि ने झारखंड के तमाम आदिवासियों को पूर्वी बंगाल और असम के चायबागानों में मजदूर बनाया हुआ था।
कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर के संस्कृत कालेज में गैर ब्राह्मण का दाखिला निषेध था।
कि तमाम सामाजिक बुराइयां सत्ता वर्ग का था।
जैसे वैदिकी धर्म कर्म को हिंदुत्व और इस्लाम के उदारवाद से जोड़कर हिंदुत्व को नया चेहरा दिया गया, वैसे ही इस्लाम और ईसाइयत से हिंदुत्व के चेहरे का मेकओवर था नवजागरण।
सिपाही विद्रोह की पहली गोली बैरकपुर छावनी में किसी मंगल पांडेय ने चलायी थी, जिसे हम पहली आजादी की लड़ाई मानते हैं और खास बात यह है कि उस लड़ाई में नवजागरण के तमाम मसीहा अंग्रेजी हुकूमत के कारिंदे बने रहे उसी तरह जैसे तमाम किसान आदिवासी विद्रोह के सिलसिले में वे महज बंगाल के धनी जमींदर थे। रवींद्र भी आखिर प्रजा उत्पीड़क जमींदार थे कवि तो थे ही वे नोबेल पाये हुए।
जैसे स्वदेशी आंदोलन में सामंती अवसान के खिलाफ विद्रोह था, वैसा ही कुछ रहा होगा नव जागरण और कुछ नहीं।
हम बार-बार लिखते बोलते रहे हैं कि अछूत बंगाल में न ब्राह्मण कभी थे और न वर्ण व्यवस्था थी।
दूसरा वर्ण क्षत्रिय बंगाल में आज भी अनुपस्थित है और शूद्र क्षत्रिय और वैद्य सत्ता वर्ग में हैं अब भी, यह हमारे कहे का सबूत है।
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कल दिन भर हम अपने दोस्तों और साथियों से गुफ्तगूं करते रहे फुरसत में। गुप्तगूं के सिवाय बाकी हम तो महाजिन्न के कारिंदों के मुताबिक या नपुंसक हैं या फिर मजनूं या दारुकुट्टा और इसीलिए खुदकशी पर आमादा हैं।
मजा यह है कि इस हिंदुस्तान की सरजमीं पर हर शख्स बहुत भोला है। भोलेनाथ की तरह जिसके मत्थे पानी चढ़ाने हमारे लोग सबसे ज्यादा कांवर ढोते हैं और सावन का मजहबी नजारा यही है।
हमारे लोग इम्पल्सिव बहुत है। थोड़ा सा मिजाज बिगड़ गया किसी से खपा हो गये तो अपनों को सबक सिखाने दुश्मनों के खेमे में समझे बूझे बिना अपनों के कत्लेआम की खातिर दन्न से चले जाते हैं। रामायण महाभारत के किस्सों में यह सबसे बेहतरीन मसाला है।
अब भी हम रामायण और महाभारत का त्रेता और द्वापर एक मुश्त जी रहे हैं तो खून की नदियां लबालब हैं और समुंदर भी जलने लगा है और हिमालय भी पिघलने लगा है। लावे से जब जलने लगे हैं हम तो सोच भी रहे हैं हम और सर भी धुन रहे हैं हम, या रब, क्या कर डाला हमने कि वोट डालने से पहले सोचा नहीं कि वतन वतनफरोशों के हवाले कर रहे हैं हम।
कल के गुफ्तगू में खास हासिल इतिहास का एक सबक है जो कोलकाता विश्वविद्यालय के अंग्रेजी साहित्य के फाइनल ईअर के एक छात्र ने मुझे पढ़ाया और मेरी गलतफहमी दूर हुई कि कमीनी नई पीढ़ी कुछ भी नहीं समझती और मुझे बेहद खुशी है कि उसकी राय से इत्तफाक हो गया।
उसी ने चौंकाया मुझे यह कहकर कि विलियम केरी ने जबसे बाइबिल का अनुवाद श्रीरामपुर के किराये के मकान से शुरु किया तबसे जारी है हिंदुत्व का यह पुनरूत्थान का सिलसिला। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पैदा भी नहीं हुआ था।
फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले स्वामी विवेकानंद ने फिर हिंदुत्व का महिमामंडन किया और अजीब संजोग यह भी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और राम कृष्ण मिशन का गठन 1885 और 1887 में हुआ।
संजोग यह भी कि भारत विभाजन के वक्त हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व संघ परिवार ने नहीं, कांग्रेस ने किया और आजादी के बाद राममंदिर आंदोलन से पहले तक संघ परिवार का एजंडा ही कांग्रेस का एजंडा रहा है जो संजोग से भाजपा का एजंडा है और संजोग से कांग्रेस का मौलिक नर्म हिंदुत्व अब सत्ता से बाहर है और बेहतर हिंदुत्व की कवायद कर रही है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा उस सांस्कृतिक क्रांति की फसल है, जिसको अंजाम देने वाले सबसे बड़े हिंदू का नाम मोहनदास करमचंद गांधी हैं और वंदे मातरम रचने वाले बंकिम इस सांस्कृतिक क्रांति के जनक हैं।
बदलाव का ख्वाब देखने वालों के लिए जरूरी है कि जो सांस्कृतिक विरासत हम ढो रहे हैं, उसका जुआ पहले उतार फेंकने की उम्मीद करें और वैकल्पिक राजनीति से पहले वैकल्पिक सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करें।
फिलहाल संघ परिवार का जलजला है। वरना सच यह है कि पूना समझौता के बाद बहुजनों को जन प्रतिनिधित्व से वंचित करने के बाद यह मुकम्मल हिंदू राष्ट्र है। न होता तो हमारे राष्ट्र के नेता भारत विभाजन कर नहीं रहे होते और न जनसंख्या स्थानांतरण का हादसा होता।
बेदखली का यह अनंत सिलसिला आखिर हिंदू राष्ट्र में जनसंख्या स्थानांतरण और समायोजन का खेल है। हिंदुत्व का भूगोल मुकम्मल बनाने की राजनीति है तो राजनय भी वही और उसी के मुताबिक यह वैदिकी हिंसा की मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था, जिसमें और जो हो, सो हो लोकतंत्र होने का सवाल ही नहीं उठता और भले ही संविधान में बाबासाहेब कुछ और लिख गये, लोक कल्याणकारी राज्य नाम का कोई चिड़िया का बच्चा कहीं नहीं है और न किसी नागरिक के कोई मौलिक अधिकार हैं।
चिल्लपो मचाने से हालात नहीं बदलने वाले हैं यकीनन और हालात बदलने के लिए हालात बदलने के करतब भी दिखाने होंगे।
पलाश विश्वास


