यू.पी. पुलिस द्वारा काँवड़ यात्रा में डी.जे. पर प्रतिबंध एवं उज्जैन के प्रसिद्ध महाकाल मंदिर के गर्भ गृह में कांवड़ियों के ज़बरन जूता-चप्पल सहित प्रवेश की घटना का यद्यपि एक दूसरे से कोई सीधा सम्बंध नहीं है, फिर भी दूसरी घटना प्रतिबंध को बल प्रदान करती है और समाज द्वारा इस पर कोई आश्चर्य ना करने के कारण को भी स्पष्ट करती है।
बहुत छोटे से समूह को छोड़कर लगभग पूरा भारतीय समाज ईश्वर में विश्वास करते हुए विभिन्न तरह के कर्मकांडों का पालन करता है और सुकून की अनुभूति करता है। समाज के दबाव के बाद भी ईश्वर में विश्वास और कर्मकांडो का पालन पूर्णत: व्यक्तिगत अभिरुचि का प्रश्न है, धर्म के द्वितीयक स्वरूप के रूप में कर्मकांड़ीय उत्सव एवं आस्तिकता के प्रदर्शन का आज दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है।

काँवड़ यात्रा आज ऐसी ही धार्मिक परंपरा बन चुकी है, जहां श्रद्धा और भक्ति की जगह श्रद्धालु हुडदंग का मनोरंजन करते हैं।
काँवड़ यात्रा कोई नई परंपरा नहीं है, इसका प्रारम्भ कभी परशुराम द्वारा गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर बागपत के पास स्थित पूरा महादेव के अभिषेक से तो कुछ मान्यताओं भगवान राम द्वारा सुल्तानपुर से काँवड़ में गंगा जल लाकर बाबा धाम में शिवलिंग के अभिषेक से जुड़ा है। इसके अलावा त्रेतायुगीन कथानुसार श्रवण कुमार द्वारा माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराना काँवड़ की पहली घटना है। काँवड़ यात्रा पुराणों में भी उल्लिखित है।
कुल मिलाकर यात्रा पुरानी है, परंतु इसका वर्तमान स्वरूप नया है जिसमें काँवड़ की पवित्रता के कठोर नियम, प्रकृति के प्रति प्रवृत्ति, शिव कल्पना की भांति अल्हणपन, मदमस्ती एवं फकीरी का अभाव है।
धर्म को समाज ने बनाया है। प्रवर्तक समाजशास्त्रियों ने समाज को जानने के लिए सर्वप्रथम धर्म और उसके विश्वास को ही समझने का प्रयास किया।
धर्म का समाजशास्त्र इसमें अंतर्निहित आलौकिक शक्तियों का विश्वास नहीं करता और न ही धार्मिक विचार के सही या गलत होने पर विचार करता है।
धर्म अलौकिकता में विश्वास है, जो निसन्देह काल्पनिक और संदेह से दूर है, लेकिन इससे जुड़े विश्वास एवं प्रतीक वास्तविक हैं।
धर्म का समाजशास्त्र इन्हीं विश्वासों और प्रतीकों का अध्ययन करता है। विशेषकर आज के माहौल में, जो कि यद्यपि अतिआधुनिक एवं वैश्विक माना जाता है, धार्मिक प्रतीकों और उसमें विश्वास अविश्वसनीय रूप से बढ़ा है।
इसके अलावा वैश्विक स्तर पर राजनीति और बाजार की इसमें बढ़ती भूमिका अलग चर्चा का विषय है।
विश्वासों की अभिव्यक्ति किसी धर्म विशेष को मनाने वाले व्यक्तियों के आचरण और व्यवहारों में होती है, जिसका निरीक्षण-परीक्षण संभव है। इसी आधार पर ईमाइल दुर्खीम धर्म की व्याख्या एक प्रकार्य के रूप में करते हैं, जो सामाजिक एकीकरण करता है तो वेबर पूंजीवाद का विकास होने और न होने में धर्म के विचार को महत्वपूर्ण मानते हैं।
कार्ल मार्क्स धर्म को यथास्थितिवाद मे विश्वास करने वाला घातक विचार मानते हुए अफीम कहते हैं।
धर्म से संबन्धित अनगिनत प्राक्कलपनाएं हैं। लेकिन, वास्तव में समाजशास्त्र के नजरिए से धर्म भी एक विचारधारा है, जो जनसामान्य स्तर पर कर्मकांडीय आवरण में उपलब्ध है।
इसी धार्मिक विश्वास के अंग के रूप में काँवड़ यात्रा शिव को प्रसन्न करने का साधन मानी जाती है। शिव को भी एक प्रतीक माना जाय तो वो उपेक्षितों एवं अल्हड़ फकीरी के देवता हैं। शिव अवैदिक एवं निराकार हैं, जिनकी स्मृति सिंधु सभ्यता के खंडहरों में में मिल चुकी है। शिव प्रतीकों से पहचानें जाते हैं। उनका शिवलिंग स्वरूप सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इसके अतिरिक्त भी तमाम व्याख्याएं हैं, लेकिन मूल प्रश्न कांवड़ियों के अमर्यादित आचरण और इस यात्रा से जनमानस को होने वाले कष्टों का हैं।
काँवड़ यात्रा में ना सिर्फ समाजशास्त्र बल्कि मानोविज्ञान भी समाहित है। यहाँ कोई वी.आई.पी. कोटा नहीं है। लंबी दूरी पैदल तय करने के लिए कठिन शारीरिक श्रम की जरूरत है, इसलिए ये आसान नहीं है, इसके लिए चली आ रही परंपरा एक प्रेरक का काम करती है, जिसके लिए समूह का होना एक आवश्यक शर्त है।
जब भी कोई समूह स्वयं को पारिवारिक और सामाजिक मानदंडों से मुक्त पता है, तो उसमें उपद्रवी प्रवृत्ति की का उत्पन्न होना अपेकक्षाकृत सहज हो जाता है। और इस सामाजिक व्यवहार को समाज सम्मत नहीं माना जा सकता।
काँवड़ यात्रा के संदर्भ में तीन बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं। पहली, कांवड़ियों में अधिकतम सहभागिता युवाओं की है। दूसरी, इनमें से अधिकांश निम्न मध्यम वर्ग या उससे भी निचले आर्थिक वर्ग से हैं। तीसरी कि, इसमें विश्वास की जगह मनोरंजनात्मकता अधिक है।
तीनों ही अपने आप में एक कारण हैं। काँवड़ यात्रा से संबन्धित नियमों एवं संयम को छोड़ दिया जाय तब भी इसमे कठोर श्रम की आवश्यकता होती है, जिसके कारण युवा समूह ही इसमें सक्षम हो पाते हैं।
धार्मिक यात्राओं का अपना सामाजिक एवं व्यक्तिगत महत्व होता है। जो सुकून एवं ताजगी अमीर वर्ग को गोवा के बीच और बाबा अमरनाथ की की खर्चीली यात्रा पर मिलती है, वही अनुभूति समाज का बड़ा समूह स्वच्छता विहीन अयोध्या के सरयू तट पर स्नान और सुविधारहित भीड़ भरे कुम्भ मेले में पाता है।
काँवड़ यात्रा शिव की लोक प्रचलित जीवन शैली को कुछ क्षण जीने की अनुभूति कराता है, लेकिन संक्रमण काल से गुजरते इस समाज में यात्रा का भोंडा रूप ही दिखाई देता है। इसे कतई धर्म से जोड़कर नहीं देखना चाहिए और समाज में ऐसा ही हो रहा है।
धार्मिक यात्राएं तभी प्रकार्यात्मक हो सकती हैं, जब नियम और आचरण के दायरे में हों, जिसे समाज की सहज स्वीकृति मिले। यात्रा का विरोध यद्यपि कुछ लोग सिर्फ फ़ैशन के वशीभूत करते हैं, लेकिन अनायाश नहीं है। कभी काँवड़ का महत्व उससे संबन्धित नियमों एवं आचरण में निहित था, जिसका मूल परिणाम जल के प्रति संवेदना के साथ शारीरिक-मानसिक संयम एवं शांति के रूप में सामने आता था, परंतु आज यह लगभग दुष्प्रकार्यात्मक हो चुकी है।
डॉ. मनीष पाण्डेय